बुधवार, 28 अक्तूबर 2015

धीरज धरें,दाल-रोटी भी मिलेगी !

सरकार विकास करना चाहती है पर उसके विकास-पथ में सबसे बड़ी बाधा विरोध है।वह इधर काम में जुटती है उधर विरोधी उसे डिस्टर्ब करने लगते हैं।सरकार को मजबूरन बयान देती है। विरोधी इसी ताक में रहते हैं,वे उस बयान को ले उड़ते हैं। इस तरह मासूम बयान को खमियाजा भुगतना पड़ता है। हर चैनल पर उसकी तुड़ाई होती है।वह अपने बचाव में उतर आता है,स्वयं को तोड़-मरोड़कर सबके आगे प्रस्तुत करता है।विरोध को उस पर तनिक दया नहीं आती।आखिरकार बयान विकास के रास्ते में घुस जाता है। वहाँ विरोध की दाल नहीं गलती।

सरकार का रास्ता विकास का है जबकि असहिष्णु लोगों का विरोध का। यह विरोध भी केवल लुटियन जोन तक सीमित है।इसी से पता चलता है कि असहिष्णुता का रास्ता लंबा नहीं है।विकास का रास्ता लंबा है इसीलिए उसे पहुँचने में देरी हो रही है।सरकार विकास के लिए प्रतिबद्ध है।पर इसके लिए जनता को सहिष्णु होना चाहिए। जल, जंगल और जमीन पर सरकार की नजर है। नया विकास-पथ यहीं से होकर गुजरेगा।असहिष्णुता विकास-विरोधी और आभिजात्य-कर्म है।खाए-अघाए लोग ही इस समय 'बोलने का संकट' बता रहे हैं।गरीब, मजदूर और किसान अभी भी सरकार के 'मन की बात' सुन रहे हैं। उन्हें पता है कि कभी न कभी विकास रेडियो के रास्ते कूदकर बाहर आएगा। ऐसी सहिष्णुता से ही पिछले सत्तर सालों से देश चल रहा है।

सरकार को इन्हीं सहिष्णु ताकतों पर भरोसा है।मंहगाई, भ्रष्टाचार और मार-काट की बाधाएं उसकी राह में रोड़ा नहीं बन सकतीं।जो सरकार से सहमत नहीं हैं उनके लिए उसके पास पिछले कई उदाहरण हैं। वह काम से नहीं बयान से ही उन्हें चित्त कर देगी। कहा भी गया है कि 'जहाँ काम आवे सुई, कहा करै तरवारि'।
सरकार का मूल-मन्त्र है सबके प्रति सहिष्णु हो जाओ। इससे सरकार अपना काम करेगी और जनता अपना।दाल मँहगी है तो आलू खाइए। लुटियन जोन में रहने वाले आलू के चिप्स खाकर ही गंभीर विमर्श करते हैं।आप सहिष्णु बनिए।अभी तो' मन की बात 'के दो सौ छप्पन एपीसोड आने बाकी हैं। रास्ता लंबा है पर तय ज़रूर होगा। तब तक आँख-कान को आराम दीजिए,गाजर-मूली का स्टॉक करिए।सरकार विकास और बिहार से फुरसत पा ले,जादू-टोना सीख ले, फिर आपको दाल-रोटी भी खिला देगी।

लतियाने का साहित्यिक महत्त्व !

आलोचक-प्रभु जी प्रस्तर-पीठिका पर विराजमान थे।हमें देखते ही उन्होंने अपना दाहिना हाथ शून्य की ओर उठाया,मानो वे हमारी जड़ता को तोड़ने का संकेत दे रहे हों।उनका इतना स्नेह देखकर मैं अभिभूत हो गया।मेरी दृष्टि बरबस उनकी काया के सबसे निचले भाग की ओर ताकने लगी।मुझे ऐसा करते हुए प्रभु बोल पड़े,’क्या खोज रहे हो वत्स ? किसी गम्भीर तलाश में दिखते हो ! ’ मैंने चेहरे पर पूर्ण चेलत्व-भाव लाते हुए निवेदन किया,’प्रभु आपके चरणारविन्द कहाँ हैं ? मैं उन्हें स्पर्श कर अपना जीवन धन्य करना चाहता हूँ।आप जानते हैं कि जब तक मुझे आपके चरणों का संसर्ग नहीं मिलता,की-बोर्ड पर मेरी उँगलियाँ आगे नहीं बढ़तीं।’

प्रभु पक्के अन्तर्यामी ठहरे।हमारी विवशता तुरंत समझ गए और बोले,’वत्स ! चरण अभी खाली नहीं हैं।बड़ी दूर से ये कविश्री आए हुए हैं और चरणों पर स्नेह-अर्पित कर रहे हैं।इस बार की साहित्य-अकादमी इनके ही नाम बुक करवाई है।तुम तो मेरे गुणों के नियमित ग्राहक हो ।तुम्हारे लिए कुछ और मैनेज कर देंगे।तुम पहले तनिक विश्राम तो कर लो,फ़िर यह आवश्यक कर्म भी कर लेना।’ मैंने कहा,’प्रभु ! मैं बहुत चिंतित होकर ही आपके पास आया हूँ।इधर राजनीति से खबरें आ रही हैं कि बहुत ही खास और निकट के लोगों को लात मारकर आगे बढ़ाया जा रहा है।कहीं साहित्य इस मामले में पिछड़ गया तो ?’

‘नहीं वत्स,उसकी भी व्यवस्था मैंने सोच रखी है।साहित्य इस मामले में न पिछड़ने पाए इसके लिए हम प्रतिवर्ष लातोत्सव का आयोजन करने जा रहे हैं।जिससे सभी किस्म की लातें अपना हुनर दिखा पाएंगी।इससे यह फायदा भी होगा कि सबकी लातत्व-क्षमता देख-परखकर ही गुरु चुना जा सकता है।गुरु यदि ढंग से लतिया सकता है तो शिष्य भी मौका पाकर उसे अगूँठा दिखा सकता है।’आलोचक जी इतना कहकर हमारी ओर देखने लगे।हमने भी बिना मौका गँवाए पूरे समर्पित भाव से उनकी आशंका खारिज करते हुए कहा,’मेरी पीठ आपके लिए सदैव हाज़िर है।आप जैसे चाहें,उछलें-कूदें।यह पीठ आजीवन आपकी आभारी रहेगी।भविष्य की,सॉरी साहित्य की चिन्ता में मैं इस बार पिछवाड़े से कूदकर आया हूँ ।मेरी अंतिम इच्छा थी कि आप मुझे ही लतियायें,पर यहाँ तो कविवर पहले से ही लिपटे हुए हैं।’


आलोचक-प्रभु जी यह बात सुनकर थोड़ा चौकन्ने और सतर्क हो गए ।थोड़ा विचारकर कहने लगे,’राजनीति में लात मारने की कला से मैं अनभिज्ञ नहीं हूँ वत्स, पर वहाँ अभी भी इस क्षेत्र में पिछड़ापन है।साहित्य में ये विधा बहुत पहले से चलन में है।यहाँ तो आगे से ही लात का प्रहार किया जाता है जबकि राजनीति में अभी भी उसे पीछे से मारा जाता है।लतियाना साहित्य की मौलिक परम्परा रही है।हम इस विधा के अग्रदूत हैं तभी इतनी बड़ी पीठिका में चरण धरे हुए हैं।तुम्हारी चिन्ता व्यर्थ है वत्स ! यह कवि बहरा है।इसे अपनी कविताओं के अलावा कुछ सुनाई भी नहीं देता है।इससे आतंकित मत हो।’

अभी भी मेरे मन को पूर्ण आश्वस्ति नहीं हुई थी।मैंने प्रभु को कातर नेत्रों से देखते हुए उनसे याचना की,’पर मेरे मौलिक अधिकार पर किसी अन्य ने डाका डाल लिया तो चिन्ता तो होती है भगवन ! बिना आपके लतियाये मेरी साहित्यिक यात्रा आगे कैसे बढ़ पाएगी ?मैं तो अनाथ हो गया प्रभु !’

प्रभु ने सदा की तरह मेरे ऊपर अपना पूरा स्नेह निचोड़ दिया,बोले-‘वत्स ! मैं जो भी कर रहा हूँ,तुम्हारे कल्याणार्थ ही है।समय अब बहुत बदल गया है।इस क्षेत्र में प्रतियोगिता बहुत बढ़ गई है।इसलिए अच्छे परिणाम पाने के लिए चरणों में तेल-मालिश करवा रहा हूँ।इसके बाद लतियाने की गुणवत्ता चौगुनी बढ़ जाती है।हमें भी बुढ़ापे में अब सूखी लात मारने में बड़ा कष्ट होता है,इसलिए चिकने चरण मेरी और लात खाने वाली पार्टी,दोनों की सेहत के लिए मुफीद हैं।और हाँ,तुम चिन्ता मत करो,पहले प्रहार पर तुम्हारा ही अधिकार है।इससे तुम्हें वंचित नहीं करूँगा।कविवर सूखी लात खाकर ही सुखी हो जायेंगे।’

आलोचक-प्रभु जी के ऐसे स्नेहसिक्त वचन सुनकर मेरे नयन आर्द्र हो उठे।मैंने उनसे अगली साहित्यिक गोष्ठी के विमर्श के लिए निवेदन किया तो बोले,’अगली बार गोष्ठी प्रारम्भ होने से पहले ही अपने गुट के सभी सदस्यों को सामूहिक रूप से लतियाया जायेगा ताकि उनके अंदर के सभी मनोविकार अपने सहज रूप में बाहर आ जाएँ और आगामी लातोत्सव-प्रतियोगिता में बेहतरीन प्रदर्शन कर सकें।इससे सदस्यों में अतिरिक्त ऊर्जा का संचार होगा और वे बैठक में विरोधी गुट से लतिहाव करने की स्पर्धा में पिछडेंगे भी नहीं।’


इस बीच कविश्री ने कुछ पलों के लिए प्रभु के चरण छोड़े।मैंने इस स्वर्णिम मौके को झट से लपकते हुए उनके चरणों में अपनी पूरी काया समर्पित कर दी।प्रभु ने भी बिना मौका गँवाए,तेल-मालिश युक्त लात का मुझ पर ऐसा प्रहार किया कि मैं वहाँ से सीधे नगर के एक सम्मान-समारोह में जा गिरा।

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

हो गई है घाट पर पूरी व्यवस्था !

कल शाम प्रवक्ताजी मिले,बड़े गुस्से में थे।सरकार बनने के बाद ऐसा पहली बार था।पहले तो उन्होंने हमें घूरा फिर ऊपर से नीचे तक पूरा मुआयना किया। हमें सम्मान-हीन देखकर आश्वस्त हुए और बोले,’ इतने दिनों बाद ऐसी सरकार आई है और आपकी बिरादरी कुछ मांगने के बजाय वापस लौटा रही है..।यह हमारे खिलाफ साजिश है।’

हमने भी कहा,’हो सकता है कि कोई गहरी साजिश हो।इसकी जाँच कराई जाय कि जिन लेखकों के हाथ में कलम और कागज होना चाहिए उन्होंने अपने सम्मान-पत्र के गोले बनाकर सरकार पर कैसे फेंकने शुरू कर दिए।यह तो हद है ! प्रवक्ताजी बिफर पड़े,’हम पर उन्हें अपमानित करने का आरोप लग रहा है,जबकि सम्मान वापस करके उन्होंने स्वयं अपमान चुना है।अरे भाई,दोनों चीजें एक आदमी के पास कैसे रह सकती है ?वैसे साहित्य को सहिष्णु और तटस्थ होना चाहिए।इसके लिए हम उन्हें तट पर बैठाकर उनका पुनर्वास कर सकते हैं।वे अपने मनपसंद घाट चुन लें।’

हमने मामले को ठंडाने की गरज से उनके साथ चिन्ता साझा की,’आप सौ फीसद सही कह रहे हैं।पर सम्मान को अपमान में न बदला जा सके इसके लिए आपकी सरकार क्या कर रही है ?प्रवक्ताजी संयमित होते हुए बोले,’हमने एक योजना बनाई है कि जिस सरकार के रहते साहित्यकारों को सम्मान दिए जाएँ,उस सरकार के जाते ही वे सम्मान एक्सपायर हो जाएँ।इसमें इस विकल्प पर भी विचार हो रहा है कि दूसरी सरकार के दिए गए सम्मानों के लिए वर्तमान सरकार जिम्मेदार नहीं होगी।यह बात साहित्यकार के मान-पत्र पर ही चस्पा कर दी जाये।’

हमने ध्वनिमत से वह प्रस्ताव तुरंत पास कर दिया।सरकारी सम्मानों के लिए यह बेहतरीन योजना लगी।’साहित्यकारों को और क्या-क्या करना चाहिए,यह भी अगर सरकार द्वारा बता दिया जाय तो ऐसी स्थिति निर्मित ही न हो।नेताजी अचानक से चहक उठे,’इसीलिए हम आप जैसे लेखकों का सम्मान करते हैं।हम आम लोगों के खाने-पीने से लेकर बोलने-कहने तक सबके लिए एक नियम बनाने जा रहे हैं।’वेदों की ओर लौटें’ हमारे इसी प्रोजेक्ट का हिस्सा है।उनमें वर्णित बातें हमारे लिए कानून हैं।हम इसकी पालना सुनिश्चित करेंगे।’

‘पर एक अड़चन आ सकती है।हमारा संविधान कहीं इसके आड़े आ गया तो..?’हमने गम्भीर चिन्ता प्रकट करते हुए प्रवक्ताजी की ओर ताका।वे भी तैयार थे,कहने लगे,’संसद की संप्रभुता ख़तरे में है।ज़रूरी हुआ तो इस पर हम रोजाना ट्वीट करेंगे।’

इसके बाद हमारे सीने में उठ रहा दर्द कुछ शांत हुआ।

सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

एक दिन का निदान !

आप किसी भी समस्या से परेशान हैं तो खुश हो जाएँ ।जल्द ही इसका समाधान निकलने वाला है।सरकार के हाथ ऐसी जुगत लग गई है जिससे समस्या कितनी भी बड़ी हो,उसका नैनो-हल उसके पास आ गया है।शहरों में ‘टेरेफिक’ होते हुए ट्रैफिक को ‘कार-फ्री डे’ मनाकर इसकी शुरुआत कर भी दी गई है।अब हमें तीन सौ पैंसठ दिन यातायात के बारे में नहीं सोचना है।साल में या महीने में एक दिन किसी एक सड़क को आम जनता के लिए खोला जायेगा।उस पर लोग अपनी साइकिल दौड़ा सकते हैं,गन्ने चूसते  हुए टहल सकते हैं और मनपसंद फ़िल्मी-गाने गुनगुना सकते हैं।उसी सड़क पर बने डिजाइनर गड्ढों में बच्चे एडवेंचर कर सकते हैं,कागज की नाव बहा सकते हैं और गप्पियों में कंचे खेल सकते हैं ।

अब धीरे-धीरे हर काम टोकन के जरिये किया जा रहा है।पहले पैसा पाने के लिए हुंडी तोडना पड़ता था या अँगूठे की छाप देना पड़ता था।अब मशीन में टोकन अंदर और पैसा बाहर।यानी बड़े तामझाम को एक टोकन में समेट लेना।इसी तरह दूध और पानी भी मिलने लगा है।ऐसा रहा तो ताज़ी हवा भी हमें टोकन के जरिये मिलेगी।इसके लिए बस एक ‘डे’ ही टोकन है।एक ही दिन में हम अपने फेफड़ों में इतनी हवा भर लेंगे कि पूरे साल भर तक रीचार्ज होते रहेंगे।

कामों को जल्दी करने और आसानी से करने की इस अनूठी योजना से प्रभावित होकर ‘संविधान-दिवस’ की तैयारी की जा रही है।हर समय संविधान को अपने हाथ में लेकर चलने वाले अब सावधान हो जाएँ।‘कानून-फ्री डे’ रोज मनाने वालों के लिए पाबंदी आयद की जा रही है।उन्हें अपनी जुबान और म्यान को काबू में रखना होगा।केवल एक दिन की ही तो बात है।इससे कानून से हताश और निराश लोगों को सरकार बड़ी राहट देगी।ऐसे ही मांसाहार से परेशान लोग ‘मांसाहार-फ्री डे’ की माँग करके मामला रफा-दफ़ा कर सकते हैं ।जानवरों को भी इससे संदेश जायेगा कि इंसान अभी भी जानवर नहीं बन पाया है।

यह ‘एक-दिनी’ आइडिया है गजब का।इससे उत्साहित होकर ‘लोकपाल-लोकपाल’ चिल्लाने वाले अब ‘भ्रष्टाचार-फ्री डे’ की माँग कर सकते हैं ।इस योजना से अफसरों और बाबुओं को भी ऐतराज नहीं होगा। इस एवज में उन्हें ‘ड्यूटी-फ्री’ नाम से भत्ता दिया जा सकता हैसरकार का भ्रष्टाचार पर वार करने का वादा ऐसे ही पूरा होगा।भ्रष्टाचार पर इतनी सब्सिडी तो हर कोई छोड़ देगा।हाँ,इसके बाद विकास कार्यों में किसी प्रकार की बाधा नहीं पड़नी चाहिए,यह ज़रूर सुनिश्चित करना होगा ।

पहले एक दिन किसी संकल्प के लिए अलॉट होता था,अब किसी न किसी काम के लिए होगा।यह बदलाव बहुत बड़ा है।जमीनी-स्तर पर काम तो अभी शुरू हुआ हैवह दिन जल्द आएगा जब हर दिन किसी काम के लिए अलॉट होगा और केवल टोकन के रूप में किया जायेगा।रोजाना आ रहे एक से बढ़कर एक बयानों पर पाबंदी तभी लग सकती है जब इसके लिए एक दिन निश्चित कर दिया जाये।’बयान-फ्री डे’ होने से जनता का कुछ नुकसान तो होगा पर बयानबाजों को दुगुनी शक्ति के साथ रीचार्ज होने के लिए टोकन भी तो मिल जायेगा।उन्हें अब टोकने की नहीं टोकन की ज़रूरत है।

इससे पहले कि सारे दिन खत्म हो जाएँ,‘दुराचार-फ्री डे’,’लूटमार-फ्री डे’,’कदाचार-फ्री डे’ पर भी सबकी सहमति बन जानी चाहिए।

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

कालिख तेरे हाथ की!

जितना उजला और झक सफ़ेद हो,उस पर उतनी ही कालिमा फबती है।काले कारनामे में एक-दो बार कालिख और पुत गई तो क्या फर्क पड़ता है ! कालिमा इसीलिए सहज होती है और मौलिक भी।उजले और धुले वस्त्र अंततः कालिख की गति को प्राप्त होते हैं।कालिमा कभी भी धवल और उज्ज्वल नहीं हो सकती।काला रंग पक्का होता है और काले कारनामे भी।’काली कामरी’ सभी रंगों को आत्मसात कर लेती है,इसीलिए इसकी महत्ता है।सब इसीलिये इसे ओढ़ना चाहते हैं।

चेहरे पर कालिख पोतना अब केवल मुहावरा भर नहीं रहा।शिक्षित और विकसित होने का सबसे बड़ा प्रमाण-पत्र आज यही है।जो जितनी ज़्यादा कालिख पोत सकता है,वह उतना ही बड़ा क्रान्तिकारी और विचारक माना जाता है।केवल पढ़े-लिखे होने से कुछ नहीं होता जब तक कि आप व्यावहारिक रूप से वैसे कारनामे न करने लगें।परिवर्तनकारी होने के लिए अब बड़े-बड़े ग्रन्थ पढ़ने और दिन-रात सिर खपाने की आवश्यकता नहीं है।बाज़ार से एक अदद स्याही की टिक्की और अपनी आँखों में बचे दुर्लभ पानी से ही यह मनोरथ पूर्ण हो सकता है।किताबों में तर्क खोजने और कानून का निबाह करने की जहमत उठाने की भी ज़रूरत नहीं है।बस,अपने निठल्ले हाथों से कैमरों के चमकते फ्लैश के सामने इसे झोंकना भर है।यह काम पढ़ाई में भाड़ झोंकने से भी ज़्यादा आसान है।

किताबों पर स्याही खर्चने वालों से स्मार्ट वे लोग हैं जो इसे उजले चेहरों पर पोत रहे हैं।जहाँ किताबी-कालिख जीवन-नैया को पार लगाने में हिचकोले खाने लगती है,वहीँ ये कालिख सत्ता की वैतरणी को एक झटके में पार करा सकती है।यहाँ तक कि जूता उछालकर भी कालिख-कर्म सम्पन्न किया जा सकता है।ऐसे लोग संविधान और संस्कार अपने हाथ में लेकर चलते हैं।ये ‘बाय-डिफॉल्ट’ संस्कारी-जीव हैं।संस्कृति के प्रति पूर्णतः समर्पित भी ।अपने मन और धन को तो पहले ही वे अपने प्रिय रंग में रंग चुके हैं,कालिख चुपड़कर तन को भी वैसा बनाना चाहते हैं तो इसमें हर्ज़ क्या है ! वे अब तन-मन-धन से देश-सेवा कर रहे हैं।

अँधेरा काला होता है इसीलिए सारी विशिष्ट कलाएं उसी की शरण में फलती-फूलती हैं।सबसे बड़ा समाजवाद तो अँधेरे का होता है।छोटे-बडे का कोई भेद नहीं रहता।न किसी का सूट-बूट दिखता है न यह कि कौन लंगोटी में है ! अँधेरा गरीब का पक्षधर है।उसके खाली पेट को ढाँपता है।अमीर को और समृद्ध होने की राह दिखाता है।काला इसीलिए सबका अभीष्ट है,फ़िर चाहे वह धन हो या मन।कालिख लगना  कलियुग का प्रताप है।जिसे लग गई वह देश का भविष्य बन जाता है।इसलिए कालिख से नहीं उजाले से डरो।उजाला विकास का शत्रु है,भेदिया है।और भेदिये देशद्रोही होते हैं।

अगली बार जब आप उजले-धुले बने रहने की जद्दोजहद करें तो कालिख पोतने वालों का भी खयाल रखें।आपके उजले होने तक ही उनकी कालिमा का असर रहेगा।इसलिए उनकी मजबूरियों को नज़र-अंदाज़ न करें।जिनके पास सम्मान है,वे उसे वापस दे रहे हैं,उनके पास कालिख है,वे उसे लौटा रहे हैं।

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

कुछ तो ले ले रे.....!

चुनाव सिर पर हैं और नेताजी सांताक्लॉज बन सड़क पर घूम रहे हैं।उनके लम्बे झोले में अनगिन उपहार भरे पड़े हैं।झोला भी अब स्मार्ट होकर ‘विज़न डाक्यूमेंट’ बन गया है।इस पर केवल दृष्टिपात ही किया जा सकता हैजिनकी दृष्टि कमजोर होगी,उन्हें यह ‘विज़न’ दिखेगा भी नहीं क्योंकि इसमें सारे उपहार डिजिटल फॉर्म में रखे गए हैं।ऐसा ‘डिजिटल इंडिया’ की मजबूती के लिए किया जा रहा है । उपहारों की डिलीवरी की शत-प्रतिशत या उससे भी अधिक की गारंटी दी जा रही है।लोग कम हैं और उपहार ज़्यादा।अब इस इस बात को लेकर कन्फ्यूज़न हैं कि वे दाल-रोटी में ही बसर करें या पिज्जा-बर्गर का ऑर्डर भी रिसीव कर लें ! वे नगर के नारकीय-नागरिक बनें रहें या मंगल ग्रह के स्मार्ट सिटिज़न हो जांय ! बहुत कम समय में लोग इतनी सौगातों की बारिश में डूब-उतरा रहे हैं।ऐसी आपदा तो कोशी की बाढ़ के समय भी नहीं आती।इससे उबरें तो उपहारों को पंजीरी बनकर फांकने का लाभ उठा सकें।

सांताक्लॉज के झोले में वह सब कुछ मौजूद है जो एक स्मार्ट नागरिक के पास होना चाहिए।लैपटॉप,स्कूटी और टीवी जैसी चीजें आते ही फटेहाली और भूख अपने-आप भाग जाती है।बंदा लैपटॉप लेकर फेसबुक में यह थोड़ी लिखेगा कि उसके पास रोटी नहीं है।नियमित रूप से स्टेटस अपडेट करने वाले भूखे-नंगे और पिछड़े लोग नहीं होते।खैरात में मिली स्कूटी में बैठकर ‘सेल्फी ले ले रे’ गाते ही डामर वाली सड़क नेताओं के बातों जैसी चिकनी-चुपड़ी हो उठेगी।ऐसे स्टेटस पर लाइक्स की दनादन बौछार होगी।अति स्मार्ट होने का यह दस्तावेजी-सबूत है।
यहाँ तक कि उपहारों का वर्गीकरण भी हो गया है। लड़कों को लैपटॉप,लड़कियों को स्कूटी और उनके माता-पिताओं के लिए टीवी देने की योजना बनाई गई है।इससे चुनाव में सरकार तो बदल ही जायेगी,समाज में भी क्रान्तिकारी बदलाव आएगा।लड़के लैपटॉप लेकर फेसबुक पर ‘गौमाता-बचाओ’ अभियान में व्यस्त रहेंगे और उनकी माताएँ बैग से झाँकती उनकी किताबों को हड़काती रहेंगी।लड़कियाँ स्कूटी में बैठकर ‘ऑल द फन’ की ब्रांडिंग करेंगी और माता-पिता टीवी पर भाभी जी के साथ ‘सही पकड़े हैं’ देखकर मगन होते रहेंगे।यानी सब अपने काम पर।इस तरह सरकार भी अपना काम निश्चिन्त होकर करती रहेगी।
   
लैपटॉप,स्कूटी और टीवी ने बिजली,सड़क और पानी को बड़ी आसानी से रिप्लेस कर दिया है।अब ये सभी चीजें डिजिटल फॉर्मेट में मिलती हैं या टोकन के रूप में।इसीलिए न तो बिजली अब खम्भों और तारों से आती है और न पानी नल से।इनके टोकन रीचार्ज करने के लिए ही लैपटॉप बाँटे जा रहे हैं । टोकन डालने पर दूध और पैसे की तरह पानी निकलेगा।इससे पानी पैसे की तरह बहेगा।अगर उपहार बंटने का मौक़ा मिला तो मंगल का सारा खारा पानी मीठा बनकर बोतल-बंद हो जायेगा ।रही बात स्कूटी की तो वह सड़क से ज्यादा सोशल-मीडिया पर चलेगी।ऐसे में ऊबड़-खाबड़ सड़क में जितने ज़्यादा ‘एडवेंचर’ होंगे,सोशल मीडिया में सरकार की टीआरपी उतनी ही अधिक बढ़ेगी।इस क्रांति से एक फायदा यह भी है कि नई पीढ़ी के रोजगार के लिए एक नया सेक्टर खुल जायेगा।
   
जनता को हर हाल में उपहार मिलना तय है,भले ही किसी को हार मिले।बस उसके लिए उपहार चुनना आफत का काम है।दीवाली और क्रिसमस ऑफर एक साथ आ गए हैं।एक दूसरे  झोले में गाँवों को शहर बनाने का फार्मूला रखा हुआ है।उसको कई लोग लादे हुए हैं और अब जनता पर लादना चाहते हैं।अभी तक चारा चबाने और ‘सुशासन’ ढोने से ही ‘टैम’ नहीं मिला।था।इस बार यदि जनता ने फ़िर लदने दिया तो वे उसके लिए ‘कामधेनु’ और ‘कल्पवृक्ष’ का इंतजाम कर देंगे।इसके लिए तो टोकन की भी ज़रूरत नहीं रहेगी।जो चीज़ जब चाहिए,मिल जायेगी बशर्ते उसका नेता मिल जाये।‘कामधेनु’ और ‘कल्पवृक्ष’ को जगाने का मंतर उसी के पास है।

फ़िलहाल,बेशुमार उपहार हवा में तैर रहे हैं।जिन्हें लो-नेटवर्क में सिग्नल पकड़ने का हुनर मालूम है,वे पकड़ लें क्योंकि कभी भी कॉल-ड्रॉप हो सकती है।


सेवा के लिए शॉर्प-शूटर.!

बचपन से सुनते आये हैं कि सेवा में ही मेवा होती है।अब उसका प्रत्यक्ष दर्शन हो रहा है।लोग सेवा करने के लिए टूटे पड़ रहे हैं।पहले सेवा स्वेच्छा से होती थी और अब पर्ची काट कर की जा रही है।उस सेवा का कोई वक्त तय नहीं था यह मौसमी है।पाँच साल में एक बार ही जनता के ‘भाग‘ खुलते हैं।सेवक ज्यादा हैं इसीलिए इसके लिए रार और मार मची है।एक अदद पर्ची के लिए कपड़े फट रहे हैं,जूते चल रहे है।सेवा का ऐसा जज्बा पहले कभी न था।
सेवा करने के लिए जेब भरी और भारी होनी चाहिए जिससे सेवा करने का जज्बा उबल कर बाहर आ जाए ।फटी जेब वाले जज्बा रखें तो कहाँ ? अभी इसमें ईएमआई स्कीम भी नहीं आई है।कोई भी काम करने के लिए ‘तन-मन-धन’ का सूत्र यूँ ही नहीं दिया गया है।बाहुबली और थैलीशाह इसीलिए सेवा करने के सबसे पहले हक़दार हैं।
जन-सेवा निवेश का मुख्य क्षेत्र है।इसके लिए टेंडर उठते हैं,बोलियाँ लगती हैं।सेवा करने का ज्वार इतना तीव्र होता है कि विचार अचार के मर्तबान में आ जाते हैं।लम्बे हाथ और लम्बी जेब के स्वामी सेवक बनने के लिए सबसे काबिल माने जाते है।बस उन्हें एक मौका चाहिए ।इस प्रक्रिया में बड़ा श्रम लगता है।बाद में वे दस हाथों और बीस आँखों से जनता की सेवा करके अपना श्रम सार्थक करते हैं।यही ‘मेकिंग ऑफ़ जनसेवक’ है।
जिनको सेवा करने का लाइसेंस नहीं मिल पाता वो बड़े अभागी होते हैं।उनके पास काम लायक एक-दो सेक्टर ही होते हैं।बालू-खनन वाला देश की शिक्षा-नीति की खुदाई भी करना चाहता है पर ऐसे में वह पिछड़ जाता है।इलाके का तड़ीपार कानून और व्यवस्था दुरुस्त करना चाहता है,पर समय से पर्ची नहीं मिल पाती।सेवादार यदि शॉर्प-शूटर हो तो कोई समस्या ही नहीं।सेवा की पर्चियाँ कटनी चालू हैं।हर तरफ सेवादार घूम रहे हैं।वे सेवा को आतुर हैं पर जनता भूमिगत है।उसे हर पाँच साल में अपनी सेवा करवानी पड़ती है।इसके लिए शार्प-शूटर तैयार हैं,बस आपको एक बटन-भर दबाना है।

धुंध भरे दिन

इस बार ठंड ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी कि राजधानी ने काला कंबल ओढ़ लिया।वह पहले कूड़े के पहाड़ों के लिए जानी जाती थी...