रविवार, 30 अगस्त 2020

अध्यक्ष जी के नाम आख़िरी चिट्ठी !

आदरणीय पूर्णकालिक,कार्यकारी,अंतरिम यानॉन-वर्किंगअध्यक्ष जी ! इसमें जो भी संबोधन आपको लोकतांत्रिक लगे, ‘फिटकर लीजिएगा।सबसे पहले हम यहकिलियरकिए दे रहे हैं कि यह वाली चिट्ठी पहले वाली जैसी बिलकुल नहीं है।इसेजस्टपिछली वाली कोकंडेमकरने के लिए लिख रहे हैं।उसमें जो भी बातें कही गई थीं,सब झूठी और मनगढ़ंत थीं।उसे लिखते समय हम अपना क़द और पद दोनों भुला बैठे थे।दल में आपका क़द इतना ऊँचा है कि पद कोई मायने नहीं रखता।सच पूछिए,आप हैं तो दल है।मुखिया का सही अर्थ भी हमें अब समझ आया है।दल में केवल उसे हीमुखखोलने का अधिकार होता है।यह जानते हुए भी हमने नादानी दिखाई और चिट्ठी लिख बैठे।दरअसल सारी गड़बड़ इसलिए हुई क्योंकि हमलोकतंत्रके धोखे में गए थे।हमें लगा कि आपको इस शब्द से विशेष अनुराग है।आए दिन आपलोकतंत्र की हत्याको लेकर चिंतित रहते हैं।आपके सच्चे अनुयायी होने के नाते हमारे अंदर भीलोकतंत्रका कीड़ा कुलबुलाने लगा था।हमने यही सोचकर चिट्ठी लिखने जैसापापकिया कि दल में भी आप लोकतंत्र को फलता-फूलता देखना पसंद करेंगे।हमें ज़रा भी भान नहीं था कि इससे आप ही फूल जाएँगे।हम देश के लोकतंत्र और दल के लोकतंत्र में अंतर नहीं कर पाए।पता चला कि आम की क़िस्मों की तरह लोकतंत्र की कई क़िस्में हैं।काटकर खाने वाला और चूसकर खाने वाला आम अलग होता है।हम लोकतंत्र को चूसना चाह रहे थे।यह जाने बिना कि देश के लोकतंत्र और दलीय-लोकतंत्र में फ़र्क़ होता है।यही ग़लती कर बैठे।इसलिए इस चिट्ठी के माध्यम से उस चिट्ठी में लिखे एक-एक शब्द को हम चबाने की घोषणा करते हैं।हमने ख़ुद के लिखेट्वीटतक डिलीट कर दिए हैं।यक़ीन मानिए,अगर ज़ुबाँ चलाई होती तो उसे भी....


ख़ैर,जाने दीजिए।हम मानते हैं कि आप लोकतंत्र के सच्चे समर्थक हैं।आपका हर कदम लोकतंत्र के लिए ही उठता है।इसके लिए आपका मज़बूत होना ज़रूरी है।जब मज़बूत कदमों से आप आगे बढ़ेंगे तो लोकतंत्र स्वतः मज़बूत हो उठेगा।हमने देखा है कि आप जैसे ही कमजोर होते हैं,लोकतंत्र ख़तरे में पड़ जाता है।दिल की बात कहूँ तो आप इसकी जड़ों से जुड़े हैं।पीढ़ियों से लोकतंत्र को निजी हाथों से थाम रखा है।नहीं तो वह कब का ढह जाता ! इसकी रक्षा हेतु आप संपूर्ण दल को दाँव पर लगा सकते सकते हैं,इसका भरोसा है हमें।


बहरहाल,उस चिट्ठी से हुई आपकीपारिवारिक-अवमाननासे हम बेहद आहत हैं।इसेलीककरने की हमारी कोई मंशा नहीं थी।बंद लिफ़ाफ़े में भेजने में यह आशंका थी कि वह कभी खुलती ही नहीं।उसके खुलने से काफ़ी कुछ खुल गया है।इसकी भरपाई इस चिट्ठी से तो नहीं हो सकती है पर हम संकल्प लेते हैं कि भविष्य में कभी चुनाव का नाम तक नहीं लेंगे।आप जानते ही हैं कि हमें ख़ुद चुनाव से कितनीएलर्जीहै।कभी चुनकर नहीं आए पर आपने हमेशा हमेंउच्च सदनमें बैठाया।हम अब जान गए हैं कि देश दल से बड़ा होता है इसलिए आगे से दल में नहीं देश में चुनाव की बात करेंगे।यह दल के प्रति आपकी भयंकर निष्ठा ही है कि आपने हमेशा इसेनिजीमाना।


हमनेवोचिट्ठी इसलिए भी लिखी थी कि आप बेरोज़गारी को लेकर अक्सर गंभीर रहते हैं।यह मुद्दा हमारे भी पेट से सॉरी दिल से जुड़ा है।जबसे सत्ता छूटी है,बिलकुल फ़ुरसत में हैं।आगे की राह नहीं दिख रही।तिस पर आपको लगता है हम कहीं विरोधियों की राह पकड़ लें ! पर यह तो नामुमकिन है।उधर तो पहले से ही एक भरा-पूरामार्गदर्शक मंडलबैठा हुआ है।वहाँप्रतीक्षा-सूचीतक उपलब्ध नहीं है।क्या कहूँ,उधर वाले जब मोर को दाना खिलाते हैं तो हमारे सीने में साँप लोटते हैं।बुरा माने तो एक आख़िरी सलाह है।आप अच्छी नस्ल का एक नेवला ही पाल लें।कम-से-कम हमारे सीने की जलन तो कम होगी !


लेकिन मुई चिट्ठी लिखने का साइड-इफ़ेक्ट नज़र आने लगा है।आपने सभी कमेटियों से हमें गिरा दिया है।हम तो आलरेडी गिरे हुए थे मगर नज़रों से गिरना असहनीय हो रहा है।हमने बरसों सेवा की है।अब इसउमरमें दूसरे धंधे मेंहाथडालना ख़तरे से ख़ाली नहीं लगता।

कुछ लोग नाहक इल्ज़ाम लगा रहे हैं कि हमारी चिट्ठी से दल में अशांति पैदा हो गई है।हमारा मानना रहा है कि लोकतंत्र के लिए अशांति स्थायी चीज़ है।शांति स्थापित होने सेलोकतंत्रहमेशा ख़तरे में रहता है।संघर्ष करने का विकल्प ही समाप्त हो जाता है।पर हमारे मानने भर से क्या होता है ! हम आज से संकल्प लेते हैं कि भविष्य मेंलोकतंत्रकी कभीडिमांडनहीं करेंगे।फिर भी,अगर आपको तनिक भी बुरा लगा हो,चिट्ठी फाड़कर फेंक देना।फाड़ने का तो अच्छा अनुभव भी है आपको।हम इतना भी अनुदार नहीं कि आपकी अवमानना के लिए क्षमा माँग सकें।लोकतंत्र की रक्षा के लिए हम इतना तो कर ही सकते हैं।अब हमारी रक्षा आप करें !


हम हैं आपके ही 

जरख़रीद ग़ुलाम


संतोष त्रिवेदी 


रविवार, 2 अगस्त 2020

नई और पुरानी पीढ़ी का संघर्ष !

आजकल जिसे देखो,वही संघर्ष सेलैसदिखता है।सबके संघर्ष अलग-अलग हैं।जिसका जैसा क़द,वैसा संघर्ष।कुछ का संघर्ष महज़ पेट भरने के लिए होता है।वे जीवन भर यही करते हुए ख़र्च हो जाते हैं।किसी को प्रेरित तक नहीं कर पाते।जिसका पेट भरा होता है,वह और पैसे के लिए संघर्ष करता है।थोड़ा अहिंसक क़िस्म का हुआ तो पारंपरिक भ्रष्टाचार करके ही संतुष्ट हो लेता है।वह सदैव गांधीवाद के रास्ते पर चलता है इसलिए नए प्रयोग करने से बचता है।जब उसकी जेब नहीं भरती,काम करने मेंअसहयोग आंदोलनशुरू कर देता है।अगर संघर्ष ज़्यादा बड़ा हुआ तो लूट-खसोट और फ़िरौती जैसासम्मानजनकपेशा अपनाता है।आए दिन अख़बारों में ख़बरें बनाता है फिर एक दिन ख़ुद ख़बर बन जाता है।लेकिन ऐसे संघर्ष कम प्रभाव छोड़ते हैं।जो लोग सालोंसाल सत्ता-संघर्ष के लिए प्रतिबद्ध रहते हैं,लोकतंत्र के असली रक्षक वही होते हैं।हर हाल में कुर्सी पाने और बचाने का संघर्ष उच्च कोटि का माना गया है।यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता है।


इधर संघर्ष को एक नया आयाम मिला है।पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी तक आते-आते संघर्ष बहुत बदल गया है।हाल में एक वरिष्ठ सत्ता-सेवक ने इसका रहस्य सरेआम कर दिया।उनके शब्दों में, “नई पीढ़ी के सुदर्शन चेहरों की ढंग सेरगड़ाईनहीं हुई।वे बस फ़र्ज़ी चमक बनाए घूमते रहते हैं।इससे वे निकम्मे और नकारा हो गए।बड़ों की भूख का लिहाज़ भी नहीं करते।सत्ता की महक पाकर उनसे रहा नहीं जाता।सही बात तो यह है कि चेहरा चिकना भर होने से आदमी चिकनी-चुपड़ी भाषा नहीं बोलने लगता।इसके लिए पर्याप्त तेल-मालिश की ज़रूरत होती है।रगड़ाईकी एक लंबी प्रक्रिया है जिसे पूरा किए बिना सियासत में सफलता नहीं मिल सकती।अगर ऐसे लोग शुरुआत से हीरगड़ेजाते तो आलाकमान को जगह-जगहपर्यटन-स्थलनहीं खोलने पड़ते।इस पीढ़ी को यह तक नहीं पता किराजपथका रास्ताजनपथसे होकर जाता है।काँटों भरी पगडंडियों पर नंगे पाँव चलना होता है।नई पीढ़ी को ठीक तरह से शीर्षासन तक करना नहीं आता।हमारी पीढ़ी के संघर्ष से इन्हें सबक़ लेना चाहिए।उस वक़्त कार्यकर्ता चप्पल उठाने से लेकर सब्ज़ी-भाजी तक आलाकमान के घर पहुँचाते थे।सियासत में ऐसी ही सेवा सेवैभवबढ़ता है,किसी जादू से नहीं।लेकिन आज की पीढ़ीफ़ास्ट-फ़ूडकी तरह सत्ता पाना चाहती है।उसे कौड़ी-भर की जनसेवा के बदले करोड़ों कीडीलचाहिए।अपनी नहीं तो कम से कम उसे हमारे स्वास्थ्य की चिंता करनी चाहिए।



पहली बार मुझे किसी जनसेवक की बातें व्यावहारिक लगीं।साहित्य को लेकर मेरी चिंता बढ़ने लगी।मैंने तुरंत सोशल मीडिया में विमर्श झोंक दिया,‘साहित्य में रगड़वाद की संभावनाएँविमर्श शुरू होते ही दो गुट बन गए;एक पुरानी पीढ़ी का,दूसरा नई पीढ़ी का।नई पीढ़ी के लेखक ज़्यादा मुखर थे।एक नवोदित लेखक ने तो यहाँ तक कह दिया कि आजकल साहित्य मेंमुँहदेखकर आलोचना की जाती है।इस पर प्रसिद्ध आलोचक भड़क उठे।उन्होंने फटकार लगाते हुए कहा,‘भाषा का शऊर नहीं तो कम से कम गरिमा का ख़याल रखें।कृपया अशालीन टिप्पणियों से परहेज़ करें।नई पीढ़ी को संघर्ष के बारे में धेला भर का ज्ञान नहीं।इनकेसंघर्षमें वह वजनता नहीं दिखती,जो हमारीरगड़ाईमें है।एक और राज की बात बताता हूँ।लेखन में पहचान यूँ ही नहीं बनती।पहले मैं लेखक ही था पर किसी ने नहीं माना।फिर मैंने कई वरिष्ठों की ढंग सेरगड़ाईकी।लेखन में केवल खोट कोकोटकिया।उनकी भाषा को भूसा बना दिया।इससे कई लाभ हुए।आलोचक तो बना ही लेखक के रूप में भी स्थापित हो गया।नई पीढ़ी में मेरा आतंक क़ायम हुआ सो अलग।इस प्रक्रिया में भले कई साल लग गए हों पर अब कोई भी मेरे लेखन पर सवाल नहीं उठाता है।’ 


इसके बाद विमर्श में एक चर्चित लेखक कूद पड़े।वे नई पीढ़ी के प्रतिनिधि लेखक हैं।उन्होंने टिप्पणी की, ‘हम लिखने को लेकर बिलकुल सहज हैं।कुछ लोग लेखन में बेवजह गंभीर हो रहे हैं।मेरे लिए लिखनानित्य-क्रियाके जैसा है।साहित्य मेंरगड़ाईजैसे आतंक से मेरा कभी सामना ही नहीं हुआ।पहले मैं संपादक बना,फिर लेखक।अगर किसी को लेखक बनना है तो सबसे पहले उसे उसे आधुनिक तौर-तरीक़ों से परिचित होना चाहिए।नई पीढ़ी के लिए मैं प्रेरणास्रोत हूँ।

उनकीनित्य-क्रियावाली टिप्पणी पर पर्याप्त हल्ला मचता इसके पहले ही एक बुजुर्ग बुद्धिजीवी वहाँ दाख़िल हो गए।उन्होंने समस्त साहित्य को ही कटघरे में खड़ा कर दिया।कहने लगे, ‘ आज का साहित्य नक़ली संघर्ष में उलझा हुआ है।देश में रोज़ लोकतंत्ररगड़ाजा रहा है।सत्य को परेशान किया जा रहा है।उसकी कई दिनों से कोई ख़बर नहीं है।प्राण-रक्षा के लिए बार-बार उसे अपनीलोकेशनबदलनी पड़ रही है।।इसकी चिंता करने के बजाय लेखक साहित्य में हीरगड़वादलाने पर आमादा हैं।हम समस्त बुद्धिजीवी इसकी निंदा करते हैं।


इसके साथ ही विमर्श का सुखद अंत हुआ।सत्ता का संघर्ष अब लोकतंत्र का संघर्ष बन गया।


संतोष त्रिवेदी 

धुंध भरे दिन

इस बार ठंड ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी कि राजधानी ने काला कंबल ओढ़ लिया।वह पहले कूड़े के पहाड़ों के लिए जानी जाती थी...