बुधवार, 26 जून 2013

अपना-अपना आपदा-प्रबंधन !

'जनसंदेश टाइम्स'' में २६/०६/२०१३ को !

२६/६/२०१३ को 'जनवाणी' में

 
 

उत्तराखंड-हादसे से जहाँ सारा देश आपदाग्रस्त है ,चैनल वाले बाबा जी को बिठाकर नित्यप्रति ‘किरपा’ बरसा रहे हैं।ज़्यादा दिन नहीं हुए जब यही बाबा खलनायक की तरह चैनलों पर दिखाए जा रहे थे,पर लगता है इससे उन पर ही भारी आपदा आ गई थी।उन सभी के खजाने बाबा के ‘दसबंद’ की कमी से दम तोड़ने लगे थे सो चैनलों ने तय कर लिया कि उनकी आपदा को बाबा की ‘किरपा’ ज़रूरी है।इससे बाबा और चैनल दोनों पर वह अबाध रूप से बरसने लगी।इस तरह चैनलों के सरोकार और बाबा की किरपा दोनों फिक्स हो गए।

बाबा चैनल पर प्रकट होकर यह सिद्ध करते हैं कि उनके दरबार में आने पर कोई आपदा नहीं आएगी।चैनल वाले उनकी इस बात को अपने समाचारों से पुष्ट करते हैं कि जो लोग असली दरबार में जाते हैं उन्हीं पर आपदा आती है और उस दरबार के मालिक अपने भक्तों को बचाने में नाकाम हैं।इधर बाबा के आलीशान और पूर्ण सुरक्षित दरबार में उनके अलावा कोई दूसरी आपदा प्रवेश नहीं कर सकती।वहाँ पहुँचे हुए भक्त-जन रटी-रटाई आपदाओं को ‘दसबंद’ से किरपा में बदलवाने को आतुर दिखते हैं।ऐसे में केदारनाथ,बद्रीनाथ आदि धामों में हुई आपदा किसी और दुनिया में हुई लगती है।बाबा और चैनलों की दुनिया इस लिहाज़ से महफूज़ है।

चैनल वालों की अपनी आपदाएं हैं।वे केवल ‘दसबंद’ जैसी ही किरपा से सधती हैं।उनके लिए जन भावनाएं और सरोकार किसी आपदा से कम नहीं हैं।इसलिए जनता जिसे अपनी आपदा मानती हो,देश के लिए कोई आपदा भले कितनी गंभीर हो,असली आपदा वही है,जिसे चैनल मानते हैं।उनके पास हर समय के लिए अलग-अलग आपदा-प्रबंधन पैकेज हैं।जन-आपदा के समय भी वह विज्ञापनों से अपना आपदा-प्रबंधन कर लेते हैं,बाकी बाबा की किरपा से ‘दसबंद’ का ठोस पैकेज तो उनके हाथ में है ही।इस तरह सरोकार और सरकार के बीच का संतुलन भी वो साध लेते हैं।इस काम में बाबा और चैनल दोनों कुशल हैं।दोनों का आपदा-प्रबंधन गजब का है।इससे सरकार भी अपना आपदा-प्रबंधन कर लेती है।जनता का ध्यान असली आपदा से इस तरह हटाकर उसका भी आपदा-प्रबंधन कर लिया जाता है।

आज वही नेता सफल है जो आपदा-प्रबंधन का असली मंतर जान गया है।वह प्राकृतिक आपदाओं के बहाने अपनी आपदा को बड़ी चतुराई से प्रबंधित कर लेता है।इसके लिए हवाई-निरीक्षण,कैमरों को दिखा-दिखाकर राहत की हवाई बातें करना बढ़िया उपाय है।सबसे उत्तम कार्य आपदा-राहत के अभियान को हरी झंडी दिखाना और उसका सीधा-प्रसारण करना है।इसमें जनता से ज़्यादा अपनी आपदा कम होने की सम्भावना भरी होती है।इस तरह सरकार का आपदा-प्रबंधन बाबा और चैनलों के आपदा-प्रबंधन पर भारी पड़ता है।

पहाड़ पर आपदा आई हो या मैदान में कई परिवार बिखर गए हों,सबके लिए आपदा एक-सी नहीं है।जो किसी के लिए आपदा है,वही अगले के लिए मौका है,इस बात को भोली जनता नहीं समझ पाती क्योंकि वह सचमुच आपदाग्रस्त है।यह बात बाबा,चैनल और हमारे नेता अच्छी तरह से जानते हैं।वे जनता को भले ही सही तरह से न पहचानते हों पर अपनी आपदाओं को पहचानने और उनका निदान करने में नहीं चूकते।फ़िलहाल बाबा की ‘किरपा’ और नेताओं का राहत-अभियान चैनल वालों की तरफ से बदस्तूर जारी है।आपदाग्रस्त लोग धैर्य बनाये रखें,उन तक ‘किरपा’ ज़रूर पहुँचेगी।

'नेशनल दुनिया' में ०४/०७/२०१३ को !

शनिवार, 22 जून 2013

गिरता हुआ रुपय्या !


२२/०६/२०१३ को 'नई दुनिया' में !
 

देश के तमाम अर्थशास्त्री और वित्तीय जानकार इस समय गहन सोच में डूबे हुए हैं। उनसे रूपये की मौजूदा हालत देखी नहीं जा रही है। वह अनवरत रूप से पतनोन्मुख मुद्रा धारण किए हुए है। रूपये का यूँ फिसलना ,बाज़ार से ही नहीं अपने हाथ से फिसलने जैसा है। रिज़र्व बैंक के कई उपायों और नियमित बैठकों के बाद भी रुपया खड़ा नहीं हो पा रहा है। इसकी वज़ह से सेंसेक्स और सोना भी गोता लगा रहे हैं। सभी लोग देश की गिरती हुई अर्थ-व्यवस्था का ठीकरा रूपये के ऊपर फोड़ रहे हैं। उनके मुताबिक ,यही नामुराद सबको रसातल में ले जा रहा है।  

पर क्या किसी ने रूपये की तरफ से भी सोचने की ज़रूरत महसूस की है या इस बारे में उसका पक्ष जानने की कोशिश की है ?आज रूपये का गिरना सबसे बड़ी खबर है जबकि देश-दुनिया में और भी बहुत कुछ गिर रहा है,जिस पर अब हमारा ध्यान भी नहीं जाता। रूपये को इस बात का सख्त अफ़सोस है कि जहाँ आए दिन नैतिक मूल्य गिर रहे हों,ईमानदारी की रेटिंग जमीन छू रही हो वहाँ उसका अकेले का गिरना इतना चिंतनीय कैसे हो गया ? उसे इस बात से भी एतराज़ है कि गिरते हुए मानवीय रिश्ते और चरित्र-हीनता के नित-नए रिकॉर्ड बनाता हुआ समाज अपनी उन्नति को रूपये से जोड़कर देखता है। ऐसे हालात में यदि रुपया उठ खड़ा नहीं  हुआ तो क्या यह देश और समाज भरभराकर गिर जायेगा ? यह सब सोचकर धरती पर पड़ा हुआ रुपया हलकान हुआ जा रहा है।

रूपये के प्रति मेरी गहरी सहानुभूति है पर उसका ऐसे गिरना बिलकुल स्वाभाविक है। आज उसके ऊपर चारों तरफ से दबाव है। उससे सबको कुछ न कुछ उम्मीदें हैं। ऐसे में ज़्यादा उम्मीदों के भार से उसका नीचे गिरना लाजमी है । उद्योगपतियों से लेकर राजनेता तक उसके ऊपर टूटे पड़ रहे हैं,बाबू और अफ़सर उसके लिए दिन-रात बेगार कर रहे हैं तथा आम आदमी मंदिरों में उसके लिए प्रार्थनारत है,सो वह कहाँ तक अपने को संभालेगा ? आज अगर वह पतनशील है तो इसके जिम्मेदार केवल हम हैं पर इस तरफ सोचने की फुरसत किसे है ? अब उसके नीचे गिरने पर इतना मातम क्यों मचा हुआ है ?

अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए जब चवन्नी गिरते-गिरते बाज़ार से गायब हो गई थी। कभी उसका भी ज़माना था। लोग महफ़िलों में जाते थे और ‘राजा दिल माँगे,चवन्नी उछाल के’ गाने पर पता नहीं क्या-क्या उछाल आते थे। उस चवन्नी की कीमत भी उछलने पर ही थी। जैसे ही वह ज़मींदोज़ हुई,कोई उसका नाम भी न लेता है। गिरते हुए रूपये के बारे में शायद इसीलिए लोग चिंतित हैं। अगर यही गिर गया तो बाज़ार में क्या उछलेगा ? अमीर लोगों का पैमाना किस तरह नापा जायेगा ? इसलिए इसके उबार के लिए पूरा देश और समाज चिंतित है। अर्थशास्त्री लगातार बैठकें कर रहे हैं ताकि रूपये को अपने पैरों पर खड़ा किया जा सके। रुपया हमारे देश की राष्ट्रीय मुद्रा भर नहीं ,यह नवधनाढ्यों का स्टेटस-सिबल है,इसलिए इसका गिरना बड़ी खबर है और चिंता की बात भी।

बहरहाल,जहाँ देश गिर रहा है,समाज गिर रहा है,बादल और पहाड़ गिर रहे हैं,रिश्ते-नाते और चरित्र गिर रहा है,इन सबके बीच यदि बेचारा रुपय्या गिर रहा है तो कौन-सा पहाड़ टूट जायेगा ?

बुधवार, 19 जून 2013

सेकुलर होने का मौसम !

'कल्पतरु एक्सप्रेस' में १९/०६/२०१३ को
'जनवाणी' में १९/०६/२०१३ को


 


सेकुलर जी बड़ी जल्दी में थे। मिलते ही कहने लगे कि अभी उनके पास समय का घोर अभाव है। हमने उनसे अपनी दोस्ती का वास्ता दिया कि बड़े दिनों बाद आप काम-काज से खाली मिले हो,थोड़ा बतिया लेते हैं। हमारी बात सुनकर वे एकदम से गंभीर हो गए और अपने माथे पर चिंता की कई लकीरें खींचते हुए बोले,’आप हमें खाली समझ रहे हैं,जबकि इस समय हमें खुद से ज़्यादा देश और समाज की चिंता है। अगर हम अभी नहीं चेते तो बड़ा अनर्थ हो जायेगा। इसलिए फ़िलहाल हमें देशसेवा करने से फुरसत नहीं है। ’

उनकी ऐसी दशा को देखकर अपन पशोपेश में पड़ गए। अगर और कोई बात होती तो उसे टाल सकते थे,पर बात मुलुक और समाज को बचाने की थी,सो अपन भी द्रवित हो गए। सेकुलर जी के सुर में सुर मिलाते हुए हमने उवाचा,’आपके रहते यह गज़ब कैसे होने जा रहा है ?हम बातें तो बाद में भी कर लेंगे,पर इस देश पर कौन-सी और कैसे आफत आ गई है ?अब भाईचारे के नाते तो यह खुलासा ज़रूरी है क्योंकि आपकी तरह अपन भी देश की चिंता में हर पल दुबले रहते हैं। ’

हमारे सांत्वना और सहानुभूति के शब्द सुनकर सेकुलर जी बुक्का-फाड़ कर रोने लगे। उन्होंने सिसकते  हुए अपना बयान दर्ज़ कराया,’देश के सेकुलर ढाँचे को ध्वस्त करने के लिए अचानक गिरोहबंदी तेज हो गई है। सबसे दुःख की बात यह है कि इस काम में हमारे सहयोगी सबसे आगे हैं। वे ऊपर से तो दुआ करते हैं कि सेकुलर जी जिंदा रहें पर दवा ऐसी देते हैं कि हम समूल नष्ट हो जांय। ’ ‘पर बहुत समय से तो आप उनके साथ हैं फ़िर भी उन्हें पहचान नहीं पाए ?’अपन ने विस्फारित नेत्रों से सवाल किया। सेकुलर जी ने इसका रहस्योद्घाटन करते हुए बताया कि तब वह नादान थे और अपनी जिम्मेदारी को ठीक से समझ नहीं पाए थे। आज वे इस योग्य हो गए हैं कि देश को उनकी सेवाओं की कभी भी दरकार पड़ सकती है। यह तो अच्छा हुआ कि चुनाव जल्द आ गए नहीं तो अभी तक वे दुश्मनों की ही गोदी में बैठे रहते।

अभी भी हम मामले को पूरी तरह समझ नहीं पाए थे। हमने अंदाज़ लगाते हुए ही पूछ लिया,’क्या कोई सांप्रदायिक ताकत आपको परेशान कर रही है ?’ उन्होंने बिलकुल सहज होते हुए उत्तर दिया,’हमारा होना तभी सार्थक है,जब सांप्रदायिक ताकतें बची रहें । वे जितना मज़बूत होंगी,उससे अधिक गति से हमें मजबूती मिलेगी। हम तो स्वयं चाहते हैं कि वे बराबर बनी रहें ताकि उनसे लड़ने का अवसर हमें मिलता रहे । इस बहाने हम देश-सेवा में अपना योगदान कर सकते हैं । देश के लिए जब ज़रूरी हुआ ,हमने टीका लगाया अब टोपी लगाने का समय है तो हम कैसे रुक सकते हैं? देश को हमारी सख्त ज़रूरत है। ’

सारी बात अब हमारी समझ में आ गई थी और सेकुलर जी की आँखों में चमक भी। उनके चेहरे पर परम-शांति के लक्षण देखकर हमें भरोसा हो गया कि अब चाहे जो हो जाए,देश सही-सलामत रहेगा। हमने देखा,तब तक सेकुलर जी उस झुण्ड की ओर बढ़ गए थे,जिधर से आवाजें आ रही थीं,’देश का नेता कैसा हो,बस बिलकुल सेकुलर जैसा हो !’


'हरिभूमि ' में २१/०६/२०१३ को



 

हम सिर्फ़ धोखा खाते हैं !


.'जनसन्देश टाइम्स' में १९/०६/२०१३ को !
 

 

‘हमने फ़िर धोखा खाया जी,एकदम सेकुलर टाइप का।’

‘यह सिलसिला कब से चल रहा है ? मतलब, क्या यह आपका परम्परागत स्वाद है ?’

अजी,धोखा खाना तो जैसे हमारे जनम के साथ से ही जुड़ गया है।हम लगातार नियमित रूप से इसे बड़ी शालीनता से खाते आ रहे हैं।आज़ादी के बाद से ही जनता बराबर हमें धोखा दे रही है। हमारा साथ पाकर राजा मांडा कुर्सी पर बैठे,बदले में धोखा मिला।हमारी तेरह-दिनी सरकार एक वोट से धोखा खा गई।बाद में जब हम मजबूती से आए तो पाकिस्तान से कारगिल में धोखा खाया।बहिनजी ने उत्तर प्रदेश की सत्ता में ज़बरदस्त धोखा दिया।अभी ताजा धोखा बिहार से खाकर उठे हैं ।हम तो खीर खाने बैठे थे,पर बीच पंगत से ही जबरन तीर खिलाकर उठा दिया गया ।इनमें से अधिकतर बार हमें सेकुलर-तीर से ही मारा गया है ।’

‘लेकिन जब कई बार धोखा खा चुके हो,तो संभलते क्यों नहीं ? तुम्हारी सेहत तो जस की तस है ।”

‘अब क्या बताएँ ? हमारे बंदे अभी भी अनुभवहीन हैं।उनको दूसरों से धोखा खाने का ही अनुभव मिला है, खिलाने का नहीं।हम लोग इस मामले में बड़े ही अंतर्मुखी हैं।जब भी धोखा करने की हुमक उठती है,अपनों से ही कर लेते हैं।इतिहास गवाह है कि हमने अपने इष्टदेव से धोखा किया,पर मजाल है कि दूसरों को धोखा दें।इसी क्रम में हमने अभी अपने बुजुर्ग नेता पर भी यह प्रयोग कर लिया।हमें दूसरों के साथ ऐसा करने का मौका जनता ने ज़्यादा दिया ही नहीं।हम तो उसके साथ भी ऐसी सेवा करने को उतावले हैं क्योंकि हम उसे अपना ही मानते हैं।’

‘आप धोखा खाने का इंतज़ार ही क्यों करते हो ? और कुछ खाने का विकल्प क्यों नहीं खोजते ?’

‘देखिए,हमें धोखे खाने का शौक नहीं है,न हमने अपने मुँह बंद रखे हैं।हम और चीज़ें खाने के इंतज़ार में अपना मुँह खोलते हैं पर दूसरे लोग हमसे जल्द सक्रिय हो जाते हैं।जिनके हाथ में सत्ता होती है,उनके खुले मुँह में टूजी,कोयला,पुल और लंबी सड़कें तक समा जाती हैं, इस तरह धोखे के लिए इसमें गुंजाइश ही नहीं होती ।अब सत्ता आए तब ना ?फ़िलहाल,खुला मुँह देखकर तो केवल धोखा ही घुसने की हिम्मत दिखा रहा है।’

‘इस धोखे का बदला आप किस तरह ले रहे हैं ? इसकी कोई कार्ययोजना है आपके पास ?’

‘बिलकुल जी।अपने कार्यकर्ताओं के लगातार प्रयास के बाद भी हम धोखों से उबर नहीं पाए हैं।जिससे ये बेचारे बड़े दुखी हो गए हैं।इससे निपटने के लिए हम विश्वासघात-दिवस मना रहे हैं और यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं होगा।हम अगले चुनावों तक ऐसे दिवस नियमित रूप से मनाते रहेंगे।जो लोग सत्ता से मलाई निकालकर हमें मट्ठा पीने पर मजबूर कर रहे हैं,उनको यह जनता ख़ूब पानी पिलाएगी।साथ ही हम अपने कार्यकर्ताओं को इस बात का भी प्रशिक्षण देंगे कि वे धोखे के प्रयोग को अपनों तक ही सीमित न रखें;इसे विस्तार दें,ताकि विरोधियों की तरह हम भी और कुछ खा सकें।’


'नेशनल दुनिया ' में २१/०६/२०१३ को !


गुरुवार, 13 जून 2013

कलियुग में दशरथ होना !


जनसंदेश टाइम्स में १३/०३/२०१३ को
  

आज जब चौपाल पर पहुँचा तो भोन्दे चाचा माथा पकड़कर बैठे हुए थे,सामने रामायण रखी थी।चिंतित होते हुए हमने उनकी कुशल-क्षेम पूछी। चाचा ने भरे हुए मन से बताया ‘बेटा ,हमारी तबियत को कुछ नहीं हुआ।हमने जब से सुना है कि राम वाली पार्टी के बुजुर्ग नेता ने इस्तीफ़ा दे दिया है,सिर घूम रहा है।रह-रहके हमें वह अयोध्या वाला दृश्य याद आ रहा है।राम का मंदिर बनाने का उद्घोष करने वाले लोगों में यही बुजुर्ग सबसे आगे थे।राम का मंदिर तो बना नहीं ,अब तो इन्हीं का अपने घर में रहना दूभर कर दिया ।लगता है इसीलिए उन्होंने पार्टी के मुँह पर इस्तीफ़ा मारा था।इस घटना के बाद से मेरा अपने ही घर में दम घुट रहा है ।’

हमने चाचा को गंभीरता से लेते हुए समझाया,’अब समय कितना बदल गया है,चाचा ! आप भी तो तब जवान थे और मंदिर-मंदिर की रट लगाया करते थे।अब देखिए ना,न वो मंदिर बनाने वाले रहे और न ही माँग करने वाले,फ़िर भी धर्म और देश बचा हुआ है।जिस तरह अब मंदिर बनाने की ज़रूरत नहीं रह गई,ठीक उसी तरह मंदिर के लिए रथ निकालकर अलख जगाने वालों की।’’तो इसका मतलब,क्या राम अब हमारे लिए पूज्य नहीं रह गए या उनकी प्रासंगिकता खत्म हो गई ? माना कि यह कलियुग है पर आस्था भी तो कोई चीज़ होती है ?’ चाचा ने हमारी बात को बीच में ही काटकर अपना सवाल हमारी तरफ उछाल दिया ।

‘देखिए चाचा,आस्था तो अभी भी बची हुई है,पर वह किसी सिद्धांत या मुद्दे के लिए नहीं,बल्कि सत्ता के लिए है।कुर्सी को पाया बनाकर ही आस्था को मूर्त-रूप दिया जा सकता है।बिना कुर्सी के तो वह इंच-भर भी अपनी जगह से टस से मस नहीं हो सकती।हमारे रहनुमा बदलते समय की नब्ज को बराबर पकड़े हुए हैं और इसलिए कुर्सी पर आस्था अभी भी बची हुई है।’चाचा ने अब हमें समझाने की गरज से तुलसी बाबा की रामायन को पलटना शुरू किया,’बच्चा,समय कितना भी बदल जाए पर क्या हमारे संस्कार भी इस तरह बदल सकते हैं ? त्रेता में जो राम थे,उन्होंने अपने पिता की इच्छा जानकर वनवास का वरण किया था,लेकिन उनको अपना आदर्श मानने वाले,आज कलियुग में ऐसे राम बन गए हैं,जो दशरथ को ही वनवास देकर स्वयं गद्दी पर बैठने को आतुर हैं।’

‘चाचा,आप लिखी-लिखाई बातों को अपनी कंठी में क्यों बाँधे बैठे हो ? त्रेता के राम केवल पूजा-पाठ और ग्रंथों तक ही रहें तो गनीमत है।आज की राजनीति में उनकी बस इतनी ही उपयोगिता है।वह समय दूसरा था जब भाई-भाई ,पिता-पुत्र या गुरु-शिष्य के रिश्ते दिल से बंधे होते थे,कुर्सी के खूंटे से नहीं।सत्ता की इस दौड़ में सबकी अपनी भूमिका है और फिनिश-लाइन पर पहुँचने के बाद कोच का काम समाप्त हो जाता  है।इसलिए,इस बात को आप दिल से मत लगाइए।’हमने उनके दिल पर मरहम लगाने की कोशिश की।

इस बीच चाचा का पोता दौड़ता हुआ आया और उनकी पीठ पर सवार हो गया।वह झट से खड़े हुए और उसे लादकर अपने घर की ओर बढ़ गए। जल्दबाजी में चाचा अपनी रामायण वहीँ छोड़ गए थे।

बुधवार, 12 जून 2013

बीमारी भी आहत है !

12/06/2013 को 'जनवाणी' में



इस देश के लोग निरा निष्ठुर निकले।भारतीय संस्कार अभी तक यही सिखाते आ रहे थे कि हम किसी का भरपूर विरोध कर सकते हैं पर बीमारी से हमें केवल सहानुभूति होती है।यह परम्परा इस बार टूट गई है।बीमारी इस बात को लेकर बड़े सदमे में है।उसे एक राष्ट्रीय मुद्दा बनाया गया,पर नई पढ़ाई करके आए डॉक्टरों ने अपनी बैठक में उसे बिलकुल ख़ारिज कर दिया।इससे बीमारी बहुत आहत है।उसके स्वाभिमान को पहली बार इतनी ठेस लगी है,जब उसका इलाज़ करने की कोशिश तक नहीं की गई।

महत्वपूर्ण बैठक में न जा पाने से बीमारी को लेकर तरह-तरह के कथानक और गल्प गढ़े गए।डॉक्टरों ने यह नहीं सोचा कि इससे बीमारी पर और मानसिक दबाव पड़ेगा और उसका केस बिगड़ सकता है।बीमारी ने अपनी तरफ से पूरी शिष्टता का परिचय दिया।वह नियत समय तक परदे में रही और डॉक्टरों की नई बीमारी की खोज तक खामोश भी।इस बीच उसने कितना-कुछ सहा,वही जानती है।मीडिया वालों के पूछने पर डॉक्टरों के प्रवक्ता लगातार दाएँ-बाएं करके अपनी हँसी निर्गत कर रहे थे,पर बीमारी ने घोर संयम का परिचय दिया।प्रवक्ता जी ने बीमारी का कारण महज मौसम का बदलाव बता दिया।यह भी इतिहास में पहली बार हुआ जब बीमारी ने अपने जीते-जी डॉक्टरों के बजाय तीमारदारों की सेना का आक्रमण झेला।उसने अपना सारा दर्द मौन होकर सहा,किसी से बयान तक नहीं किया।

ऐसा देश में पहली बार हुआ जब कोई बीमारी संगठित रूप से सामने आई हो।उसने यह बताया कि अगर इच्छाशक्ति हो तो बैठकों का मुकाबला संयुक्त रूप से बीमार होकर किया जा सकता है।यह नुस्खा कारगर होने ही वाला था कि कुछ तीमारदारों ने ऐन वक्त पर अपने पाले बदल लिए और बीमारी को असहाय छोड़ दिया।अब भविष्य में भला कोई बीमारी के भरोसे भी रह सकता है ? इस तरह बीमारी का अपने मिशन में फेल होना कइयों के लिए ख़तरे का संकेत है।ऐसे में क्या कोई बीमार भी न होए ?

इस उल्लेखनीय और रहस्यमय बीमारी के बारे में कई तथ्य बाद में उद्घाटित हुए ,जब उसके इलाज़ की सारी संभावनाएं निरस्त हो गईं।पता चला कि वह शर-शैय्या में पड़े भीष्म-पितामह की तरह इस इंतज़ार में थी कि रहम खाकर अर्जुन उसकी प्यास को जरूर बुझायेगा।इस बीच कैलेंडर में तारीखें बदल चुकी थीं और समय भी महाभारत-कालीन न होकर कलियुग का चलने लगा था।अब अर्जुन भी क्या करता ?उसे पहले अपनी प्यास बुझानी थी ,सो उसने पानी खुद पी लिया और पितामह के सामने आँसुओं का सैलाब ला दिया।यह बात जब तक पितामह को समझ में आती,उनकी बीमारी राष्ट्रीय प्रहसन में बदल गई थी।

बहरहाल,अब बीमारी बिना इलाज के ही आत्मनिर्भर होने पर गंभीरता से सोच रही है और यह भी कि जो उसकी कद्र न करें,उनके लिए बीमार भी न हुआ जाए।समय के साथ अगर परम्पराएँ बदल रही हैं तो बीमारी भी बदल सकती है।इसलिए भविष्य में बीमारी को हँसी-मजाक का विषय न माना जाए और उसे एक रणनीति के रूप में मान्यता मिले।

 
 

गुरुवार, 6 जून 2013

कल्लो,क्या कल्लोगे ???

जनसंदेश और हरिभूमि में ०६/०६/२०१३ को

Photo: आज 'नेशनल दुनिया' में।
०७/०६/२०१३ को नेशनल दुनिया में !
 

 

‘अजी सुनते हो ? अब टीवी के सामने से उठोगे भी या कहो तो यहीं पर बिस्तर लगवा दूँ ?मैं देख रही हूँ कि पिछले आठ दिनों से तुम एक इस्तीफ़े के इंतज़ार में टकटकी लगाये बैठे हो।आखिर देख लिया ना ! खेल अपनी रफ़्तार से चल रहा है और देश भी।एक तुम्हीं सेंटिया गए थे।नतीजा क्या निकला ? तुम्हारे इस्तीफ़े के चक्कर में ‘नाच इंडिया नाच’ ,‘मास्टर-शेफ’ और ‘सास,बहू,ननद’ सभी छूट गए।अब मैं समझी कि ‘ससुर-दामाद’ का कार्यक्रम इन सब पर कैसे भारी पड़ा।इसलिए तुम भी समझ जाओ और टीवी के आगे से हट जाओ।‘

‘भागवान ! तुम भी ना...! पहले एक कप चाय पिला दो,सर बिलकुल भारी हो रहा है।रही बात टीवी के आगे से हटने की,तो अभी भी मुझे न्यूज़ चैनल वालों और उस पर बहसियाने वालों पर पूरा भरोसा है।कभी भी ब्रेकिंग-न्यूज़ आ सकती है।आखिर इतने दिनों से इस्तीफ़े का दबाव जो है कभी तो वह काम करेगा।‘

‘लीजिए,अपनी चाय पीजिए और पहले अपना दबाव दूर करिये।खेल आप देखते हो पर समझती मैं हूँ।ये जो दबाव वगैरह हैं ना,कमजोर इच्छाशक्ति वाले को डिगाते हैं। वे खेल के असली खिलाड़ी हैं।अपनी आत्मा की मजबूती को वो पहचान चुके हैं।वह सीमेंट से भी ज़्यादा सख्तजान है।इसलिए अब वे कोई नौसिखिए भर नहीं रह गए हैं,घाघ बन गए हैं घाघ।अब घाघत्व प्राप्त व्यक्ति की आत्मा गीता के अनुसार अविचलित,अजर और अमर हो जाती है।जिस तरह वह कभी नष्ट नहीं होती,केवल कपड़े बदलती है,इसी तरह इसने भी कुर्सी बदल ली है।‘

‘क्या बात है ? आज तो बड़ी दार्शनिक बातें कर रही हो।खेल के बारे में इत्ता कुछ तुम्हें पता है,हम तो जानते ही नहीं थे।अच्छा और क्या जानती हो,जरा तफसील से बताओ ना ?’

‘अजी,हमें तो और भी बहुत कुछ पता है।तभी मैं कहती थी कि आप बैठक के नतीजे का इंतज़ार मत करो,वह मुझे पहले से ही मालूम था।खेल की तरह यह बैठक भी फिक्स थी।खेल के घाघ ने राजनीति के घाघों से मिलकर इसकी फिक्सिंग कर ली थी।इस पर भी सटोरियों ने जमकर माल काटा और तुम खेल में लग रहे सट्टे से हलकान हो रहे हो ।‘

‘अब यह क्या कह रही हो ? बैठक पर सट्टा ? वह कैसे ?’

‘अजी ! समाचार तुम सुनते हो पर अंदर की खबर नहीं निकाल पाते क्योंकि तुम्हारे ऊपर तो इस्तीफ़े की ही धुन सवार है ।बैठक से पहले हर चैनल यही खबर दे रहा था कि उसके सूत्रों ने बताया है कि आज इस्तीफ़ा हो जाएगा।देखने-सुनने वालों ने भी यही समझा।हकीकत तो यह थी कि वे सूत्र नहीं सटोरिये थे,जो इस तरह की खबर देकर इस पर भी सट्टा लगवा रहे थे।उन्हीं को पता था कि इस्तीफ़ा नहीं होने वाला।अब जिन्होंने इस्तीफ़ा होने पर दाँव लगाया था,वे चित्त हो गए।इसे कहते हैं असली घाघ ! तुम खेल में फिक्सिंग को लेकर रो रहे हो,उन्होंने बैठक और नतीजे को ही फिक्स कर डाला। कल्लो, क्या कल्लोगे ?’

‘फिलहाल,एक कप चाय और ले आओ।मेरा सिर फटा जा रहा है !’

 
I-next में ११/०६/२०१३ को ! 

शनिवार, 1 जून 2013

दमदार भ्रष्टाचार बनाम बेबस भ्रष्टाचार !


०१/०६/२०१३  को नई दुनिया में !
 

 


क्रिकेट के कई प्रारूपों की तरह भ्रष्टाचार के भी कई प्रारूप हैं । अभी तक राजनीति के भ्रष्टाचार का ही दबदबा है  और यह पूरी दबंगई से अपना काम करता रहा है। इस भ्रष्टाचार का प्रताप यह है कि यदि इससे प्रेरणा लेकर किसी और क्षेत्र में प्रयोग किया जाता है तो वह बुरी तरह असफल होता है। राजनैतिक भ्रष्टाचार को एक तरह से अभयदान मिला हुआ है,पर फ़िर भी कुछ लोग इस से जबरिया प्रेरणा ले बैठते हैं और उसे आजमाने की जुर्रत कर डालते हैं ।तथ्य यही है कि दूसरे टाइप के भ्रष्टाचार मुँह की खाते हैं। इसका मतलब दूसरे सभी भ्रष्टाचार इसके आगे पिद्दी साबित हो चुके हैं ।

हाल में क्रिकेटीय भ्रष्टाचार ने बड़ी हिम्मत दिखाई और उसने स्वजनों को फ्रंटफुट पर खेलने को भेज दिया। हालाँकि उसे इस दुस्साहसी कार्य में दुर्भाग्य से दबोच लिया गया जिससे राजनैतिक भ्रष्टाचार बड़ा प्रफुल्लित हुआ । इस मौके का फायदा उठाकर अपने बदकिस्मत सहोदर से उसने जेल में ही मुलाक़ात कर डाली। राजनीति को अपने पास पाकर क्रिकेट ने तौलिए से अपना मुँह ढांपना चाहा पर राजनीति ने उसे उघाड़ दिया। इस पर वह सुबकने लगा। राजनीति ने एक अनुभवी होने के नाते उसे समझाते हुए कहा,’पगले,यह हम हैं कि सब कुछ सामने करते हैं और पकड़े नहीं जाते। इसके लिए हम कोई जादू नहीं सीखे और न ही छुपने की कोशिश करते हैं। ”

‘फ़िर हम ही क्यों पकड़े गए’ क्रिकेट ने लगातार सुबकते हुए पूछा। राजनीति ने उसके तौलिए को उठाकर दूर फेंक दिया और कहने लगा,’तुम अपने मुँह को जितना छिपाओगे,शर्मसार बनने की कोशिश करोगे,लोग नंगा कर देंगे। तुमने हज़ार और लाख में हाथ मारा है ,कभी हमारी तरह करोड़ों पर हाथ साफ़ करके देखो । अगर बेशर्म होकर सब काम करोगे ,दिन-दहाड़े डकैती डालोगे,कोई नहीं बोलेगा और इज्ज़त भी बनी रहेगी’। ‘पर हमने तो सट्टेबाजी में अपने और पराये सभी लोगों को काम में लगा रखा था,फिर भी... ?’क्रिकेट ने उदास होकर जानना चाहा।

राजनीति ने अब पूरा रहस्य उजागर करते हुए कहा,’दरअसल , कमाने और डकारने का खेल तुम जैसे नौसिखुओं का नहीं है। तुम अभी नवजात शिशु की तरह हो और हमारी बराबरी करना चाहते हो। तुम पर आरोप लगते हैं तो बचाने के लिए तुम्हारे अपने भी साथ नहीं आते । तुम अपने दामाद तक को नहीं बचा पाते और हम पूरे कुनबे को सुरक्षित निकाल लाते हैं। हम पर सालों से आरोप लग रहे हैं पर  चुनाव में जनता से ही उनकी सफ़ाई करवा लेते हैं,इसलिए हम आरोपों को लेकर गम्भीर और चिंतित नहीं होते। राजनीति में जो लोग आरोप लगाते हैं,वे जनता की सफ़ाई से संतुष्ट भी हो जाते हैं। इसलिए तुम्हारा भ्रष्ट होना भ्रष्टाचार की रेटिंग गिरा रहा है। तुम न तो अपने को बचा पा रहे हो,न कमा पा रहे हो। इससे भ्रष्टाचार की जड़ कमजोर हो रही है। ’

क्रिकेट के भ्रष्टाचार की आँखें खुल गईं । उसने राजनीति के आगे अपने को दो-कौड़ी का समझा और  बात यूँ खत्म की ,’अब हम समझ गए कि आप इस्तीफ़ा देकर भी बहुत कुछ पा जाते हो और हम न देकर भी कुछ नहीं बचा पाते। अब आगे से क्रिकेट का भ्रष्टाचार छुप-छुपाकर नहीं होगा। इसका पूरा टेंडर हम आपको ही दे देंगे और अपने इस्तीफ़े भी बचा लेंगे। भ्रष्टाचार पर स्वाभाविक और नैतिक रूप से अब आपका ही अधिकार रहेगा।’ इतना सुनकर राजनीति के चेहरे पर फैली मुस्कान और चौड़ी हो गई तथा उसके बाहर आने के लिए जेल के फाटक अपने-आप खुल गए ।

धुंध भरे दिन

इस बार ठंड ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी कि राजधानी ने काला कंबल ओढ़ लिया।वह पहले कूड़े के पहाड़ों के लिए जानी जाती थी...