बुधवार, 22 जुलाई 2015

संकट के बादल और छतरियों का तन जाना!

बादलों का घेराव लगातार जारी है।रह-रहकर बरस भी रहे हैं।मानसून आने पर यह सब होता है।उल्टे यदि बादल न घिरें,बरसात न हो तो लोग सूखे का बरसों पुराना रिकॉर्ड खँगाल डालते हैं।संसद में भी ‘मानसून-सत्र’ आ गया है।इधर सरकार सत्र ला रही है ,उधर विपक्ष घेरने को तैयार बैठा है।सरकार के कारिंदे घिरने से बचने का पूरा इंतज़ाम कर रहे हैं।अगर ज़रूरी हुई तो बचाव के लिए चीन से पर्याप्त मात्रा में छतरियाँ भी मँगाई जा सकती हैं।

बात छतरियों की आई है तो यह जान लेना ज़रूरी है कि छतरी के अपने गुण हैं।वह तनती है तो बारिश और धूप से बचाती है और झुकती है तो कमजोर की लाठी बनती है।’बाहुबली’ सरकार यदि छतरी निकालती है तो उससे वह ‘सुपरहिट’ होती है या हिट,यह उसके कौशल पर निर्भर है।विपक्ष बादलों की तरह भरा बैठा है।वह तय समय पर कहाँ और कैसी बारिश करता है,यह देखने वाली बात है।

सामने वाले पर आक्रमण करने के लिए उसका घेराव करना सबसे बढ़िया तरकीब मानी जाती है।इससे वह घिर जाता है पर गिर जाये ,यह ज़रूरी नहीं।मज़बूत वही माना जाता है जो किसी अस्त्र-शस्त्र से न गिरे।कुछ लोग ऐसी मजबूती को आखिर में नैतिकता के सहारे टंगड़ी मारना चाहते हैं पर मज़बूत इरादे वाले उनसे भी अधिक समझदार होते हैं।वो ये सब ख़तरे पहले ही भाँप लेते हैं इसलिए अपनी छाती को छप्पन के लेवल तक पहुँचा देते हैं।कोई कितना पिचकाये तो भी वह सिकुडकर दसवाँ हिस्सा होने से रही।

विपक्ष का फोकस केवल छाती पर है,जबकि सरकार के पास मज़बूत छतरी है।उसे पहले छतरी को भेदना होगा,तभी ज़मीन तक बारिश की बूँदें पहुँचेगी।लोगों को लगेगा कि बारिश हो रही है।बादल गरजने के साथ बरस भी रहे हैं।

मानसून की बारिश यदि सामान्य हुई तो खेती के लिए भले ठीक हो पर सियासत की खेती के लिए नहीं।विपक्ष के लिए माकूल यही है जब या तो सूखा हो या बाढ़ ! दोनों दशाओं में वह सरकार को घेर सकती है।सरकार में बैठे कुछ लोग भी इसी इंतज़ार में रहते हैं कि कब सूखा या बाढ़ का बजट आए और अपने ‘विकास’ को गति प्रदान कर सकें।मानसून-सत्र में विपक्ष यदि औसत बारिश ही कर पाया तो कई लोग राहत से वंचित रह जाएँगे।इसलिए सदन में यदि सरकार पर संकट के बादल छाते हैं तो बाढ़ आने की दुआ कीजिए,तभी आप को भी राहत’ मिलेगी !

शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

सद्भाव का सीज़न !

इफ्तार की दावत चल रही थी.पक्ष-विपक्ष के सभी लोग इतने घुल-मिलकर खा-पी रहे थे कि थोड़ी देर के लिए तो ताज्जुब हुआ कि अब क्या होगा ? देश में विरोध की आवाज़ कौन उठाएगा ?सत्ता और विपक्ष का एका तभी होता है जब बाहरी शत्रु आक्रमण कर देता है या कोई प्राकृतिक आपदा हो.फ़िलहाल मुझे इनमें से कुछ भी होने की खबर नहीं थी.फ़िर,ये अचानक प्यार से गले लगना किस बात का संकेत है ?

मौक़ा पाकर इफ्तार की दावत पर आए विपक्षी नेता से हमने यही सवाल किया.वे सहज भाव से बोले,’देखिए ,हममें अभी इतनी तमीज तो बची है कि हम एक-दूसरे की दावतों का बहिष्कार न करें .सदन में हम पूरी ताकत से अपना विरोध पहले की ही तरह दर्ज़ करते रहेंगे.आपके लिए यह भी खबर है और वह भी.हम यही चाहते हैं.’

‘पर हमें तो यहाँ पूर्ण सद्भाव दिखाई दे रहा है.कहीं इसका प्रभाव सदन के कामकाज में भी पड़ा तो उस की गरिमा कैसे बचेगी ?’हमने आशंकित होते हुए पूछा.नेताजी ने बिलकुल आश्वस्त होते हुए कहा,’आप बेवजह चिंतित हो रहे हैं.हमें जनता की नब्ज़ पकड़ने का पर्याप्त अनुभव है.हम इफ्तार पार्टी से निकलते ही सरकार के विरुद्ध एक कड़ा बयान जारी कर देंगे.इससे फ़िर वही माहौल बन जाएगा’

तभी सामने से इफ्तार की दावत आयोजित करने वाले सत्ताधारी दल के नेता जी दिखाई दिए.हमने उनसे भी सरकार की इस उपलब्द्धि पर प्रश्न किया.वे कहने लगे,’पत्रकार होकर भी आप आज तक यह समझ न पाए ! अरे भाई,’डिनर-डिप्लोमेसी’ तो सुनी है ना उसी तरह यह ‘इफ्तार-डिप्लोमेसी’ है.इससे यह संदेश जाता है कि सरकार सब कुछ करने के अलावा सद्भाव पर भी काम कर रही है.’ ‘तो क्या अब हम समझें कि इसके बाद देश में सद्भावपूर्ण वातावरण बनेगा और आपकी सरकार इसके लिए ठोस कार्रवाई करेगी ?’हमने स्थिति स्पष्ट करनी चाही.नेता जी मुस्कुराते हुए बोले,’हमें अपने बयान-वीरों पर पूरा भरोसा है कि वो ‘इफ्तारी-सीजन’ के बाद अपनी कार्यवाही शुरू कर देंगे.वैसे भी हमारे यहाँ पर्व और त्यौहार सद्भाव के लिए ही आबंटित किए गए हैं.अभी हम इतने गए-गुजरे नहीं हैं कि इस परिपाटी का पालन भी न करें.आप चिन्ता न करें,हम अपने विरोधियों से दीवाली पर भी उतनी ही गर्मजोशी से मिलेंगे.यही हमारे संविधान की मूल धारणा है.’

इतना कहकर वे आगे बढ़ गए.हम ईद और दीवाली के बीच वाले समय के बारे में आश्वस्त हो चुके थे.इस सद्भाव के बाद खबरें वैसी ही जारी रहेंगी.

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

संवेदनाएँ भी आॅनलाइन हैं !

सरकारें संवेदना या नैतिकता से नहीं बल्कि बहुमत से चलती हैं।यह बात इतनी सीधी है फ़िर भी बहुतों को समझ में नहीं आती।एक तरफ़ ‘व्यापमं’ की व्यापकता बढ़ रही है,दूसरी ओर सरकार गिनती की सही जाँच करने में जुटी है।कोई कह रहा है अब तक महज ३३ मुर्दे ही मिले हैं तो कोई इनकी संख्या ४६ बता रहा है।हिसाब भी कोई कितना रखे ? सरकार जब तक नई गिनती बताती है,इधर गिनती और बढ़ जाती है।अब इसमें सरकार का क्या दोष ? कोई पूर्व सूचना देकर थोड़ी मरने जाता है !

सरकार अपनी ओर से भरसक प्रयास कर रही है पर मौत के आगे किसी का जोर नहीं,खासकर तब जब मौत प्राकृतिक हो।ऐसी सरकार की मुश्किलें कोई नहीं समझ सकता जो स्वयं मुर्दा हो चुकी हो।यह क्या कम है कि वह फ़िर भी अपनी जिम्मेदारी निभा रही है।मौत तो सबको एक दिन आनी है और जो चीज़ आनी निश्चित है,उसका क्या दुःख ! रेल हो या जेल,मृत्यु अपना शिकार ढूँढ लेती है इसलिए समझदार लोग रेल या जेल में नहीं मिलते।वे स्वयं अपनी प्राकृतिक-चिकित्सा का खयाल रखते हैं इसलिए ‘प्राकृतिक-मृत्यु’ की चपेट में नहीं आते। बुलेट-प्रूफ शीशों और बीएमडब्लू गाड़ियों की ईजाद यूँ ही नहीं की गई है।दुर्घटनाएं भी स्टेटस देखकर आती हैं।

आम आदमी की मौत एक सामान्य प्रक्रिया है।नेता,खासकर जब वह मंत्री हो,किसी पत्रकार या आम नागरिक से बड़ा होता है।सत्ताधारी का ‘बड़ापन’ समाज के लिए जितना ज़रुरी है,उतना ही उनका समाज में जीवित रहना।मुर्दा होते समाज में चालीस-पचास मुर्दे और बढ़ गए तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ेगा ? जाँच तो चल ही रही है।हो सकता है कल को यह पता चले कि मरने वाले ‘मानवीय आधार ‘ पर अपने आप उठकर चले गए।इससे फायदा यह होगा कि सरकार का समय किसी जाँच-फांच में बेकार नष्ट नहीं होगा।यह समय वह ‘अच्छे दिनों’ को घसीटकर लाने में लगा सकती है।वैसे भी गिनती ‘अब तक छप्पन’ के पार नहीं पहुंची है।तब तक तो इंतज़ार बनता है।

संवेदना अब हृदय में उपजने की चीज़ नहीं रह गई है।’डिजिटल इंडिया’ के जमाने में वह भी ‘हिसाबी’ हो गई है।मौत के बाद राहत-राशि के रूप में सम्वेदना प्रकट हो सकती है।वैसे भी संवेदनाएं ऑनलाइन आ चुकी हैं।उन्हें ट्विटर पर देखा जा सकता है।सेल्फी डालकर पीड़ित को तसल्ली दी जा सकती है।रही बात हो रही ‘मौतों’ की तो यह एक सनातन प्रक्रिया है।हाँ,गिनती बराबर अपडेट की जा रही है।

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

तुमने यह विष कहाँ पाया !

नेता नाग होते हैं।वे कभी भी डस सकते हैं।यह तजुर्बा बाहुबली से बने एक नेता को हुआ है।उनके अनुसार जो नेता जितना अधिक जहरीला है,उतना बड़ा नाग है ।वे इस लिहाज़ से पिछड़ गए इसीलिए पिछड़े नेता हैं।उनके कहे का बहुत अधिक असर नहीं हुआ।इससे ज़ाहिर होता है कि वाकई उनकी जुबान में जहर की अपर्याप्त मात्रा है।इसकी दूसरी वजह यह भी हो सकती है कि अधिकतर लोगों ने इसे कोई खबर माना ही नहीं।खबर तभी बनती है जब वह लीक से हटकर हो या अचम्भित करती हो।


आम लोगों ने भी इसे सीरियसली नहीं लिया।नेता तो अपने हैं,वे अब कुछ भी सीरियसली नहीं लेते।कुछ लोग बड़े दिनों से इस्तीफ़ा-इस्तीफ़ा चिल्ला रहे थे पर नीति-आयोग की बाँबी से निकलकर फैसला यही हुआ कि इस्तीफे की हमारी कोई नीति नहीं है।किसी को हो न हो,नेता को नाग या साँप कहने से हमें सख्त एतराज़ है।साँप निश्चित समय पर अपनी केंचुल बदलता है पर नेता कभी भी यह हुनर दिखा सकता है।किसी को डसने के लिए नाग को फन का सहारा लेना पड़ता है पर नेता के पास बयान देकर ही जहर निकालने का फन है।नाग आत्म-रक्षा के लिए यह सब करता है जबकि नेता परमार्थ और देश-सेवा के लिए।नाग पास आकर डसता है,नेता ट्वीट करके ही यह काम कर सकता है।

एक और नेता ने अपने तजुर्बे से कुछ नेताओं को जन्तु कहा है।इससे नेताओं में कई तरह की वैराइटी निकल सकती है।हमारे यहाँ नेताओं की तरह जंतुओं की भी भारी रेन्ज है,इसलिए इस खोज से राजनीति विज्ञान पढ़ रहे छात्रों को काफी फायदा होगा।वे साधु से नेता बने हैं इसलिए माना जा सकता है कि कम से कम नेता बनने का विकल्प साधु बनने से कहीं बेहतर है।हो सकता है इसी वजह से साधु और बाबा अपना मुक्ति-मार्ग राजनीति में तलाश रहे हैं।यहाँ राजनीति में रहकर सहज रूप से नीति-मुक्त रहा जा सकता है जबकि साधु-जीवन में नाना प्रकार के माया-मोह से मुक्त होने का उपक्रम करना पड़ता है।

अज्ञेय होते तो आज यह न पूछते,’साँप ! तुम सभ्य तो हुए नहीं,नगर में बसना भी नहीं आया.एक बात पूछूँ –(उत्तर दोगे ?) तब कैसे सीखा डसना-विष कहाँ पाया’.अब इस बात का उत्तर मिल गया है.नेता कोई साधारण आदमी नहीं होता।वह या तो विषधर हो सकता है या कोई और जन्तु,आप बचना चाहें,तो बचकर दिखाएँ !

धुंध भरे दिन

इस बार ठंड ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी कि राजधानी ने काला कंबल ओढ़ लिया।वह पहले कूड़े के पहाड़ों के लिए जानी जाती थी...