गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

जाती हुई सरकार और भावुक लोकसभा !



आखिरकार पंद्रहवीं लोकसभा के दरवाजे अनिश्चितकाल के लिए बंद हो गए। पिछले दिनों चलने के दौरान भी उसके दरवाजे बंद कर लिए गये थे। तब ऐसा करना जनहित में ज़रूरी था। लोकसभा चलती तभी है,जब जनहित होता है वरना चलते हुए भी वह थम जाती है ,सहम जाती है। सुनते हैं कि आखिरी दिन माननीय बड़े भावुक हो गए थे। उनकी आँखें पानी से नहीं आँसुओं से भर गई थीं। अभी मुश्किल से हफ्ते भर पहले इसी सभा में मिर्च ने उन्हीं आँखों से सारा पानी निकाल लिया था,इसलिए प्रेम के अश्रु बहे। यह देश की जनता के लिए साफ़ संदेश था कि सभा में बैठने वाले अभी भी सभ्य और सुसंस्कृत बने हुए हैं। वे मिर्च की झोंक से रोएं या प्रेम की छौंक से,हर बार जनहित ही सर्वोपरि होता है।


इस लोकसभा ने न चलते हुए भी कई कीर्तिमान बनाये । जो काम पिछले कई सत्रों में नहीं हुए ,वो तीन-चार दिन में ही निपट गए। सरकार काम के मूड में आई ही थी कि चुनावों का सायरन सुनाई देने लगा। विपक्ष अंतिम दिन भावुक हो उठा ।ऐसी बहार पहले आती तो न अध्यादेशों को फाड़ना पड़ता और न ही दर्जनों अध्यादेश जारी करने की नौबत आती । सरकार भी बॉलीवुड के खान-ब्रदर्स की तरह ईद और दीवाली का इंतजार करती है। उसके लिए फिल्म (काम ) रिलीज़ करने का सही समय आम चुनाव ही होते हैं। सरकार की नई फिल्म हिट हो ,इसके लिए उसे टैक्स-फ्री कर दिया गया है। सारा देश ऐसी कामकाजी सरकार को मिस करेगा,इसलिए भी बहुत लोग उस दिन जमकर रोये ।


जाती हुई लोकसभा में वाम ने दक्षिण के कंधे पर हाथ रखा तो सदन के पितामह का गला भर आया । हालाँकि वहाँ बैठे उनके अपनों को उनकी अंतरात्मा की आवाज़ नहीं सुनाई दी। यह क्षण भर का दृश्य था,उन्हें आगे का क्षरण साफ़ दिख रहा था। इस मौके पर सबने सबकी सुध ली,कसीदे पढ़े । माननीयों ने सदन में इस बात के लिए सम्मिलित प्रयास किया कि लोकतंत्र के प्रति जनता की दरकती हुई आस्था महज़ शिगूफा भर है। इससे साबित हो गया कि लोकतंत्र पर रोने के लिए अभी भी उनकी आँखों में पानी बचा हुआ है।


जाते-जाते सरकार अध्यादेशी-मूड में आ गई है। जनता के लिए सारे पिटारे और तिजोरियाँ खोल दी गई हैं। फ़िलहाल मंहगाई भूमिगत हो गई है और खुशहाली सस्ती हुई कारों पर सवार होकर फर्राटे मार रही है। देश में हर जगह चाय और दूध के प्याऊ लग गए हैं।टोकरी में गाय,बकरी और लैपटॉप भरकर आ गए हैं.ऐसे में बंद हुई लोकसभा,चलती हुई से भी अधिक गतिमान लग रही है। यदि वह हमेशा के लिए बंद हो जाए तो क्या ज्यादा आकर्षक नहीं होगी ?






'जनसन्देश टाइम्स' में 27/02/2014 को प्रकाशित 


मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

मिर्ची-पाउडर का मंदिर के प्रसाद में बदलना !


हिन्दुस्तान में 18/02/2014 को।



जनता की आँखों में धूल झोंकने के अभ्यस्त रहे लोग यदि अपने लोगों की आँखों में मिर्च झोंकते हैं तो यह महज तकनीकी मसला भर है। इस पर नैतिकता का मुलम्मा चढ़ाकर बड़े-बड़े अश्रु बहाना निहायत पारंपरिक और स्थायी कर्म है,जो अब बंद होना चाहिए। पिछले कई वर्षों से ऐसे कर्णधार,जो धूल और कोयला झोंकने में निपुण हैं ,निरंतर अपनी उपयोगिता सिद्ध कर चुके हैं ।साथ ही,वे दल-बल सहित सदन में स्थायी आसन जमाकर बैठ गए हैं। ऐसे में अगर एकाध मिर्ची झोंकने वाला भी सदन में एंट्री मार लेता है तो हमारे दिल में अचानक नैतिकता की घंटियाँ क्यों बजने लगती हैं ? यह तो लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का एक छोटा-सा अंग है ,जिसमें एक पाकेटमार या चेन-स्नैचर की तरह एक मिर्चीमार और चक्कूबाज को अपना हुनर दिखाने का मौका मिल जाता है। इसको सकारात्मक नजरिये से देखा जाये तो यह बाहुबलियों और माफिया डॉन के बीच अदने से लफंगे की हल्की-सी घुसपैठ भर है।

हमारी संसद एक पवित्र मंदिर की तरह है और इसमें पुजारी बनकर प्रवेश करने वाले देवताओं की जगह विराजमान हैं। यह सब कुछ नितांत लोकतान्त्रिक तरीके से हुआ है,इसलिए इसमें कुछ भी गलत नहीं है। मंदिर में देवताओं और पुजारियों के विशेषाधिकार होते हैं,भक्तों के नहीं। इसलिए वे वहाँ भरतनाट्यम करें,मल्ल-युद्ध करें या माइक उखाड़ें,सब उनकी नित्यलीलाओं में शुमार माना जाता है। भक्ति से ओत-प्रोत भोली जनता को क्या चाहिए ? बस,उसे समय-समय पर सब्सिडी के रूप में प्रसाद मिल जाता है और वह फिर से अगली लीला देखने की आतुरता से प्रतीक्षा करने लगती है। इसलिए मंदिर में होने वाले  पूजा-पाठ पर सड़क से उँगली उठाना अनैतिक तो है ही,बेहद असंवैधानिक भी है। मन्दिर के अंदर के विषय पर अंदर के लोग ही अंतिम निर्णय ले सकते हैं। यह उन पर निर्भर है कि मन्दिर के अंदर वे गुलाब-जल का छिड़काव चाहते हैं या मिर्ची-पाउडर का !

हमें अपने युग के प्रभुओं और परमेश्वरों पर पूर्ण आस्था है। हम किसी आम आदमी को पूरी व्यवस्था पर उँगली उठाने और सनातन काल से चली आ रही परम्परा को ठेंगा दिखाने नहीं दे सकते। आम आदमी हमेशा से भक्त रहा है और बाय डिफॉल्ट बना रहेगा। मन्दिर में किया गया स्प्रे हमें आगामी भविष्य के प्रति पूरी तरह आश्वस्त करता है कि इसके इर्द-गिर्द मक्खी-मच्छरों को टिकने नहीं दिया जायेगा। सदन की पवित्रता बरकरार रहे इसके लिए जल्द ही देवता बने पुजारियों की एक समिति गठित की जाएगी,जिससे दिक्-भ्रमित भक्तों में पुनः विश्वास का संचार किया जा सके ! अब इसके बाद भी किसी को मिर्ची लगे तो कोई क्या करे ?


बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

काश,हम भी बेईमान होते !


जनसन्देश टाइम्स में 05/02/2014 को
चुनाव ज्यादा दूर नहीं हैं और बिलकुल सही मौके पर बेईमानों की सूची सामने आने लगी है।ख़ास बात यह है कि यह सूची एक प्रतिष्ठापित ईमानदार के माध्यम से आई है,नहीं तो पता नहीं कौन,किसका नाम जोड़ देता ? श्रीमान ईमानदार ने सार्वजनिक रूप से कुछ लोगों को बेईमानों की सूची में डालकर अचानक उनके भाव बढ़ा दिए हैं।जो लोग उस सूची में आने से बच गए हैं,वे अपने आप को ईमानदार मान लिए जाने से हलकान हैं।चुनावों में सारा फोकस अब बेईमानों के ऊपर ही रहेगा।श्रीमान ईमानदार ने साफ़ लफ़्ज़ों में बता दिया है कि ऐसे लोगों को हम तगड़ी फाइट देंगे,जिससे वे संसद में पहुँच नहीं पाएंगे।इस तरह सारे मीडिया और जनता का ध्यान उन्हीं नेताओं पर रहेगा और इस चक्कर में वो हारी हुई बाजी जीत भी सकते हैं।जनता को यह लगेगा कि कम से कम उसका प्रतिनिधि बेईमानी के मामले में तो ईमानदार है।पता नहीं,लिस्ट के बाहर के ईमानदारों को जिताने पर वो कितने बेईमान निकल जाएँ ?
अब जब बेईमानों की सूचियाँ किश्तों में जारी हो रही हैं,इससे प्रेरणा लेकर भविष्य में और भी सूचियाँ आ सकती हैं।इस क्रान्तिकारी कार्यक्रम से कई तरह के फायदे होने की उम्मीद है।जो भी बन्दा अपनी ईमानदारी के प्रति जरा भी आशंकित होगा,वह श्रीमान ईमानदार की टोली में झट से शामिल हो जाएगा ।इससे बेईमानों की लिस्ट में बढ़ोत्तरी की आशंका से भी निपटा जा सकता है।यह कार्यक्रम और भी विस्तार पा सकता है,जब दूसरे लोग भी अपनी-अपनी लिस्ट लेकर आ सकते हैं।कुछ बेईमान सौभाग्यशाली होंगे,जिनका नाम कॉमन लिस्ट में होगा।यह समय वाकई ईमानदारों के लिए बड़ी परेशानी का है।उनकी रेटिंग लगातार गिर रही है।ईमानदार नेता चुनाव जीतने से पहले ही वंचित रहते थे,अब उन पर फोकस ही न रहेगा,तो कौन घास डालेगा ?
हो सकता है,जल्द ही कोई सूचीबद्ध बेईमान ईमानदारों की सूची लेकर आ जाये।यह बहुत ही दुखद घटना होगी।उस लिस्ट में जो आयेंगे,उन्हें न कहीं से फंड मिलेगा और न ही कोई कम्पनी प्रमोट करेगी।फ़िलहाल,श्रीमान ईमानदार के पास बेईमानों की संख्या बेहद कम है।यह जितनी ज्यादा होगी,उतनी ही जगह से वह फाइट करेंगे।इसमें आगे चलकर कैटेगरी के हिसाब से सूचियाँ आएँगी। पहले सर्वश्रेष्ठ दस माफिया या दस सर्वश्रेष्ठ बाहुबली । इन सूचियों में शामिल होने के लिए बढ़ती मारामारी को देखते हुए कई निजी कंपनियों की सेवाएँ ली जा सकेंगी,जो नेताओं का नई तरह से मेक-ओवर करेंगी। कुल मिलाकर अब पार्टियों के घोषणा-पत्र की बजाय उनके पास लिस्टेड लोग कितने हैं,यह मायने रखेगा। इसलिए इस लिस्ट का लगातार बढ़ना पार्टियों,बेईमानों और बाहुबलियों के लिए ज़रूरी है। ईमानदार तो केवल सूचियाँ बनाएं,देश को तो बेईमान संभाल ही लेंगे,यही समय की पुकार है।
 

चुनावी लड़ाई के साइड इफेक्ट !


 
राजनीति बड़ी ही अजब-गजब चीज़ है।अकसर ऐसे कई मौके आते हैं,जब हम राजनीति को कोसते हैं,पर कभी-कभी वह हमें विशुद्ध मनोरंजन भी मुहैया कराती है।राजनीति में चुनाव लड़ना एक अहम कार्य है पर यह सबके नसीब में नहीं होता।जहाँ कुछ लोग पूरी जिंदगी गुजार देते हैं और उन्हें एक अदद टिकट नहीं मिल पाती,वहीँ किसी-किसी के पास उच्च अथवा निम्न सदन में आने का विकल्प होता है।कोई अपने कैरियर को बचाने के लिए निम्न सदन में जाने को तैयार है तो कोई लोक-लाज बचाने के लिए उच्च सदन में।
हाल ही में एक बुजुर्ग नेता को कुछ लोग ससम्मान उच्च सदन में बिठाना चाहते थे,पर बुजुर्ग ने समझा कि यह उन्हें एकदम से बैठाने की साजिश है।पार्टी का साफ़ मत था कि एक वरिष्ठ और अनुभवी नेता को निम्न सदन के बजाय उच्च सदन में भेजना ठीक रहेगा पर यह प्रस्ताव उनको नहीं जँचा।उनको यह बात नागवार गुजरी कि पार्टी जहाँ ऐतिहासिक लौहपुरुष की सबसे ऊँची मूर्ति के लिए पूरे देश से लोहा माँग रही है,वहीँ उनके अपने लौहपुरुष को चुनाव में लोहा लेने से मना कर रही है। उन्होंने तुरत अपनी मंशा जाहिर कर दी।
अधिकतर नेता सुरक्षित होकर पिछले दरवाजे से उच्च सदन में जाना चाहते हैं,पर लौहपुरुष ने ऐसा करने से साफ़ मना कर दिया।उन्होंने इसके लिए पार्टी से ही लोहा ले लिया।उनका मानना है कि लौहपुरुष स्वाभाविक रूप से लोहा लेने का अधिकारी होता है।इसलिए वह चुनाव लड़कर इसे साबित करना चाहते हैं।इससे पार्टी के कुछ लोग आतंकित है कि कहीं मूर्ति के लिए लोहा माँगने का यह साइड इफ़ेक्ट तो नहीं है ? इससे यह तो जाहिर हो गया कि देश की ऊँची कुर्सी पर बैठने में लोहा अहम भूमिका निभाने जा रहा है।
वहीँ कुछ ने इसके बिलकुल उलट रुख अपनाया है।पार्टी जिन्हें निचले सदन से चुनाव लड़ाना चाहती है,वे उच्च सदन में जाने के इच्छुक हैं।वो समझते हैं कि लोकसभा से चुनाव लड़वाने के बहाने,उनके विरोधी दरअसल उन्हें निपटाना चाहते हैं।उन्होंने लोकसभा के बजाय राज्यसभा के जरिये ही सदन में जाने का प्रण किया है।लोकसभा के माध्यम से जहाँ सदन में पहुँचने की गारंटी नहीं होती,वहीँ राज्यसभा में पार्टी की कृपा से आसानी से सदन में पहुँच हो जाती है।एक अनुभवी सत्ताधारी दल के नेता के अनुसार, राज्यसभा में जाने का बूता उन्हीं के पास होता है,जिनके खीसे में सौ करोड़ का बजट होता है।इस तरह फ़िल्मी खान-बन्धुओं के अतिरिक्त वे लोग भी सौ-करोड़ी क्लब में शामिल हो सकते हैं।इसमें किसी प्रकार का रिस्क भी नहीं होता,इसलिए समझदार लोग अपनी फज़ीहत को ध्यान में रखकर राज्यसभा जाना उचित समझते हैं ।
हमारे मतानुसार जमे-जमाये नेताओं को उच्च सदन में ही जाना चाहिए,निम्न सदन उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं होता क्योंकि आजकल जनता किसी का लिहाज़ नहीं करती।चिंता की बात यह है कि चुनाव लड़ने में कुछ ऊँच-नीच हो गई तो बुढ़ापा खराब हो सकता है।इसलिए नए लोग सड़कों में धूल फाँकें और प्रतिद्वंद्वी से लोहा लेकर निम्न सदन में बैठें,इससे सदन की गरिमा भी बनी रहेगी और बड़े-बूढ़ों का सम्मान भी।हैरत की बात तो यह है कि कद्दावर लोग निम्न सदन में बैठने के लिए आपस में ही लोहा लेने पर आमादा हैं।
संतोष त्रिवेदी
 'जनवाणी' में 05/02/2014 को !

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

स्टडी-टूर पर भैंसें !


























आखिरकार गुम हुई सात भैंसें दो दिन में ही बरामद कर ली गईं।यह उत्तम प्रदेश की जनता,समाजवादी सरकार और काबिल अफसरों के लिए बड़ी राहत भरी खबर थी।बात भी छोटी नहीं थी।मंत्री की भैंसे थीं,कोई आम आदमी नहीं गायब हुआ था।पूरा सरकारी अमला जी-जान से जुट गया और प्रदेश में कानून-व्यवस्था बिगड़ने से पहले ही अधिकारियों ने अपेक्षित परिणाम दे दिया।घटना की व्यापकता को देखते हुए देश के सबसे तेज चैनल के संवाददाता से नहीं रहा गया।वह भैंसों का बयान रिकॉर्ड करने तुरत उनके तबेले पर पहुँच गया।सभी भैंसें खूँटे में बंधी अपनी-अपनी नांद में मुँह डाले हुए थीं।उन सात भैंसों से किया गया एक्सक्लूसिव इंटरव्यू अविकल रूप से यहाँ पर प्रस्तुत है:

संवाददाता (पहली भैंस से ) :भैंस जी, फिर से अपने खूँटे में लौटकर आपको कैसा लग रहा है ?

भैंस :आपको कैसे पता कि खूँटा वही है ? पहले वाला खूँटा देशी लकड़ी का था।इस बार सुनते हैं कि अमेरिका से आयात किया गया है।इसकी विशेषता है कि इससे जो बंध जाता है,चाहकर भी नहीं छूट पाता।हम तो बहुत पहले से इसकी माँग कर रहे थे,इसीलिए तो प्रोटेस्ट किया था।अब हमें कोई शिकायत नहीं है।

संवाददाता (दूसरी भैंस से ) :आप अपनी मर्जी से खुल गई थीं या आपको कोई खोल ले गया था ?

भैंस : लगता है ,आप नए हैं।हमें खोलने की जुर्रत किसी में नहीं है।हम तो नवाबी-तबियत की हैं।हमारी मोटी चमड़ी में समाजवाद पूरी तरह सुरक्षित है।हम तो बस जरा हवा-पानी के लिए तबेले के बाहर गई थीं,वरना विरोध में गायें रंभाने लगती कि समाजवाद तबेले तक ही सीमित है।यह बात आप नोट कर लें कि प्रदेश में समाजवाद खूँटे से बंधा नहीं है,वह कहीं भी पसर सकता है।

संवाददाता (तीसरी भैंस से ): बहिन जी,आप कुछ बताइए,आपका अनुभव कैसा रहा ?

भैंस :देखिये,हमें आपके सम्बोधन पर गहरी आपत्ति है।मैं संभ्रांत तबेले से हूँ,इसलिए आप मुझे मैडम कह सकते हैं।मेरी निष्ठा पर आज से पहले कोई सवाल नहीं उठे।मैंने हमेशा अपनी नांद का ही चारा खाया है,इसलिए कृपया मुझे औरों से अलग ही रखें।मुझे बताया गया था कि ठंड से कुछ बकरियाँ मर गई हैं,इसीलिए एयरकंडीशंड तबेले से बाहर आकर सर्दी का अहसास करने के लिए गई थी,पर मुझे तो कहीं ठंड नहीं लगी।निश्चित ही भेड़ियों ने बकरियों को मारा होगा।

संवाददाता (चौथी और पांचवीं भैंस से): सुना है कि आप दोनों की बरामदगी हज़रतगंज चौराहे से हुई है ?

चौथी भैंस: भाई,क्या भैंसों के दिल नहीं होता ? जैसे ही हमें पता चला कि प्रदेश में ‘जय हो’ टैक्स-फ्री हो गई है,अपनी सहेली के साथ सलमान को देखने चली गई थी।बचपन से ही बड़ी इच्छा थी कि अपनी नांद के बाहर मुँह मारूँ और वह अवसर अब जाकर मिला।हम जैसे ही सनीमा-हाल से बाहर निकले ,हमें हिरासत में लेकर कहा गया कि इस तरह हमारे सरे-आम सलमान-प्रेम के कारण साम्प्रदायिक-सद्भाव को खतरा हो सकता है।बस,फिर हम दोनों को ट्रक में डालकर ले आये।

संवाददादाता (बगल में खड़ी छठी और सातवीं भैंस से ) :और आप दोनों मोहतरमा कहाँ और क्यों गई थीं ?

दोनों भैंसे (एक सुर में ): हम दोनों स्टडी-टूर पर दूसरे के खेतों में घुस गई थीं।अपने ही खेतों का चारा खा-खाकर बोर हो गए थे,सो चले गए।अभी हम तालाब में घुसने ही वाले थे कि छापा पड़ गया।हमें कीचड़ में बिना लोटे ही लौटना पड़ा।अब हमें यहीं अपने तबेले में गोबर फ़ैलाने दो ,यहाँ से दफ़ा हो !

संवाददाता ने जल्दी से अपना कैमरा समेटा।उसके हाथ गज़ब की ब्रेकिंग न्यूज़ लग गई थी ।वह स्टूडियो की तरफ तेजी से लपका।

धुंध भरे दिन

इस बार ठंड ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी कि राजधानी ने काला कंबल ओढ़ लिया।वह पहले कूड़े के पहाड़ों के लिए जानी जाती थी...