शनिवार, 31 मई 2014

लड़कियों से पीछे रहते लड़के !

अखबार में छपी एक खबर पढ़कर हम चौंक गए।मोटी-मोटी हेडिंग में लिखा था,’इस बार भी लड़कियों से पीछे रहे लड़के।शीर्षक अटपटा-सा लगा, सो पूरी खबर पढ़ी।मालूम हुआ कि बात सीबीएसई के बारहवीं के परीक्षा-परिणामों की हो रही थी।फ़िर भी,हमारा मन अखबार की हेडिंग से इत्तिफाक रखने को तैयार नहीं हुआ।लड़के अगर लड़कियों से आगे रहते तब तो कोई खबर बनती क्योंकि लड़कों ने हमेशा लड़कियों का पीछा ही किया है,कभी अगुवाई नहीं की।

लड़कों के लड़कियों से पीछे रहने की तर्कसंगत वजह भी है।यह लड़कों के डीएनए में ही है कि उन्हें लड़कियों का पीछा करना है।इस काम में उन्हें इतना आनंद आता है कि वो अपनी पढ़ाई-लिखाई क्या,पूरा कैरियर ही दाँव पर लगा देते हैं।यह एक स्वाभाविक और सहज प्रक्रिया है।इसलिए कुछ समय पहले लड़कियों का पीछा करने को लेकर कानून बन रहा था तो समझदार लोगों ने उसका विरोध किया था।स्कूली पढ़ाई से ही लड़के इस काम में इतना तल्लीन हो जाते हैं कि कॉलेज पहुँचते-पहुँचते कुछ को इसमें ब्लैक-बेल्टहासिल हो जाती है और वो पढ़ाई के दौरान ही कारागार को भी पवित्र कर आते हैं।

इन मामलों के अंदरूनी जानकार बताते हैं कि दरअसल लड़कों का पीछा करना लड़कियों को भी भाता है।बस,यह काम ज़रा उनकी च्वाइस का हो ! कई बार इन्हीं पीछा करने वालों में से ही वे किसी एक को अपना जीवनसाथी चुन लेती हैं।लेकिन यह एक लंबी प्रक्रिया होती है।जो लड़का पीछा करने में जल्दी हार मान जाता है,लड़कियाँ भी उसे भाव नहीं देतीं।सबसे ज़्यादा रेटिंग उस लड़के की होती है जो येन-केन प्रकारेण, कूद-फाँदकर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करने में सक्षम होता है।इस अभियान में कई बार सम्बन्धित लड़के की हड्डियाँ भी शहीद हो जाती हैं,पर मजाल है कि उसकी हिम्मत का बाल-बाँका भी हो।

ऐसा नहीं है कि लड़के लड़कियों से पीछे इसलिए रहते हैं कि वो उनसे शारीरिक क्षमता में कम होते हैं या दौड़ नहीं पाते।अगर ऐसे लड़कों की भागने की क्षमता देखनी हो तो उन्हें किसी महिला की पर्स या चेन खींचकर भागते हुए देखा जा सकता है।कुछ विशेषज्ञ यह भी बताते हैं कि लड़के इसलिए भी लड़कियों से आगे नहीं होते क्योंकि इससे उनके चूहे होने का संदेश जाता है और वे लड़कियों को कभी भी बिल्ली के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हो सकते।बहरहाल,परीक्षा में लड़कों ने लड़कियों से पीछे रहकर अपनी पुरातन परम्परा को ही और समृद्ध किया है और वे इसके लिए बधाई के पात्र हैं।  



शुक्रवार, 30 मई 2014

कहाँ से लाएँ नुक्स !


उम्मीद तो यह थी कि पार्टी हारेगी मगर वो खुद भी खेत रहे।पार्टी को तो पहले ही हारने का अभ्यास रहा है इसलिए उसको हार से ज़्यादा फर्क पड़ा नहीं।कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि पार्टी ने जानबूझकर अपना कबाड़ा किया है ताकि भविष्य में वह उठती हुई दिखाई दे,इसलिए हार पर औपचारिक चिंतन भी नहीं हुआ ।वे चूँकि पार्टी के होनहार और ऊर्जावान नेता हैं इसलिए अपनी हार के बाद बनी नई सरकार से ऊर्जा लेना चाह रहे हैं।कामकाजी आदमी कभी खाली नहीं बैठता ,फ़िर तो वे नेता ठहरे।नई सरकार ने अभी अपना काम ठीक से शुरू भी नहीं किया है पर उन्होंने अपना कामकाज बखूबी संभाल लिया है।
उनकी सबसे बड़ी शिकायत है कि नई सरकार में चुनाव हारे हुए नेताओं को मंत्री बनाया गया है।फ़िर तो वे भी हारे हुए हैं,उन्हें क्यों नहीं ऐसा मौका मिल सकता है ? उनके पास सरकार चलाने का लम्बा अनुभव है और वे काफ़ी पढ़े-लिखे भी हैं।अब यह भी क्या बात हुई कि नई सरकार में छठी-बारहवीं पास किए हुए लोग ऊँची और बड़ी-बड़ी नीतियां बनाएँ ? ऐसा कैसे सम्भव हो सकता है ? कम पढ़े-लिखे लोगों से देश और सरकार को खतरा है और यही चिंता उन्हें खाए जा रही है।
उनकी इस बात में हमें भी दम दिखाई देता है।मंत्रालयों के काम छोटे-मोटे स्तर के नहीं होते।इनमें चलाई जाने वाली परियोजनाएं अरबों-खरबों की होती हैं।ऐसी बड़ी परियोजनाओं में घपलों-घोटालों को टाला जाना अपरिहार्य है।ऐसे में कमीशनबाजी के करोड़ों रुपयों का हिसाब-किताब कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति कैसे लगा पायेगा ? सारा खेल अफ़सर कर जायेंगे।कमाई होगी दस करोड़ की,पल्ले में आएँगे हजार दो हजार।इस तरह तो सारा सिस्टम ही बेकार हो जायेगा।ऐसे लोगों के बूते यह सरकार नहीं चलनी है।पढ़ा-लिखा मंत्री होने से घोटाले की सही फीगर भी सामने आएगी और देश तरक्की करता हुआ दिखेगा।
हारे हुए एक और नेता मायूस दिखाई दिए ।नई सरकार ने कई मंत्रालयों को ही खत्म कर दिया है।सबसे कमाऊ कोयला मंत्रालय अब ऊर्जा के अधीन कर दिया गया है।उनकी चिंता है कि अब कोयले के बिना कालिख कैसे पुतेगी ? अगर यह मंत्रालय रहता तो वे भी नई सरकार के मंत्रियों के काले कारनामे गिनाते और खुद के लिए ऊर्जा जुटा पाते पर यह काम वे अब कैसे कर पाएँगे ? नई सरकार ने पहले चुनाव में और अब मन्त्रिमन्डल बनाने में उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा।यह सब विपक्ष को पूरी तरह नेस्तनाबूद करने की साज़िश है।
जीते हुए के साथ सारा जमाना रहता है पर हम तो हारे हुओं के साथ हैं।अपने उबरने के लिए वे कुछ समय तो देने को तैयार हैं पर जीते हुए लोग अभी से अगले चुनावों को भी जीता हुआ बता रहे हैं।इतना समय नहीं है उनके पास।इससे पहले कि क्षीण हुई ऊर्जा पूरी तरह से खत्म हो जाय,हारे हुए लोग संकल्पित हो रहे हैं।वे नई सरकार द्वारा की जाने वाली किसी खोट के इंतज़ार में अपना टैम खोटा नहीं करना चाहते हैं।इसलिए कुछ कुछ नुक्स निकालकर अपना काम शुरू कर दिया है।हम नई सरकार से अपील करते हैं कि विपक्ष की मजबूती के लिए वह कुछ ठोस नुक्स मुहैया कराये !


गुरुवार, 22 मई 2014

आलाकमान के चुनावी सबक !

वर्तमान जनमत से आलाकमान को गहरा धक्का लगा।खुशी की बात तो कोसों दूर,जनता ने गम मनाने लायक नहीं छोड़ा।उनकी पार्टी हारती तो वे इसे अपनी जिम्मेदारी मानकर झट जेब से इस्तीफ़ा निकालकर लहरा देते,पर इस लहर ने उन्हें ही दबोच लिया।वे इस्तीफ़ा दिखाने के लिए भी तरस रहे हैं।विरोधियों ने ऐसी मार मचाई है कि हाथ-पाँव ही नहीं कमर भी टूट गई है।वे देश के लिए परेशान होना चाहते हैं पर मुई उनकी खुद की परेशानी सामने आ खड़ी है।

कार्यसमिति ने चुनावों बाद देश में पैदा हुए इस घोर संकट से निपटने के लिए नियत समय पर बैठक बुलाई,जिसमें हारे हुए कुछ लोगों ने सलाह दी कि संकट पार्टी पर है न कि देश पर,किन्तु आलाकमान ने इस पर तकनीकी अड़चन बताई।उन्होंने बीच का रास्ता निकालते हुए निर्णय लिया कि पार्टी के बारे में सोचने की जरूरत फ़िलहाल नहीं है क्योंकि वह न सत्ता में है न विपक्ष में।देश इस समय चौराहे पर खड़ा है और उसको घसीटकर किनारे लाना बहुत ज़रूरी है।

बैठक में एक ग्रास रूट वर्कर ने चिंता जताई कि अब जनता के पास कौन-सा मुँह लेकर जायेंगे ? अगर  अकेले गए तो कोई उनकी बात भी नहीं सुनेगा क्योंकि उनके सारे कार्यकर्त्ता भी वोटरों के साथ नए घरों में शिफ्ट हो गए हैं।आलाकमान ने बड़ी मुश्किल से अपना मुँह उठाया और उस अदने से कार्यकर्ता का पहली बार सर्वांग निरीक्षण किया।’तुम कबसे हमारी पार्टी से जुड़े हो ? आलाकमान से ऐसे सवाल करना हमारी पार्टी–संस्कृति में नहीं रहे हैं।’आलाकमान ने सचेत होते हुए पूछा।फ़िर स्वयं ही बोले-जनता के सामने जाने में कोई डर नहीं है।हम इस बात के अभ्यस्त हो चुके हैं।रही बात ‘कौन-सा मुँह’ लेकर जाने की,सो इसकी आशंका हमें पहले ही थी इसीलिए हमने कोयले का लेप चुपड़ लिया था।ऐसे में हमें जनता से कोई खौफ नहीं रहा ।’

उस ग्रास रूट वर्कर ने आलाकमान के प्रति अतिरिक्त श्रद्धाभाव उड़ेलते हुए वक्तव्य दिया,’आदरणीय,हम जैसों को न पहचान पाने की कीमत ही पार्टी आज चुका रही है और आप चुक रहे हैं।आज हमें बोलने की ताकत भी इसी हार ने दी है।अब गले के हार को भूलकर इस हार से कुछ सबक लें।अपनी नहीं तो कम से कम हमारे बाल-बच्चों की फिकर कीजिये,साहब’,कहता-कहता वह जमीनी कार्यकर्त्ता आलाकमान के सामने ही जमीन पर लोटने लगा।

आलाकमान ने तुरत अपने कारिंदों से उसे वहाँ से हटाने को कहा।उन्हें अपनी जमीन पर किसी का भी किसी तरह का दखल नामंजूर था।बैठक नए संकल्प के साथ समाप्त हुई कि भविष्य में हार पर कोई चिंतन नहीं होगा क्योंकि अब और हार की गुंजाइश भी नहीं बची है।
....22/05/2014 को 'डेली न्यूज' जयपुर में प्रकाशित। 

मंगलवार, 20 मई 2014

सरकार छोड़िए,विचार के लाले पड़ गए !

बीते कई महीनों से देश पर चढ़ा चुनावी-ज्वार शांत हो गया है।इसके साथ ही नेताओं का खुमार और आम आदमी का बुखार भी उतर गया।वे जिसे लहर समझने से कतरा रहे थे,वह कहर बनकर आई ।पूरे के पूरे मठ और खम्भे ढह गए।बहुतों पर ऐसी मार पड़ी कि हार से ज्यादा भविष्य के रोजगार पर ग्रहण लग गया ।कहीं कोई नामलेवा नहीं बचा तो कहीं सांत्वना के लिए एक कंधा भी नहीं मिल रहा ।भगवान ऐसे दिन किसी को न दिखाए,तिस पर लोग रट लगाये हैं कि अच्छे दिन आ गए।क्या ऐसे ही होते हैं अच्छे दिन ?

चुनावों ने किसी के मन का नहीं किया।जो सरकार चलाने भर के लिए अपनी झोली फैलाये हुए थे,उनके दामन में इतना प्रसाद आ गया कि छलकने लगा। माना यह गया कि मछलियों और बगुलों ने तालाब को ख़ूब मथा जिससे कीचड़ ज़्यादा निकला।इसी वजह से तालाब कमल के फूलों से लद गया।यह महत्वपूर्ण रूपक जब तक समझ में आता,बाकी लोग तालाब से बाहर हो चुके थे।जनता को कमलगट्टे खाने के लिए कुछ समय का इंतज़ार तो करना होगा पर तालाब से निकल चुकी कई मछलियाँ बिना जल के कब तक जीवित रह पाएंगी ?

चुनाव परिणामों ने कई जगह एकाकी-चिंतन का माहौल बना दिया है।कुछ सूझ नहीं रहा। सरकार बनाने के लिए नहीं,चिंतन-विमर्श के लिए तो कुछ आदमी होने चाहिए।जो लोग परिवार के सहारे सरकार चला रहे थे,चिंतन के लिए जनता ने उन्हें परिवार तक ही सीमित कर दिया है । ऐसी सुनामी आई कि सब कुछ तहस-नहस हो गया है।प्रतीकों के रूप में देखें तो हाथी सुन्न पड़ गया,तो हाथ अनाथ हो गया है ।कहीं रोने वाले नहीं बचे तो कहीं आँसू पोंछने वाले।हैंडपम्प उखड़ के हाथ में आ गया है । कल तक जिस झाड़ू पर बहार आई हुई थी,आज उसने खुद को ही बुहार दिया है।जिस लालटेन को लोग ताक रहे थे कि आखिरी क्षणों में भकभका कर रोशन हो उठेगी,उसका शीशा ही चटक गया ।सारे तीर तरकश में ही धरे रह गए।सूरज समय से पहले डूब गया और साइकिल गड्ढे में फिर गई.

अब फटे कुर्तों की जेबों से इस्तीफ़े लहरा रहे हैं।यह हार नहीं अंदरूनी मार है।वे कई हारों को पचा चुके हैं, फूलों का हार बनाकर गले लगा चुके हैं पर इस कमल का कमाल उनकी समझ से परे है।फ़िलहाल,पार्टी या संगठन की हार के बजाय सब अपनी ही हार के विचार में लगे हैं, पर वह भी तो अकेले नहीं होता।


रविवार, 11 मई 2014

लम्बे चुनावी कार्यक्रम के साइड इफेक्ट !


चुनाव बीत रहे हैं पर एक-एक दिन भारी पड़ रहा है।नेताजी को खटिया में बैठकर सुस्ताने का वक्त भी नहीं मिल पा रहा है।कई चरण बीत जाने के बाद भी खबर आती है कि अभी एक चरण और बाकी है।नेताजी ने पहले चरण से इंटरव्यू देना शुरू किया था,अब भी दे रहे हैं।जितने चरण ,उतने इंटरव्यू। इंटरव्यू लेने वाले भले थक गए हों पर देने वाले सर पर कफ़न बांधकर डटे हैं।नेताजी इसी कोटि में आते हैं।लम्बे चुनावी-कार्यक्रम में संपादकजी ने हमारी ड्यूटी नेताजी के साथ ही परमानेंटली लगाई हुई है।आखिरी चरण की आहट आते देखकर नेताजी बेचैन हो उठे पर उन्होंने शुरू में ही हिदायत दे दी कि वो थके हुए हैं और वे केवल ऑफ दि रेकॉर्ड बातचीत ही कर सकते हैं।उनका संकेत पाकर हम शुरू हो गए।पत्रकारिता के मूल्यों की रक्षा करने ,ब्रेकिंग न्यूज़ के चलते और नेताजी के वादों की तरह हम अपना वादा यहाँ ब्रेक कर रहे हैं।पेश हैं उसी संवाद के चुनिन्दा अंश:

मैं :इतने लम्बे कार्यक्रम से क्या आपको थकावट नहीं महसूस हो रही ?
नेताजी :न थके हैं न हारे हैं।सोच रहे हैं कि मीडिया के लिए एकठो बयान जारी कर दूँ ? कम मेहनत में बड़ा प्रचार हो जायेगा ।
मैं :जो काम इंटरव्यू करता है ,वह बयान से पूरा नहीं होता ।पूरा फायदा लेने के लिए पैकेज भी फुल होना चाहिए।बयान को एक-दो बार दिखाया जा सकता है पर इंटरव्यू को प्रायोजित करके आपकी और हमारी दोनों की रेटिंग आसमान छुएगी।
नेताजी :पर इंटरव्यू के लिए नया क्या बोलूँ ? मुझे तो वे बातें भी याद नहीं हैं जो पहले चरण में कही थीं।
मैं:अरे,आप इसकी चिंता छोड़िये।आपको याद नहीं तो कौन-सा सुनने वालों को याद है ?इतने लम्बे चुनावी-कार्यक्रम में इतनी बार बोला-कहा गया है कि जनता बिलकुल कन्फ्यूज़ हो गई है।जब तक वह भ्रष्टाचार-मंहगाई के बारे में सोचती है,बीच में ‘अच्छे दिन’ आ जाते हैं।इन ख्यालों से भटकने पर उसे अपने धर्म और जाति की चिंता सताने लगती है।आप तो बस रोज़ नया घोल पिलाते रहिये,जनता अब मुद्दों को नहीं,बस आपकी ओर निहार रही है।
नेताजी :हमें चुनाव की ज़्यादा चिंता नहीं है।उसे तो 3 डी से हैंडल कर रहा हूँ।अखबार,टीवी,सोशल मीडिया सभी पर हमारी पकड़ है।हमें सबसे ज़्यादा चिंता अपने चुन्नू-मुन्नू की है।सोचता हूँ,चुनाव बाद इनका क्या होगा ?
मैं :अब ये चुन्नू-मुन्नू कौन हैं ?
नेताजी:भई,चुन्नू ठेकेदार को आप नहीं जानते ? इसके ठेके वाले सारे काम फ़िलहाल बंद पड़े हैं।हमारी पार्टी में फंड रेजिंग का काम करता है।लम्बे चुनावी-प्रोग्राम से इसकी कार्य-क्षमता प्रभावित हो सकती है।यही चिंता हमें खाए जा रही है।
मैं: और मुन्नू ?
नेताजी:मुन्नू माफिया हमारी पार्टी का सक्रिय सदस्य है।कल कह रहा था कि अगर ऐसे ही चुनाव खिंचते रहे तो इलाके में उसकी दबंगई खत्म हो जायेगी।उसके हथियार बिना जंग लड़े ही जंग खा जायेंगे।इन चुनावों ने वाकई हम सभी को निकम्मा बना दिया है।
मैं:चुन्नू-मुन्नू की बात तो समझ आती है,पर क्या चुनावों के लम्बे कार्यक्रम का आप पर भी कोई विपरीत प्रभाव पड़ा है ?
नेताजी :असल में हमीं प्रभावित हुए हैं।इन दिनों न कुछ उल्टा बोल सकते हैं न कर सकते हैं।हम तन-मन-धन सभी प्रकार से अस्त-व्यस्त हो चुके हैं।पूरा रूटीन बिगड़ गया है।हमें आशंका है कि चुनावों बाद हम अपनी परफोर्मेंस में पूरी तरह फिट रह पाएँगे या नहीं ?
मैं : लेकिन अगर जीत गए और ‘अच्छे दिन’ आ गए तो ?
नेताजी : फ़िर तो धीरे-धीरे हम सब मैनेज कर लेंगे।बस एक चरण आप और मैनेज कर लीजिए।
मैं : इसके लिए आपको एक और इंटरव्यू देना होगा,जो ऑन दि रिकॉर्ड होगा।क्या इसके लिए आप तैयार हैं ?
नेताजी: क्यों नहीं ?देश-सेवा के लिए हम कुछ भी करने को तैयार हैं।चुन्नू-मुन्नू वाली स्टोरी आप किसी से न कहियेगा और न इस बारे में हमसे कोई सवाल कीजियेगा।बाकी किसी भी मुद्दे पर हम बेबाकी से बोलने को तैयार हैं।

मैंने उन्हें परम आश्वस्त करते हुए कैमरे का मुँह खोल दिया और नेताजी ने अपना।यह एक्सक्लूसिव इंटरव्यू आपको जल्द ही अख़बारों और चैनलों के माध्यम से परोस दिया जायेगा।

11/05/2014 को जनवाणी और जनसन्देश में

बुधवार, 7 मई 2014

रुपय्या किसका है ?




07/05/2014 को नई दुनिया में।




वो नाम के ही नहीं काम के भी राजा हैं।फ़िलहाल राजपाट छोडकर चुनाव और चिंतन में लगे हैं।चुनाव से उन्हें कोई खतरा नहीं है क्योंकि चुनावों से प्रजा डरती है,राजा नहीं।रही बात चिंतन की,सो वे इस समय ख़ूब कर रहे हैं।एक खबर आई है,जिसमें उनके ताजे चिंतन की दिशा का पता चलता है।उन्होंने स्वयं को दूरसंचार घोटाले में लपेटे जाने का बड़ी कुशलता और दार्शनिक चिंतन के साथ बचाव किया है।उनका कहना है कि बेईमानी का एक भी रुपया उनके पास नहीं है और वे यह साबित कर सकते हैं।इस बयान को सुनकर जाँच एजेंसियां सकते में हैं पर हमें उनकी बात सही लगती है।

उनका यह कहना कि बेईमानी का एक रुपया उनके पास नहीं है,बिलकुल सच है।पहली बात यह है कि रुपया उनका है न कि बेईमानी का।अगर बेईमानी का होता तो उनके पास कैसे रहता ? दूसरी बात यह कि जाँच एजेंसी उनके सभी बैंक अकाउंट चेक करवा ले,एक भी चेक बेईमानी का नहीं निकलेगा।’काम के बदले अनाज योजना’ तो उनकी सरकार की हिट-योजना रही है।उन्होंने तो बस उसमें सक्रिय भागीदारी निभाई तो वे कहाँ से दोषी हो गए ?अनाज को तो सीधे बैंक में डाला नहीं जा सकता इसलिए वह गाँधी-मुद्रा में वहाँ विराजमान है।यह सारा रुपया बेईमानी का नहीं बल्कि उनकी गाढ़ी कमाई का है।अगर ऐसा नहीं है तो किसी को भी चुनौती है कि वो साबित करके दिखाए ?

रूपया वैसे भी नेताओं के पास अपने मूल रूप में नहीं होता।कई लोग अपने रूपये को इसी फार्मूले के तहत स्विस बैंक में फेंक देते हैं।यह आचरण बताता है कि उनमें रूपये के प्रति कितना वैराग्य है ।कुछ समझदार लोग हैं जो इसे ज़मीन या रजाई-गद्दों में गाड़ देते हैं,जिससे बखत-ज़रूरत उनके काम आ जाता  है।सबसे चतुर तो वे खिलाड़ी हैं जो रूपये को ज़मीन में ट्रांसफर कर देते हैं और दो-चार साल में वह ज़मीन सोना बन जाती है।इस सबसे यही सिद्ध होता है कि नेताओं को रूपये की ज़रूरत नहीं बल्कि रूपये को नेताओं की ज़रूरत होती है।वही सबसे अच्छी तरह से इसकी देखभाल कर सकते हैं। इस दौरान बेईमानी इन रुपयों पर से अपना दावा हटा लेती है और रुपया विशुद्ध ईमानदारी का हो जाता है।

महत्वपूर्ण बात है कि रूपया चलता-फिरता और लुढ़कता तो है पर बोलता नहीं है।यह हवाला से आ सकता है पर हवालात में नहीं जा सकता और न गवाही दे सकता है ।रुपया इधर से उधर तो जा सकता है,पर न बरामद हो सकता है और न ही नदारद।जब रुपया अपने स्वामी के प्रति निष्ठावान रहता है तो दूसरा इसे कैसे साबित कर सकता है कि यह बेईमानी का है।चुनाव के समय बेईमानी वैसे भी मुँह छिपाए घूम रही है।ऐसे में रूपये का वास्तविक दावेदार नहीं मिलता और ट्रकों रुपया सड़क पर या पुलिस थानों में अपनी शरण मांगता फिरता है।

इस तरह हम पूरी तरह यह मानने को मजबूर हैं कि रुपया राजा का नहीं अंततः प्रजा का ही है।नेता  बस उसकी देखभाल और समृद्धि में जुटे हैं।अब इसको लेकर किसी के पेट में मरोड़ उठता है तो उठता रहे मगर सनद रहे कि करोड़ रुपयों की डकार महज़ देश-सेवा है और कुछ नहीं।



सोमवार, 5 मई 2014

दिल चुराने लायक भी नहीं रहा :)


दैनिक भास्कर,डीबीस्टार में 05/05/2014 को


वह जमाना बीत गया जब लड़कियों को दिल चुराने में महारत हासिल थी।कई लड़के इस चक्कर में कवि या शायर बन जाते थे तो कई फकीर।लड़कियों से दिल वापसी पाने का सौभाग्य एकाध को ही मिल पाता था।सबसे बड़ी बात यह थी कि ऐसी वारदातों को गुनाह नहीं माना जाता था,जबकि इससे कई जिंदगियां बेजान और नीरस हो जाती थीं।इस सबका खामियाजा साहित्य को भुगतना पड़ता था।दिल चुराने की कहीं कोई रपट भी दर्ज़ नहीं होती थी,बल्कि बाज़ार में प्रेम के कई दस्तावेजी साक्ष्य बहुलता से उपलब्ध हो जाते थे।

ताजा समाचार है कि दिल्ली मेट्रो में पिछले साल भर में भले-भोले लोगों की जेब से माल उड़ाने की सैकड़ों घटनाएँ हुई हैं,जिनमें नब्बे फीसद से ज्यादा लड़कियों का हाथ पाया गया है।ये रिकॉर्ड केवल रपट दर्ज होने वाली घटनाओं के बारे में है।इस से एक बात जाहिर हुई कि शायराना तबियत वाले महोदय अपने बगल में खड़ी जिस बाला को देखकर नई गज़ल के काफ़िया-रदीफ़ दुरुस्त करने में जुटे थे,ठीक उसी समय उनके खीसे से कड़क माल सरक गया।सब कुछ लुटाने के बाद मालूम हुआ कि वह बाला नहीं बला थी।वो तो अपने नाज़ुक दिल को क्विकर या ओएलएक्स की स्टाइल में बेचने की जुगत में लगे रहे पर उनकी जेब ज्यादा बिकाऊ निकली।दिल ससुरा यहाँ भी मात खा गया।दो कौड़ी के दिल के सहारे कविताई भी नहीं होनी थी ,सो पीड़ित महाशय थाने में जाकर जोर से चिल्लाये,’दरोगा जी ,चोरी हो गई....

अब रपट थाने में दर्ज है पर सदाबहार परवाने भौंचक हैं।ऐसा चलता रहा तो दिल की कीमत कुछ रहेगी ही नहीं।लड़कियों द्वारा इस तरह अचानक अपना धंधा बदल लेने के पीछे क्या वज़ह है पहले लड़कों द्वारा मासूम लड़कियों को ठगने,छलने की घटनाएँ चिंतित करती थीं,पर अब नहीं।जबसे जागरूकता बढ़ी है,लड़कियाँ उनसे दो कदम आगे निकल गई हैं।रपट लिखने वाले ज़्यादातर लड़के होते हैं क्योंकि अधिकतर लड़कियाँ अब रपटती नहीं।इसका कारण यह भी हो सकता है कि लड़कों के दिल अब चिकने नहीं खुरदुरे हो गए हैं।चोरी के बहाने ही सही ,समाज में बराबरी का मुकाम आ गया है ।

अगर पॉकेटमारी बंद करनी है तो फ़िर से दिलों के व्यापार को बढ़ावा देना होगा,पर सख्त कानून के चलते इसमें भी लोचा है।साहित्यप्रेमियों के लिए यह बुरी खबर है।अब जेबकतरी होने पर गालियों के नए संस्करण ही सामने आयेंगे,कोई काव्य-संग्रह नहीं।


डेली न्यूज़ ,जयपुर में 06/05/2014  को


रविवार, 4 मई 2014

दो कारोबारियों से ख़ास इंटरव्यू !

04/05/2014 को जनसन्देश में !

कल शाम अचानक चौपाल में गहमागहमी बढ़ गई थी।मैंने सोचा,चुनाव का सीजन है,नेताजी पधारे होंगे।किसी क्रान्तिकारी बयान की उम्मीद में मैं भी भीड़ में शामिल हो गया।आश्चर्य हुआ कि दो भद्रजन हाथों में रजिस्टर लिए लोगों को कुछ दिखा रहे थे ।मैंने फ़िर भी अंदाज़ा लगाया कि किसी पार्टी के एजेंट होंगे,संशोधित घोषणा-पत्र समझा रहे होंगे;पर जब उनके पास पहुँचा तो मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई।पता चला कि ये कोई मामूली या जमीनी नेता नहीं बल्कि विशुद्ध जमीनी कारोबारी हैं।जमीन से गहरे जुड़ाव होने के कारण दोनों चुनावी हमलों के शिकार हो रहे हैं।भ्रष्टाचार,मंहगाई और साम्प्रदायिकता को परे धकेलकर इस समय यही दोनों सबसे बड़े मुद्दे बन गए हैं।इसलिए लोगों के सामने अपना अपना पक्ष रखने को आतुर हैं।बस,मुझे और क्या चाहिए था,मैंने दोनों से उनका पक्ष जानने की कोशिश की।

सबसे पहले मैंने तेल-फुलेल का धंधा करने वाले अघानी जी से सवाल किए :
मैं :आप किस तरह राजनीति की चपेट में आ गए ?
अघानी जी :देखिए,मैं एक छोटा कारोबारी हूँ।मुझे राजनीति से खास फायदा नहीं पहुँचा,बल्कि मैंने तो पहुँचाया ही है।अगर हम कारोबार में न आते तो राजनीति ही करते।यह त्याग कम है क्या ?
मैं:लेकिन आप पर टॉफियों के दाम पर जमीन लेने का आरोप है ?
अघानी जी :बस इसी बात की सफाई देने यहाँ आया हूँ।दरअसल,यह बात बिलकुल निराधार है क्योंकि हमने टॉफियों के दाम पर नहीं बल्कि चाकलेट के दाम पर ज़मीन ली है।इसका प्रमाण है कि यह जमीन एक-डेढ़ रूपये नहीं,पन्द्रह रूपये की दर पर ली गई है।आप चाहें तो रसीदें देख सकते हैं।
मैं: यह तो वाकई आपके साथ बड़ा अन्याय है।आप इसकी भरपाई कैसे करेंगे ?
अघानी :देखिए जी,हम ज़मीन या धन से नहीं बल्कि इस तरह के आरोपों से अघा गए हैं।अब इसकी भरपाई तो जनता ही करेगी।जैसे नेताओं के जनहित कार्यों की भरपाई जनता करती है,वैसे ही यह भी कर लेगी।हमें भारत के लोकतंत्र पर पूर्ण आस्था है।
मैं :और आप बघेरा जी ! तमाम सुरक्षा और सहूलियतों के बावजूद आप कैसे इस पिंजड़े में सॉरी पचड़े में फँस गए ?
बघेरा जी : दोष धंधे का नहीं रिश्ते का है जी।जिसे हम कारोबार समझते रहे ,वे इसे सरकार समझ रहे हैं।जब हम सरकार के हैं तो सरकार हमारी क्यों नहीं हो सकती ? यही बात समझाने हम यहाँ आए हैं।
मैं :आप पर पूरी ‘फिलम’ बन चुकी है,दामादश्री के नाम से।इस पर आपको क्या कहना है ?
बघेरा जी : हम तो इतना ही जानते हैं कि भारतीय संस्कृति में दामाद को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। हम उसी स्थान को ज़मीन के माध्यम से फैला रहे हैं,समृद्ध कर रहे हैं तो इसमें बुरा क्या है ? वे लोग उसी परम्परा को फिलम बनाकर आगे बढ़ा रहे हैं।
मैं : मगर आप पर सीधा आरोप है कि आप करोड़ों की ज़मीन डकार गए हैं ?
बघेरा जी : यह बात तथ्य से परे है।डकार तो पेट भरने पर ली जाती है और अभी तक आपको ऐसा कोई लक्षण दिखा हो तो बताओ ?
मैं : क्या सरकार और खास परिवार से जुड़े होने के कारण आपके कारोबार को कोई लाभ मिला है ?
बघेरा जी : हमको तो इत्ता ही लाभ समझ में आया है कि उसी के कारण यहाँ चौपाल में खड़े हैं और आप चुनावी माहौल में किसी नेता के बजाय हमारा इंटरव्यू ले रहे हैं।रही बात आरोपों की,सो हर सफल आदमी के हज़ार दुश्मन होते हैं,हमारे तो करोड़ों हो गए।
मैं : आप दोनों की परेशानियाँ एक-सी लग रही हैं।साथ में मिल क्यों नहीं जाते ?
इतना सुनते ही अघानी जी और बघेरा जी ने अपना-अपना हाथ मिलाया और चलते बने। हम भी एक्सक्लूसिव इंटरव्यू से लैस होकर अपने स्टूडियो की ओर भागे।

साहित्य-महोत्सव और नया वाला विमर्श

पिछले दिनों शहर में हो रहे एक ‘ साहित्य - महोत्सव ’ के पास से गुजरना हुआ।इस दौरान एक बड़े - से पोस्टर पर मेरी नज़र ठिठक ...