शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

बाजार का बचना जरुरी है !

बाज़ार धड़ाम से गिरा है और इसकी गूंज भी चौतरफ़ा सुनाई दे रही है। चढ़ते-चढ़ते वह एकदम से बैठ गया है। इस पर न मीडिया चुप है न सरकार।बाजार के भाव गिरे तो खलबली मच गई जबकि आम आदमी की थाली से दाल-रोटी कब गिरी, किसी को खबर ही नहीं।इसका सीधा कारण यही है कि बाजार भारी है सो उसके गिरने पर आवाज आती है। आम आदमी का क्या है, वह मजे-मजे में ही गिर लेता है। वह उठकर भी क्या कर लेगा, इसलिए अर्थशास्त्री या सरकार उसकी ओर से बेफिक्र है।

विकसित हो रही अर्थव्यवस्था पर अचानक अंदेशे के बादल घिर आए हैं। यहाँ तक कि सरकार भी अपने मौन-कक्ष से बाहर निकल आई है। उसने बताया है कि बाजार जल्द ही गुलजार होगा। बड़े लोगों को उस पर वैसा ही भरोसा है जैसे छोटों को ‘अच्छे दिनों’ पर था.बहरहाल सरकार के एक मंत्री ने इसी दौरान यह बता दिया कि ‘अच्छे दिनों’ को लाना उनकी तरफ से कोई वादा नहीं नारा था। और यह भी उनका नहीं सोशल मीडिया में बैठे कुछ निठल्लों का। अब सरकार निठल्ली थोड़ी बैठी है! उसे तो बाजार के साथ चलना होता है।इसीलिए बाजार का बैठना उसे नहीं भा रहा।

पर क्या करें, रुपया और शेयर बाजार बैठ रहा है। इसे चलाने की उसे अधिक चिन्ता है। प्याज और दाल लगातार उठ रहे हैं। उसे उठने से परहेज नहीं है,सिवाय खुद के उठ जाने से। सरकार को फ़िक्र है कि बाजार इसी तरह बैठा रहा तो उसकी डोली भी जल्द उठ सकती है। बुलेट ट्रेन का वादा नारा बनकर हवा में उड़ सकता है। विदेशी दौरों से प्राप्त होने वाली हजारों बिलियन की धनराशि ‘कालेधन’ की तरह जुमला बन सकती है। प्याज और दाल का बढ़ना वैसे भी विकास का प्रतीक है। उसे लगता है कि इससे आम आदमी की क्रय-शक्ति और मज़बूत होगी। उसे इस समय पेट की नहीं ‘मन की बात’ सुननी चाहिए।'किरपा' वहीं से आएगी।

बाज़ार इस वक्त बुलिश नहीं बियरिश हो चला है। हम सबको ‘बियर’ करना ही होगा।कतई चिन्ता नहीं करनी चाहिए। बाज़ार को जल्द पैकेज मिलेगा।सरकार आवाज देगी ,’कितना कर दूँ...? पचास हज़ार...नहीं...साठ हज़ार....नहीं, लो सौ हज़ार करोड़ दिया’ और इस पैकेज के मिलते ही दड़बों में घुसे लोग सरपट दौड़ने लगेंगे। जिनके पेट और पीठ एकाकार हो चुके हैं,वे बैठे-बैठे योग करें।उन्हें 'भूख-मारक आसन' को दिन में तीन बार करना होगा। फिलहाल बाजार का बचना जरूरी है।

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

बात ‘ब्रेक’ क्यों हुई !

बात टूट गई है पर चर्चा नहीं।पहले चर्चा का एजेंडा था कि बात क्यों हो रही है फ़िर इस पर कि बात क्यों नहीं हुई ? दोनों ओर के वार्ताकार ब्रेकका मजा ले रहे हैं। वहीं कुछ एक्सपर्ट बात के टूटने का 'क्लू' तलाशने में जुट गए हैं ।एक चैनल ने तो सारे फसाद की जड़ को ही खोज लिया है ।कहते हैं कि बात टूटने की बड़ी वजह यह भी रही।इस बीच हमारे हाथ भी एक क्लूलगा है जिससे पता चल जायेगा कि बात क्यों टूटी ?

हेलो,हमारी तरफ से टॉक कैंसल।यह हमारा करारा जवाब है।

देखिए,यह अच्छी बात नहीं है।वार्ता तो होनी चाहिए।हम उसे बीच में तोड़कर मुंहतोड़ जवाब देना चाहते हैं।

हम आपकी मंशा समझ रहे हैं ।हम तो आपकी सीमा के अंदर ही घुसते हैं,आप लोग तो हमारे बेडरूम तक घुस आए।यह बर्दाश्त नहीं।

तो क्या आप मानते हैं कि डॉन आपके यहाँ है ?

हमने कभी नहीं कहा कि वह हमारे यहाँ है।फिर वह अपने बेडरूम में सो रहा है।ऐसे आदमी से आपको क्या खतरा ?

हम यही जानना चाहते हैं कि इतनी चर्चा होने के बाद भी वह घोड़े बेचकर कैसे सो रहा है ?कम से कम उसे चैनलों के लिए एक बाइट तो देनी चाहिए थी।

मगर आपने यह कैसे जान लिया कि वह कराची में है ?और वह घोड़े बेचकर ही सो रहा है ?

भाई हमारे एक चैनल को एक सैटेलाइट-फुटेज मिला है,जिसमें साफ़-साफ़ दिखता है कि कराची की एक छत पर एक लुंगी टंगी हुई है। वह ताजादम नहाई हुई लगती है और उससे पानी टपक रहा है।इससे बिलकुल स्पष्ट है कि डॉन जागता भी है।हमें उसके जागने पर एतराज है।हम चाहते हैं कि वह हमेशा के लिए गहरी नींद में सो जाए।

हम इसकी जाँच कराएँगे।पहले आप वह फुटेज भेजें ,जिससे साबित हो कि कराची हमारे ही यहाँ है।लुंगी की बात तो बाद में।रही एतराज की बात,तो कुछ हमारे भी हैं।आपने पहले हमारे लड़के को पकड़ा।फ़िर सुना कि उसे बिरयानी नहीं दी जा रही है।भई,अगर आपके मुल्क में प्याज की इतनी ही किल्लत है तो हमसे बताओ।हम अगली खेप में प्याज के साथ ही लड़के भेज देंगे।

आपका एतराज बेबुनियाद है।हम उसकी जमकर सेवा कर रहे हैं।फ़िलहाल उसको अपने माँ-बाप की याद आ गई है और जल्द ही नानी भी याद आ जायेगी।आप यदि क्रिकेट के खेल को बहाल करना चाहते हैं तो खूनी खेल बंद करना होगा।आप हमारी बाॅल सीमापार करें, लड़ाके नहीं।हमारे बीच अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा। आई मीन, हम केवल आतंकवाद पर बात कर सकते हैं।

क्या - क्या! यह बीच में आतंकवाद कहाँ से आ गया!  हम तो केवल कश्मीर और हुर्रियत को जानते हैं।आतंकवाद हमारे एजेंडे में नहीं डीएनए में है और इस बात पर हम कोई बात नहीं करते। लगता है आपने रांँग नम्बर डॉयल कर दिया है। सॉरी....!

इसके बाद बात अचानक कट जाती है।यह महत्वपूर्ण सुराग है जो बताता है कि बात क्यों टूटी ? अब चारों ओर चर्चा इस बात पर है कि बात न हुई न सही, खेल तो हो सकता है।कुछ हो ना हो, होने पर चर्चा तो हो ही सकती है। 


बुधवार, 19 अगस्त 2015

आजादी का अलार्म !

आजादी का एक दिन था,गुजर गया।आजादी अब महसूसने की नहीं मनाने की चीज़ है।हर वर्ष इसके लिए एक तिथि नियत कर दी गई है।हम इस काम में कभी नहीं चूके।आज़ादी मिलने के साथ ही वार्षिक अंतराल पर आजादी का अलार्म लगा दिया गया था।हर बार यह अलार्म लालकिले से बजता है।बहरे हुए लोगों को चीख-चीखकर जगाया जाता है कि मूर्खों,हम आज़ाद हैं।और सुनने वाले वाकई मूर्ख होते हैं।वे उस ‘हम’ में अपने को भी शामिल कर लेते हैं।

अगर आप समझते हैं कि आज़ादी एक अमूर्त चीज़ है तो भी आप गलत हैं।इसमें अप्रतिम सौंदर्य है।आज़ादी के इस रूप का अहसास कराने के लिए ही कहीं ‘स्टेचू ऑफ लिबर्टी’ है तो कहीं ‘स्वतंत्रता की देवी’।आप इसके निकट आयें और महसूस करें।यह स्वयं किसी के निकट चलकर नहीं जाती।जिस चीज़ को हासिल करने के लिए हजारों कुर्बानियाँ दी गई हों,वह आपको साल में एक बार लालकिले से यूँ ही मिल जाती है ! वैसे तो सरकारी दफ्तरों में हर समय आज़ादी रहती है पर उसके लिए कठिन परीक्षा पास करनी होती है।खेत-खलिहान में काम करने वाले यह मुश्किल नहीं समझते।इस जानकारी के अभाव में वे आज़ादी की चाहत रख लेते हैं।गलती उन्हीं की है।

आज़ादी पर बोलना सबसे कठिन काम है।यह काम तब और मुश्किल हो जाता है जब हर साल किया जाता हो।रिकॉर्ड तोड़ते हुए बोलना और भी मुश्किल है।नए-नए फ्लेवर डालकर उच्चगति से आलाप करना पड़ता है,जिससे सुनने वाला नए तरीके से बहरा हो जाये।आज़ादी अब तरकीब भी है और मौका भी।बोलने की आज़ादी इसीलिए मिली है कि जैसा चाहो,जब चाहो बोलो।पर बोलना भी एक कला है।आज़ादी की तरह यह भी सबके पास नहीं होती।सफल होने के लिए कलाकार होना ज़रूरी है।मेहनत-मजूरी कोई कला नहीं है,उसके लिए पसीना बहाना पड़ता है।पसीने से गंधाये हुए लोग न कलाकार हो सकते है और न सफल।

अगर बोलने की आज़ादी है तो सुनने की भी।दोनों असीमित हैं।बोलने में ऊर्जा नष्ट होती है तो सुनने में संचित होती है।इस तरह से सुनना अधिक उपयोगी उद्यम है।इस क्रिया से धैर्य अपने आप आ जाता है।शायद इसीलिए एक शायर ने कहा भी है,’बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’।बोलना और सुनना आज़ादी के अंग हैं तो ‘करना’ इसका आवश्यक विस्तार।हमें जितनी आज़ादी काम करने की मिली है,उससे भी अधिक न करने की।हम अधिकता की ओर अग्रसर हैं,इसलिए बोलने के रिकॉर्ड टूट रहे हैं।हमारी आज़ादी की उपलब्धि यही है।

बुधवार, 12 अगस्त 2015

फाइलों का निपट जाना!

अब कोई भी खबर हैरान नहीं करती पर इधर एक दिलचस्प खबर आई है।उत्तम प्रदेश के सचिवालय की कुछ फाइलों को दो कुत्तों ने कुतर दिया।हैरानी वाली बात यह है कि इसके लिए किसी कुत्ते को न टेंडर दिया गया और न ही वह इसकी पात्रता रखता था।फ़िर भी यह अनहोनी हो गई।जाँच के आर्डर दे दिए गए हैं कि इतनी पुख्ता व्यवस्था होने के बावजूद कुत्ते आखिर फाइलों तक कैसे पहुँचे और उन्होंने किस नीयत से उन्हें कुतरा ?

इस वाकये की जाँच मुस्तैदी से होगी और होनी भी चाहिए।आखिर कुत्तों ने आदमी के काम में दखल दिया है।पुलिस ‘अमानत में खयानत’ के आरोप में कुत्तों को अदालत में घसीट सकती है।नगर निगम को सतर्क कर दिया गया है कि वह साफ़-सफ़ाई जैसे रूटीन कार्यों को छोड़कर इस आपदा में प्रशासन का सहयोग करे।हमें राज्य की पुलिस-व्यवस्था पर पूरा भरोसा है.गुम हुई भैंसों की तरह ये कुत्ते भी जल्द बरामद कर लिए जायेंगे।

यहाँ मुख्य बात यह है कि आखिर कुत्तों को फाइलें चबाने की सूझी ही क्यों ? यह काम अमूमन चूहे करते रहे हैं या ऑफिस का पुराना बाबू।चूहे या कुत्तों द्वारा फाइलें निपटाने का तरीका बिलकुल अलग है।वे अक्सर उन्हीं फाइलों को कुतरते हैं,जिनकी उपयोगिता खत्म-सी हो जाती है।जिनके न रहने से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है पर टेबल पर पड़ी रहने से कभी भी विस्फोटित हो सकती हैं।इसलिए उनका कुतरा जाना ही उनकी नियति है।बाबू किसी भी फाइल को यूँ ही नहीं निपटाता।उसके बनने और चलने का सारा व्यय जोड़ता है,पूरी तरह दुहता है और आगे के लिए बढ़ा देता है।यदि फ़ाइल गैर-दुधारू हुई तो उसे अन्ना(छुट्टा)छोड़ देता है।वह अपने-आप ही धूल-धूसरित होकर निपट लेती है।

सवाल फ़िर भी यही है कि कुत्तों ने ऐसा क्यों किया ? हो सकता है उन्होंने बड़ी बारीकी से सचिवालय की गतिविधियों का अध्ययन किया हो।यह भी हो सकता है कि वे इस बात का रहस्य जान गए हों कि दफ्तर में घुसा दुबला-पतला आदमी बाहर निकलकर अचानक इत्ता मोटा-ताजा कैसे हो जाता है ! इसलिए महज एक प्रयोग करने के लिए यह कदम उठाया हो.जानने वाले बताते हैं कि कुछ आदमियों ने कुत्तों के भौंकने की आवाजें सुनी थीं.कुत्तों से यहीं गडबड हो गई.ऐसे काम परम शान्ति के क्षणों में किए जाते हैं.जाँच का मुख्य विषय यही होना चाहिए।

रही बात फाइलों के कुतरे जाने की,उनको तो हर हाल में निर्वाण की गति को प्राप्त होना ही है ।

 

सोमवार, 10 अगस्त 2015

मौन भी अभिव्यंजना है !

मौका मिलते ही पत्रकार उनके पीछे पड़ जाते हैं,पर सिर को दाएँ-बायें घुमाकर वे उनके सवालों को हवा में उड़ा देते हैं.जिस मौन को वे सत्ता में आने से पहले ललकार रहे थे,अब उसी को अपना हथियार बना लिया है.उन्होंने सम्पूर्ण ख़ामोशी अख्तियार कर ली है या यूँ कहिए कि कट्टी साध ली है।पर इसमें भी बड़ी साधना लगती है।ख़ूब बोलने वाले का एकदम से चुप्पी ओढ़ लेना आसान नहीं है।इसका भी कोई योगासन होता होगा,विदेह जैसा कुछ।यानी आप अपने को ऐसा बना लें कि जैसे आस-पास कुछ घटित ही नहीं हो रहा हो।

मौन एक तिलिस्म है।कुछ कयास लगाते हैं कि बोलने के लिए कुछ है ही नहीं सो क्यों बोलें पर जानने वाले जानते हैं कि मौन ऐसी-वैसी‘सिली’ और फ़िज़ूल बातों पर ध्यान देता भी नहीं। यह भी हो सकता है कि मौन अकेले में ही बात कर लेता हो। एक फिल्म के गाने ’मैं और मेरी तन्हाई अकसर ये बातें करती हैं’ से स्पष्ट है कि मौन का मतलब संवादहीनता नहीं होता। अपने-आप से बात करना सबसे बड़ा संवाद है। यही वजह है कि हफ्ते-दो-हफ्ते का मौन-संवाद रेडियो पर ‘मन की बात’ के रूप में प्रकट हो जाता है। इसलिए मौन रहना अपराध तो कतई नहीं है। ’एक चुप ,हजार सुख’ भी इसकी तसदीक करता है।

मौन पर कई सवाल उठ रहे हैं। यह बात जब देश के मुखिया से सम्बन्धित हो,तो बड़ी खबर बन जाती है। दरअसल,इसके पीछे भी एक तकनीकी वजह है कि वे पत्रकारों के प्रश्नों के जवाब नहीं देते।वे‘डिजिटल इंडिया’ के नायक हैं इसलिए अपने मन की बात ट्विटर,फेसबुक या रेडियो पर ही बताते हैं।इससे तकनीक को बढ़ावा तो मिलता ही है, जनता में भी अपने दुःख-दर्द डिजिटल करने को उत्सुकता बढ़ेगी।इससे एक ही क्लिक से उन दुखों को डिलीट किया जा सकता है ।चुप्पी इसलिए भी है कि गाँव की जनता यह मुहावरा,’साइलेंस इज हाफ एक्सेप्टेंस’ को नहीं जानती और जो जानते हैं वो वोट नहीं डालने जाते।

उनका मौन होना पिछले वाले मौन से जुदा है।पिछला ‘मौन’ जहाँ हमेशा चुप रहता था,वहीँ यह वाला मौन ऑटोमैटिक सुविधा से लैस है।जब ज़रूरत होती है,’मौन’ मुखर हो उठता है।वैसे भी सत्ता किसी की सुनती नहीं सिर्फ़ सुनाती है,बोलती है।यह बात वही नहीं समझते जो नादान हैं।मौन कमजोरी की नहीं बलशाली होने की निशानी है।मौन स्वयं को समृद्ध करता है।

मौन को तोड़ने के लिए कई स्तरों पर प्रयास चल रहे हैं।सवाल-दर-सवाल उछाले जा रहे हैं।पत्रकार उत्सुक इसलिए भी हैं कि पड़ोसी देश ने जो टोकरी भर आम भेजे हैं,उनकी क्वालिटी क्या है ? टोकरी में आम की एक ही किस्म है या अलग-अलग ? इस बात का उत्तर मिल जाय तो कश्मीर समस्या पर भी पड़ोसी देश का नज़रिया पता लग सकता है। यदि एक ही किस्म हुई तो मतलब साफ़ है कि वह बातचीत में कोई विकल्प नहीं देना चाहता है। हाँ,यदि आमों की कई किस्में हुईं तो आम चूसने की तरह बात करने का मजा भी बढ़ जायेगा। पर यह तभी ‘किलियर’ होगा जब वह मुँह खोलेंगे।

उनके मौन को भंग करने के लिए कोई अपना ऑडियो-सन्देश भी भेज रहा है पर बिना यह जाने कि मौन के पास कान भी हैं या नहीं ! मौन यदि बहरा हुआ तो उस तक बात पहुँचाना और कठिन हो जायेगा।हाँ,तब ऐसे में कई सारे लोग मिलजुलकर नाच-गाना करें,ढोल-मजीरे बजाएं तो शायद उसकी तन्द्रा भंग हो।पर यह तभी हो सकता है, जब वह नींद में हो। यदि ‘मौन’ किसी साधना में लीन है तो जगाना असम्भव है ! साधना का एक निश्चित नियम है।वह अपने नियत समय पर ही टूटती है ।फ़िर मौन को लेकर हम इतना अर्थसंकोची क्यों हो रहे हैं ! अज्ञेय ने कहा है कि ‘मौन भी अभिव्यंजना है’। इसलिए मौन को ऐसा-वैसा मत समझिए,यह ज़रूर कोई महत्वपूर्ण चीज़ है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं।

रविवार, 2 अगस्त 2015

हमें चाहिए पूरी आजादी !

गहरी नींद में सोया हुआ था कि अचानक श्रीमती जी ने झिंझोड़ दिया,’अब उठोगे भी शालू के पापा !सूरज सिर पर चढ़ आया है और तुम हो कि अभी चादर ताने पड़े हो !’


चैन से सोने भी नहीं देती हो भागवान ! कम से कम छुट्टी के दिन तो नींद पूरी कर लेने दिया करो !’चादर के अंदर से ही हमने जवाबी हमला किया।मेरे इतना कहते ही श्रीमती जी ने चादर को मुझसे मुक्त किया और मैं हडबडाकर उठ बैठा।’तुम्हें सोने के सिवा कुछ और भी आता है ? देखो,देश आज़ाद हो गया है।प्रधानमंत्री ने अभी-अभी लालकिले से झंडा फहराया है।और तो और चुन्नू के पापा सुबह-सुबह उठकर अपने बरामदे में झाड़ू लगा रहे हैं।एक तुम हो कि अपना मुँह तक नहीं साफ़ कर सके ? ‘ बात अब बहुत पर्सनल हो चुकी थी। हम झट से बिस्तर का परित्याग करके श्रीमती जी के सामने इस तरह तनकर खड़े हो गए,जिससे हमारा स्वाभिमान अपने शुरुआती लेवल पर आ गया ! हमने भी पलटकर जवाब दिया,’ख़ाक आज़ादी का दिन है ! हमें सोने तक की आज़ादी नहीं है,फ़िर हमें कौन-सा झंडा फहराना है ? रही बात सोने की,हमने तुम्हारे सोने पर तो कभी ऐतराज किया नहीं।अभी पिछले हफ्ते ही हमारी आधी तनख्वाह तुम्हारे इसी शौक की भेंट चढ़ गई ! और बात करती हो चुन्नू के पापा की,तो ज़रा एक नज़र चुन्नू की मम्मी पर भी डाल लिया करो।एक वो हैं जिनका चेहरा हमेशा खिला-खिला रहता है और एक तुम हो,हमेशा खुले मुँह से ही हमारा स्वागत करती हो !ऊपर से हमें बोलने तक की आज़ादी नहीं है।’

इतना सुनते ही श्रीमती जी कातर नेत्रों से हमें देखने लगीं।पता नहीं आज़ादी के दिन का प्रभाव था या हमारी सूरत देखकर उनको रहम आ गया,वे पहली बार बिना कोई जवाब दिए किचन में घुस गईं और हम शौचालय में। अक्सर सुकून के कुछ पल यहीं गुजरते हैं।हमें अचानक वह विज्ञापन याद आ गया जिसमें कहा जाता है,’जहाँ सोच,वहीँ शौचालय' पर हमें लगा कि इसमें भी खोट है ।शौचालय में ही कई बार हमने बड़ी ऊँची सोची है ।फ़िर यहाँ न कोई खतरा होता है ,न किसी का पहरा।हम अपनी आज़ादी को लेकर शुरू से ही बेहद संवेदनशील रहे हैं इसलिए इस पर सोचना शुरू कर दिया ।हमें महसूस हुआ कि इस वक्त देश में कश्मीर से भी बड़ी समस्या यही है।हम हर वर्ष देश की आज़ादी का ज़श्न मनाते हैं।गली और मुहल्ले में आज़ादी का परचम जोर-शोर से फहराते हैं।एक ओर इसके महत्व को समझाने के लिए जगह-जगह सेमिनार और जलसे किए जाते हैं पर पति नामक जीव अपने घर में ही आज़ाद नहीं है।यहाँ तक कि भ्रष्टाचार,जमाखोरी और लूट-पाट करने की देशव्यापी आज़ादी हमें बाय डिफॉल्ट मिली हुई है।अब तो बलात्कार और अपहरण इतने आत्मनिर्भर हो गए हैं कि इन्हें आज़ादी का मुँह ताकने की भी ज़रूरत नहीं रह गई है।आज़ादी की किरण केवल हम पतियों तक ही तक नहीं पहुँच पाई है।न जाने कब से वह दरवाजे के उस पार है।

हम सोचते ही जा रहे थे .हमें लगा कि आज़ादी की बुनियादी ज़रूरत घर से ही शुरू होती है ।यदि परिवार का मुख्य चरित्र पति ही घर पर अपने को दबा-कुचला और शोषित महसूस करने लगे तो घर के बाहर उसकी आज़ादी के कोई मायने नहीं हैं।जिस पति को पत्नी के आगे ‘दाल में नमक कम है’ तक कहने की हिम्मत नहीं पड़ती ,उसे ही सेमिनार में ‘नारी स्वतंत्रता’ पर लम्बे-लम्बे व्याख्यान देने पड़ते हैं ।किसी शोधार्थी ने कभी इस ओर गौर किया है कि बाहर कैंची जैसी चलने वाली हमारी जबान घर में बत्तीस दाँतों के बीच फँस कैसे जाती है ? पतियों की पूरी आबादी इस आज़ादी को पाने के लिए बेचैन है पर इसकी माँग के लिए वह जंतर-मंतर या इंडिया गेट तक नहीं जा पाते ।आधी आबादी से आज़ादी मिलने के फ़िलहाल यही दो केन्द्र हैं पर इसके लिए कोई ‘पति-मुक्ति’ आन्दोलन की पहल नहीं करता।जाहिर है पति को अभी भी सार्वजनिक रूप से पत्नी-पीड़ित होने के अहसास से आज़ादी नहीं मिल पाई है।

सच पूछिए तो आज की तारीख में आज़ादी का सच्चा हकदार पति ही है।उसके लिए घर में आज़ादी के नाम पर साल भर में करवा-चौथ का एक ही दिन आबंटित है।उसी की आस में वह बाकी दिन गुजार देता है।उसके सामने हमेशा मुँह खुला रखने वाली पत्नी का मुँह उस दिन चाँद देखकर ही खुलता है।उस दिन वह पति को न किसी बात पर टोकती है न झिड़कती है,बल्कि उसके पर्स से ख़ूब प्यार जताती है।पति चाहता है कि उस दिन चाँद जरा देर से चमके पर उसके सौभाग्य से यदि चाँद कभी बादलों में छुप भी गया तो टीवी चैनल वाले झुमरी-तलैया से भी उसका दुर्भाग्य ढूँढ लाते हैं।उसकी मुसीबत यहीं खत्म नहीं होती।अब तो व्हाट्स अप और फेसबुक पर भी चाँद की तस्वीर देखकर आधुनिक पत्नियाँ व्रत तोड़ देती हैं।तकनीक का आधुनिक होना हमें यहीं पर खलता है !

हमारी सोच लगातार नए आयाम जोड़ रही थी।यही कि आज हम जैसे पति की कहीं पूछ नहीं होती ।घर हो या बाहर,उस के पक्ष को न पुलिस सुनती है न पड़ोसी।सब मिलकर एक साथ टूट पड़ते हैं।अंग्रेजों से आज़ादी हासिल करने के लिए जहाँ लोग धर्म,जाति,क्षेत्र सब भूल गए थे पर पतियों की खातिर आज पति भी साथ खड़े नहीं होते।हमें डर लगा रहता है कि थोड़ी देर के लिए झंडा उठा लेने पर कहीं घर से ही राशन-पानी न उठ जाए।यह डर तब और बढ़ जाता है जब हमारे कानों में नेताओं और अपराधियों की आज़ादी के किस्से अहर्निश सुनाई देते हैं।एक तरफ यह असहाय प्राणी है जो अपने घर में मनमाफिक चैनल भी नहीं लगा पाता,दूसरी ओर वे लोग हैं,जिन्हें फर्जी डिग्री पाकर देश-सेवा की आज़ादी मिल जाती है।झूठा हलफनामा देकर मंत्री तो बना जा सकता है पर पति नहीं।जहाँ मंत्री से एक अदद इस्तीफ़ा नहीं मिल पाता वहीं पति को जेल और तलाक दोनों।यह कैसी आज़ादी है ? जहाँ तक हम सोच पा रहे हैं ,आज़ादी के कर्णधार यहाँ तक शायद सोच ही नहीं पाए थे।

अपनी सोच को और विस्तार देते हुए हमें खयाल आया कि पति को इस बात की भी आज़ादी मिलनी चाहिए कि वह कभी भी रात-बिरात घर आए,शराब पीकर पत्नी को प्रवचन दे ,अपने बॉस का गुस्सा उस पर उतारे और बच्चों को इसी बहाने अहसास दिला सके कि उनके पास भी एक अदद बाप है।जब तक पतियों की हालत नहीं सुधरती,आधी आबादी कभी पूर्णता का अहसास नहीं कर सकती।पति को घर में आज़ादी मिलने से ही पूर्ण आज़ादी का मिशन पूरा हो सकता है।उसकी स्थिति को दफ्तर में भी औरों से अलग करके देखना चाहिए।कुँवारा होना और पति होना बिलकुल भिन्न परिस्थिति है।किसी फ़ाइल को निपटाने में हमारा ‘पतित्व’ आड़े आ सकता है इसलिए हमारे पतित होने की वज़ह भी दूसरों से बिलकुल अलग होनी चाहिए ।इस सोच का सार यही कि पति को पतित होने की पूरी आज़ादी मिलनी चाहिए ताकि औरों की तरह समाज को वह भी अपनी फुल परफॉर्मेंस दे सके।

सोच  अब पूरी तरह विकसित हो चुकी थी ।हम सोचने लगे कि गलती से हम जैसा पति दफ्तर में यदि बॉस हुआ तो घर और दफ्तर में तालमेल बिठाने में बड़ी पेचीदगियाँ आ जाती हैं । शेर अचानक बिल्ली कैसे बन जाता है,हमसे बेहतर कौन जानता है ? ऐसा दोहरा किरदार निभाने वाले को दफ्तर से विशेष भत्ता उठाने की आज़ादी मिलनी चाहिए।दफ्तर में जहाँ हम अपना बिल खुद पास कर लेते हैं,वहीँ घर में अपने लिए एक सुरक्षित बिल तक नहीं खोज पाते ।खुद के लिए खर्चा माँगने पर घर में सौ सफाइयाँ देनी पड़ती हैं,दस बातें सुनाई जाती हैं।यह पति के प्रति अत्याचार नहीं तो क्या है ? उसको अपनी ही कमाई उड़ाने का हक नहीं है।

भ्रष्टाचार और बेईमानी जैसी अमूर्त चीजों के लिए जहाँ पूर्ण आज़ादी है,वहाँ एक जीते-जागते पति को साँस तक लेना दूभर है।उसकी इज्ज़त दूध वाले भैया और माली काका से भी गई गुजरी हो जाती है।समय आ गया है कि पति नाम के इस प्राणी का संरक्षण किया जाए नहीं तो इस प्रजाति के लुप्त होने में अधिक देर नहीं लगेगी।वैसे भी ‘लिवइन’ से इसकी शुरुआत हो चुकी है।जब कोई किसी का न पति है,न पत्नी तो फ़िर कैसा दायित्व और कैसा बंधन ? सारा दोष गाँठ का ही है इसलिए गठबंधन से भी आज़ादी ज़रूरी है।गठबंधन से सरकार तो चल सकती है,परिवार नहीं।पति को पूरी आज़ादी देकर इस गाँठ को खत्म किया जा सकता है।

हमारी सोच अब चरम पर पहुँच चुकी थी। पति की और भी घरेलू समस्याएँ नज़र आने लगीं।उसके पास आत्मरक्षा के लिए कोई भी आधुनिक हथियार नहीं है।पत्नी जहाँ झाड़ू,बेलन और चिमटे का भरपूर सदुपयोग कर सकती है,वहीँ बेचारा पति तमाचे और घूँसे जैसे अपने पारंपरिक अस्त्रों के भरोसे ही रहता है।घर में उसकी सुरक्षा और आज़ादी सुनिश्चित करने हेतु उसे मुक्केबाजी का निःशुल्क प्रशिक्षण मिलना चाहिए।इससे पति का मौलिक चरित्र बरकरार रखा जा सकता है।

हमारी सोच ने याद दिलाया कि बॉलीवुड को छोडकर किसी ने पतियों की दशा को गम्भीरता से नहीं लिया।’जोरू का गुलाम’ जैसी फ़िल्में बनाकर कुछ हद तक आवाज भले ही उठाई गई हो पर उसकी आज़ादी के लिए कुछ भी नहीं किया गया।पहले के ज़माने की बातें छोड़ दें जब वह सैंया होता था और एक करुण पुकार सुनाई देती थी,’न जाओ सैंया छुड़ा के बैंया,क़सम तुम्हारी मैं रो पडूँगी’।पर न तो आज वह करुण पुकार रही और न ही क़सम।अब तो वे आँसू भी नहीं रहे ! आँसुओं ने भी अपना दल बदल लिया है।हालाँकि पति उन्हें टपका भी नहीं सकता क्योंकि इससे उसका ‘पतित्व’ भंग होने की आशंका बनी रहती है।कम से कम उसे रोने की आज़ादी तो मिलनी ही चाहिए।

सहसा बड़ी जोर से दरवाजा खटखटाने की आवाज आई।हमारी सोच अचानक सातवें आसमान से जमीन पर आ गई । हम जैसे सोते से जागे।बाहर से श्रीमती जी की आवाज सुनाई दी,,’अजी ,वहीँ सो गए क्या ? अब निकल भी आओ ! शालू बिटिया के स्कूल के लिए आज़ादी का निबन्ध भी लिखना है।एक यही काम है जो तुम कायदे से कर सकते हो !’इतना सुनते ही हम तुरंत बाहर आ गए।हमने अपनी आज़ादी को थोड़ी देर के लिए मुल्तवी कर दिया और बेटी को आज़ादी का महत्व समझाने लगा ।

धुंध भरे दिन

इस बार ठंड ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी कि राजधानी ने काला कंबल ओढ़ लिया।वह पहले कूड़े के पहाड़ों के लिए जानी जाती थी...