गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

सेल्फी यानी सर्दी में भी गर्मी का एहसास !

समय बड़ी तेजी से बदल रहा है या यूँ कहिए कि गुलाटी मार रहा है।और कोई हो न हो,समय हमेशा आत्मनिर्भर होता है।बड़े-बुजुर्ग पहले ही बता गए हैं कि समय होत बलवान इसलिए चतुर-सुजान उसके साथ हो लेते हैं।कलम तलवार की धार से झाड़ू की बुहार में बदल गई है और पत्रकारिता परमार्थ से ‘सेल्फी’ मोड में अवतरित हो चुकी है।नए नायक का जन्म हुआ है तो मानक भी नए बन रहे हैं।जिनके लिए कभी कुर्सी बिछती थी,वे आज स्वयं बिछ रहे हैं।समय ने दाग़-धब्बों को रेड-कारपेट में बदल दिया है और आत्माएँ नित्य नए वस्त्र ग्रहण कर रही हैं।कुल मिलाकर सबका पुनर्निर्माण हो रहा है।

अश्वमेध का रथ आगे बढ़ रहा है।रथ में पहले के ही आजमाए घोड़े जुते हुए हैं।गाँधी,नेहरु और पटेल  को लगता होगा कि अभी भी देश को आगे ले जाना उनके बिना सम्भव नहीं है,सो वे पहले की ही तरह मौन हैं और बढ़े जा रहे हैं।अगर वे कुछ कह भी रहे होंगे,तो गाजे-बाजे के शोर में किसी को सुनाई नहीं दे रहा है।लोग भी मन की बात सुनने में व्यस्त हैं।

सबके अपने-अपने लक्ष्य हैं और उनको पूरा करने के लिए अलग-अलग निशाने।जब से सबका लक्ष्य विकास बना है,सबके सब प्रगति-पथ पर चलने को आतुर हैं।इसलिए मिशन से कमीशन तक की यात्रा बड़ी सुगम हो गई है।जब आपके सामने मखमली कालीन बिछी हो,उस वक्त पथरीली-ज़मीन पर पाँव रखना सादगी नहीं मूर्खता की निशानी है।सही समय पर सही निर्णय लेना बुद्धिमानों का काम है,पोंगा-पंडितों का नहीं।

अभी भी जिन्हें पार्थ के पांचजन्य का उद्घोष नहीं सुनाई दे रहा है,वे निरा ढपोरशंख हैं।कभी दूसरों को अपनी आँखों में क़ैद करने वाले आज स्वयं को ‘सेल्फी’ में समाहित करके प्रगतिशीलता का परिचय दे रहे हैं।यह मात्र सेल्फी से सेल्फिश होने तक का सफ़र नहीं है बल्कि पत्रकारिता की नई पहचान स्थापित हो रही है।पत्रकारिता में फ़िलहाल दो कैटेगरी हैं;या तो आप सेल्फी-पत्रकार हैं या नॉन-सेल्फी।यह पहचान ठीक उसी तरह की है जैसे अमेरिका वाले किसी को ग्रीनकार्ड से नवाज़ते हैं।जिनको यह कार्ड मिलता है,वे विशेषाधिकारी और अजूबे होते हैं।बगैर ग्रीनकार्ड के,अमेरिका छोड़िये, गली-मोहल्ले में ही आपकी धेले-भर की इज्ज़त नहीं रहेगी।

पत्रकारिता नए दौर में पहुँच चुकी है।मामला स्टिंग,पोल-खोल और ब्रेकिंग न्यूज़ से आगे बढ़ रहा है।दूसरे की खबर लेने वाले खुद खबर बनने को उतावले हैं।सोशल मीडिया पर सेल्फी डालने भर से यदि बड़ी खबर बन सकती है तो सत्ता और व्यवस्था की निकटता कतई बुरी नहीं है।इसलिए सेल्फी की बढ़ती उपयोगिता और इसकी माँग को देखते हुए पत्रकारों को भेजे जाने वाले निमंत्रण-पत्र में ही इसका ज़िक्र किया जा सकता है।साथ ही,सेल्फी के समय झाड़ू की जगह कलम खोंस दी जाय ताकि उन्हें सर्दी में भी गर्मी का एहसास हो सके।


© संतोष त्रिवेदी

ज्यों ज्यों बूड़ै श्याम रंग !

आखिर काफ़ी मशक्कत के बाद काला धन बाहर निकल ही आया।ऐसा कारनामा करने वालों को उस समय ‘हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के’ टाइप फीलिंग हो रही थी।जिस तरह पूरे देश को काले धन का इंतज़ार था,उसे देखने की ललक थी,उसी तरह सफ़ेद धन भी बड़ा आकुल हो रहा था।कोई कुछ भी कहे,सगा न सही,वह उसका सौतेला भाई जो ठहरा।काले धन ने भी सबसे पहले सफ़ेद धन से मिलने की इच्छा व्यक्त की।स्विस बैंक से भी बेहद गोपनीय जगह पर दोनों का संवाद हुआ,पर हमारे सेल्फी-पत्रकार ने उन दोनों की बातचीत रिकॉर्ड कर ली।जनहित में उसके मुख्य अंश यहाँ पेश हैं :

सफ़ेद धन: अपनी धरती पर तुम्हारा स्वागत है।यहाँ आकर कैसा लग रहा है ?

काला धन : मेरे लिए धरती का कोई हिस्सा पराया नहीं है।मैं जहाँ जाता हूँ,मेरा हो जाता है।तुम अपनी बताओ।दाल-रोटी का जुगाड़ चल रहा है कि नहीं ?

सफ़ेद धन : सरकार मेरा भी पुनर्वास करने को प्रतिबद्ध है।अभी ‘जन-धन’ के माध्यम से करोड़ों घरों में पहुँच गया हूँ।तुम्हारी घुसपैठ तो उँगलियों में गिनने लायक है अभी।सर्वव्यापी तो मैं ही हूँ।

काला धन: सर्वव्यापी ? माय फुट।जिन करोड़ों खातों में तुम्हारा ठिकाना है,कभी झाँक कर देखना।ओढ़ने-बिछाने के लिए जीरो बैलेंस से अधिक कुछ नहीं मिलेगा।हम एलीट टाइप के रहवासी हैं।सबके मुँह नहीं लगते।हमारी तो गिनती ही करोड़ों से शुरू होती है।बात करते हो !

सफ़ेद धन : पर तुम्हारा नाम कित्ता खराब है,यह कभी सोचा है ?

काला धन : तुम्हें ख़ाक पता है।हाशिये की खबरों के अलावा कभी साहित्य के पन्ने भी पलट लिया करो।तुमने पढ़ा नहीं है ‘ज्यों ज्यों बूड़ै श्याम रंग,त्यों त्यों उज्ज्वल होय’।माफ़ करना,क्या अब इसका अर्थ भी बताना पड़ेगा ? जो जितना हममें डूबता है,वह उतना ही उजला और सफ़ेद यानी तुम-सा हो जाता है।इससे सिद्ध होता है कि सफ़ेद होने के लिए पहले काला होना ज़रूरी है।

सफ़ेद धन : बड़ी दूर की कौड़ी लाए हो फिर भी दो कौड़ी का उदाहरण है।असल साहित्य तो हमने ही पढ़ा है।तुमने वह भजन अवश्य सुना होगा,’पायो जी मैंने राम रतन धन पायो‘।इसमें जिस रतन धन की बात की गई है,वह मैं ही हूँ।खाते में अदृश्य होकर भी मैं उसमें उपस्थित रहता हूँ।कभी खर्च नहीं होता क्योंकि मैं शून्य होता हूँ।

काला धन : तुम्हारे अध्यात्म और साहित्य की पूछ वैसे भी नहीं है।इस समय सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में बस राजनीति का बोलबाला है और मैं उसकी पतवार हूँ।तुम तो किसी छोटी-मोटी लहर की तरह हो,क्षण भर में ही लुप्त हो जाते हो।मेरे आगे तुम्हारी क्या बिसात ?

सफ़ेद धन : तुम्हारा कितना भी नाम हो पर है तो बदनाम ही।अभी तुमने ही कहा है कि काला धन अंततः सफ़ेद हो जाता है,इसका मतलब साफ़ है कि धन का अंतिम रूप मुझमें ही निहित है।तुम्हें भी मजबूरन हमारा रूप धारण करना पड़ता है।रही बात लहर की,तो मत भूलो कि लहरें बड़ी बड़ी नौकाओं को पतवार सहित डुबो देती हैं।इसलिए बाहर निकल आये हो तो मुझ जैसा बनकर रहो !

काला धन : ऐसा कभी नहीं हो सकता।मेरा रूप ही मेरी पहचान है।बड़ी कुर्सी और बड़े पद का रास्ता मुझसे ही होकर जाता है।मेरी बैलेंस-शीट जितनी दिखती है,उससे भी कई गुना ज्यादा छिपी रहती है।पूरी दुनिया का कारोबार मेरे कन्धों पर है।तुम्हारी ‘जन-धन टाइप’ फीलिंग से देश को केवल अनुदान मिल सकता है,फ़ोर्ब्स की अमीर सूची में नाम नहीं।

सफ़ेद धन : इतना सब होते हुए भी समाज में तुम्हें भली निगाह से नहीं देखा जाता है।आज भी तुम बड़ी मुश्किल से बाहर निकले हो ।

काला धन : यह तुम्हारी ग़लतफ़हमी है।समाज के हर क्षेत्र में मेरा नाम है,तुम्हारी तो कोई पूछ ही नहीं है।काले कारनामे और काली करतूत से लेकर मुँह काला करने तक सर्वत्र हमारी ही प्रतिभा है।ले-देकर एक सफेदपोश नाम है,उसके अंदर भी मैं ही रहता हूँ।तुम हो कहाँ मित्र ?

इतना सुनते ही सफ़ेद धन का चेहरा सफ़ेद पड़ गया।वह जल्द से जल्द अपने असल ठिकाने ‘जन-धन’ की तलाश में जुट गया।


©संतोष त्रिवेदी
नवभारत टाइम्स में प्रकाशित।

रविवार, 26 अक्तूबर 2014

दीवाली पर दो लघुकथाएँ !


ग़लतफ़हमी !
आले पर रखा दीया जल कम इतरा ज़्यादा रहा था।बाती को यह बात नागवार गुजर रही थी।उसने दीये के कान में धीरे से कहा-रोशनी का सारा श्रेय तुम ले रहे हो इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हीं रोशनी दे रहे हो।मैं लगातार जल रही हूँ,अँधेरा इसलिये भाग गया है।मेरे बिना तुम केवल माटी के पुतले हो और कुछ नहीं।दीया कुछ कहता,इसके पहले तेल तपाक से बोल पड़ा-जल तो मैं रहा हूँ।तुम दोनों मेरे समाप्त होते ही कूड़े के ढेर में डाल दिए जाओगे।रोशनी का सारा खेल तभी तक है जब तक हम सबमें नेह है और वह मैं हूँ।
तेल की बात सुनकर दीया और बाती सन्न रह गए पर रोशनी से न रहा गया।वह बोली--तुम सब को ग़लतफ़हमी है।दरअसल,हम सबके पीछे अँधेरे का हाथ है।सोचिए,अँधेरा न आता तो हम सभी की ज़रूरत ही क्या थी ? शुक्र मनाओ कि वह अभी तक क़ायम है।वह आता भी तभी है जब हम सब अलग-थलग पड़ जाते हैं।
इतना सुनते ही बाती दीये से नेह के साथ लिपट गई और अँधेरा दूर किसी कोने में पसर गया।
अमावस और पूनम !
अमावस ने पूनम से चुहल करते हुए कहा-तुम पूरा चाँद लेकर भी फीकी और उजाड़-सी दिखती हो।मुझे देखो,मेरा कितना श्रृंगार किया गया है।आतिशबाजियों से लोग जश्न मना रहे हैं।क्या ऐसा तुम्हें कभी नसीब होता है ?
पूनम ने लजाते,सकुचाते हुए जवाब दिया-मैं हमेशा यकसा रहती हूँ।मेरा उजाला अमीर-गरीब में भेद नहीं करता।कृत्रिमता से मेरा रंचमात्र लगाव नहीं है।मुझे पाकर प्रेमी चहक उठते हैं,शीतलता बरस-बरस उठती है,जबकि चोर-उचक्के तुम्हारा इंतज़ार करते हैं,अतरे-कोने ढूँढ़ते हैं।
अमावस ने फिर भी हार नहीं मानी।कहने लगी--लेकिन अँधेरा मेरा भाई है।उसका विस्तार बहुत व्यापक है।तुम तो केवल बाहर के अँधेरे को दूर करती हो पर अंदर के अँधेरे...?
पूनम ने उसकी जिज्ञासा शांत करते हुए कहा-अँधेरा हमेशा डरा-डरा रहता है।वह काले कारनामों को मौका देता है।अँधेरा कभी भी दिल खोलकर सबके सामने नहीं आता,जबकि उजाले को किसी से छुपने की ज़रूरत नहीं रहती।यहाँ तक कि तुम भी उजाले के आने पर अँधेरे को बचा नहीं पाती।
अमावस निरुत्तर हो गई।वह आतिशबाजी के शोर में डूबती इसके पहले ही पूनम आगे बढ़ गई थी।

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

उल्लू-पूजन का संकल्प !

दीवाली है और मुझे उल्लुओं की बहुत याद आ रही है।सुनते हैं कि इस समय लोग लक्ष्मी जी को खूब याद करते हैं।उनका सबसे बड़ा भगत वही माना जाता है जो दीवाली पर बड़ी खरीदारी करता है।इससे लक्ष्मी बहुत प्रसन्न होती हैं।दो दिन पहले धनतेरस पर भी लोग बाज़ारों में टूट पड़े थे।उस दिन बर्तन लेना शुभ माना गया है पर जो लोग सोना लेते हैं,उन पर पूरे बरस धन बरसता है।इस तरह लक्ष्मी का असली पूजन वही कर पाता है जिस पर उनकी अकूत कृपा हो।

लक्ष्मी जी कभी भी मेरे काबू में नहीं आईं।जिस काम में हाथ डालता हूँ,नुकसान ही उठाता हूँ।श्रीमती जी के कहने पर कई ज्योतिषियों को भी अपना हाथ दिखाया पर सबकी मिली-जुली राय यही रही कि पैसा टिकने का संयोग मेरी हथेली में नहीं है।इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मुझे  देखने को तब मिला,जब मेरी जेब में बचा दस रूपये का आखिरी नोट तोते के द्वारा भविष्य बताने वाले सर्वज्ञ ने धरा लिया।इसलिए लक्ष्मी जी को अपने प्रतिकूल पाकर मैं उनकी सवारी उल्लू को साधने में जुट गया हूँ।सोचता हूँ कि यदि मुझ पर एक बार लक्ष्मी जी के वाहन से किरपा आनी शुरू हो गई तो देर-सबेर लक्ष्मी जी भी बड़े अफसर की तरह मुझ पर निहाल हो जाएँगी।मेरे लिए उल्लू जी का पूजन कहीं अधिक सुगम होगा क्योंकि अभी इस सेक्टर में कम्पटीशन ज़्यादा नहीं है।
जिस समय मैं उल्लू-पूजन का मंसूबा बना रहा हूँ,ठीक तभी टीवी पर विज्ञापन प्रकट होता है,’नो उल्लू बनाविंग’।ऐसे में वह विज्ञापन मेरा मन फिर से भरमाने लगता है।उल्लुओं के खिलाफ़ यह कैसी साज़िश हो रही है और कौन कर रहा है ? ले-देकर उल्लू बनने का एक संयोग बनता दिख रहा था,वह भी अधर में लटकता दीखता है,वैसे ही जैसे उल्लू लटका रहता है।कहते हैं कि उल्लू को दिन में नहीं रात में दिखाई देता है।शायद इसीलिए रात की कालिमा के बीच अधिकतर घरों में लक्ष्मी-प्रवेश होता है।कुछ नादान इस कथा पर पूर्ण आस्था के साथ भरोसा करते हैं और दीवाली की रात अपने घरों के दरवाजे बंद नहीं करते।ऐसे में खुले दरवाज़े पाकर लक्ष्मी जी के बजाय लक्ष्मी-सेवक घर की सफाई कर जाते हैं पर लक्ष्मी जी को पाने के लिए इतना जोखिम तो बनता है।
दुनिया भले ही लक्ष्मी-पूजन में व्यस्त हो पर मुझ जैसे की पहुँच सीधे लक्ष्मी जी तक नहीं है।इसलिए अपन उल्लू-पूजन की विधि ढूँढने में लगे हुए हैं।मुझे पूरा विश्वास है कि यदि पूरे विधि-विधान से उल्लू-पूजन किया जाय तो बड़ी संख्या में घूम रहे उल्लुओं को भी इस दीवाली में उनका असली भगत मिल जाय।

शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

असल सफाई तो कहीं और है !

सफाई अभियान अपने चरम पर पहुँच चुका है।पहले चरण में सरकार ने अपने हाथ में डिज़ाइनर झाड़ू पकड़ कर सड़कों की सफाई की थी,वहीँ अब दूसरे चरण में वह विपक्षी नेताओं के हाथ में झाड़ू पकड़ाकर दलों की सफाई करने में जुट गई है।सड़क का कूड़ा सफाई के दिन टेलीविज़न कैमरों और अखबार के पन्नों पर चमका और अगले दिन से फिर वहीँ स्थाई रूप से जम गया।कूड़ा इसीलिए कूड़ा है क्योंकि वह विकास में यकीन नहीं करता,आगे नहीं बढ़ता पर सरकार तो गतिमान है और विकास के प्रति समर्पित भी।सो अगले दिन उसने झाड़ू का मुँह सड़कों की ओर से दलों की ओर मोड़ दिया।

विपक्ष के जिन नेताओं के हाथ में झाड़ू थमाई गई है,वे अब सफाई के दूत बन गए हैं।उन्हें अपने ही दल के साथ-साथ स्वयं के भी साफ़ हो जाने का अंदेशा था,इसलिए समय रहते उन्होंने सरकार की झाड़ू पकड़ ली ।जिनके हाथ में आज झाड़ू है,उन्हें पूरी उम्मीद है कि कल यही सरकार उन्हें कुर्सी भी पकड़ा देगी।झाड़ू से कुर्सी तक का रास्ता वैसे भी विशुद्ध गाँधीवादी है और इस पर कोई प्रगतिशील उँगली भी नहीं उठा सकता।इससे सरकार ने उन्हें शर्मसार होने से भी बचा लिया है।वैसे भी अब नाम के बचे विपक्ष में वे उसमें बचे भी रहते तो क्या कर लेते ?

सरकार ने गाँधी के सफाई-मन्त्र को बखूबी समझा है,यह आने वाले दिनों में और साफ़ हो जायेगा।उसने एक तीर से कई निशाने साधे हैं।जनता के मन में यह बात साफ़ हो गई है कि सरकार सफाई-पसंद है और विपक्ष बेवजह इसे अपनी सफाई समझ रहा है।सरकार को ऐसी ही सादगी पसंद है जिसमें उसके सद्प्रयासों से कूड़े को रि-साइकिल किया जा रहा है ।इससे सामाजिक जीवन में कूड़े की कमी तो होगी ही,सरकार के टिके रहने को और आधार मिल जायेगा।इस नाते झाड़ू जादू की छड़ी जैसा काम कर रही है।देखते ही देखते वह कूड़े-कचरे को उपयोगी बना रही है।विपक्ष घबराया हुआ है कि पता नहीं उसका कौन-सा नेता कब झाड़ू पकड़ ले ?

चुनावों में जनता की झाड़ू से साफ़ हो चुके लोग अब सरकार की झाड़ू से मार खा रहे हैं।चुके हुए और कुर्सी से चूके नेताओं के लिए यह स्वर्णिम अवसर की तरह है।वे आज सफाई के नवरत्न बन रहे हैं तो कल सत्ता के रत्न भी बनेंगे।इस लिहाज़ से सरकार का सफाई-अभियान अपने लक्ष्य को पूरा करने में कामयाब होता दिख रहा है।किसी को सफाई के उद्देश्यों पर संदेह हो तो होता रहे।सड़कें जस की तस कचरे से भरी हों तो हों,कहीं तो सफ़ाई हो रही है !

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

ऑनलाइन शॉपिंग और हम!

दीवाली से पहले ही ऑनलाइन बाज़ार गुलज़ार है।कुछ कम्पनियों ने खरीदारों में ऐसा क्रेज़ पैदा कर दिया है कि लगता है कि अगर वो यह मौका मिस कर गए तो बड़े नुकसान में रहने वाले हैं।मेगा-सेल,दीवाली-बम्पर,लूट सको तो लूट,सेल-धमाका,लूट-वीकली औरबिग बिलियन डेजैसे ऑफर पढ़ते ही दिमाग झनझना रहा है।पर जो मजाडेकी सेल में आता है,वीकली सेल में नहीं।एक दिन के लिए सेल में आने वाली चीजें ऐसा इम्प्रेशन देती हैं कि यदि उनके साथ थोड़ी भी ढिलाई बरती गई तो वे आउट ऑफ़ स्टॉक का माला पहन लेंगी।सो चतुर कस्टमर ऐसे आइटम बिना ज्यादा वक्त गंवाए हथिया लेते हैं ।

अखबार में एक दिनी-सेल को देखकर हमारी श्रीमती जी ने हमें भी उकसाया-प्रधानमंत्री जी ने भी कहा है कि हम माउस-माउस खेलने वाले देश हैं पर आप हैं कि निठल्ले बने साँप-सीढ़ी खेलते रहते हैं।दीवाली का कुछ तो ख़याल करो,पड़ोसी भी क्या सोचेंगे? हमारी सहेली ने कल ही फेसबुक में बताया कि उसने डेढ़ सौ रूपये में एक बढ़िया डिनर-सेट खरीदा है।न चाहते हुए भी उसकी पोस्ट को लाइक करना पड़ा।हम श्रीमती जी की बातों से थोड़ा उत्तेजित हुए और कम्प्यूटर के सामने जाकर दंडवत हो गए।जब तक हम कुछ सोचते-समझते,एक रूपये वाला मोबाइल आउट ऑफ़ स्टॉक हो गया।हमने दूसरे आइटम पर नज़रें जमानी शुरू की।सामने छह सौ वाला पेन-ड्राइव केवल ९९ रूपये में मिल रहा था।हमने बिना अतिरिक्त सोचा-बिचारी के उस आइटम पर माउस क्लिक कर दिया।अचानक सर्वर-एरर का सन्देश दिखाई देने लगा।बगल में खड़े बच्चे ताना मारने लगे- क्या पापा,आपसे ९९ रूपये की एक पेन-ड्राइव भी नहीं खरीदी जाती!’ यह सुनकर मेरा मुँह सुस्त इंटरनेट-कनेक्शन की तरह लटक गया।

अगले दिन पार्क में गुप्ता जी मिले,बड़े खुश दिख रहे थे।कहने लगे-कल बड़े सस्ते जूते मार दिए ।शुरू में तो लग रहा था कि तत्काल-टिकट की तरह जूते भी हाथ से निकल जाएंगे,पर दो घंटे की मशक्कत के बाद तीन हज़ार रूपये बचा लिए ।हमने उनसे जूतों का ब्रांड और उनका किफ़ायती रेट पूछा तो उन्होंने बताया कि ग्यारह हज़ार के जूते केवल आठ हज़ार में,डिलीवरी चार्ज फ्री है सो अलग।जब मैंने उन्हें बताया कि इन्हीं जूतों को एक दिन पहले यही कम्पनी सात हज़ार में बेच रही थी,गुप्ता जी ने जूतों की डिलीवरी का इंतजार किये बिना ही माथा पीट लिया।

पहले बचत-प्रेमी लोग त्यौहारी-सीज़न में बाज़ार ही नहीं जाते थे,मारे डर के घर में घुसे रहते थे।बाज़ार से सामान लाने में पैसे खर्चने का जोखिम तो रहता ही था,खतरा रुतबे के कम होने का भी था।झोले का साइज़ देखकर सारी पोल-पट्टी खुल जाती थी ।ऑनलाइन शॉपिंग की खूबी है कि कोई जान ही नहीं पाता कि अगले ने कितने का आर्डर दिया है ।शॉपिंग के बाद यदि कोई सोशल मीडिया पर अपडेट करता है तो उसकी स्मार्टनेस पर दूसरे रश्क करते हैं और ढेरों लाइक्स और कमेंट्स मिलते हैं सो अलग ।

हम भी अब श्रीमती जी के नए बाजारी-गुर से सहमत लगते हैं।बस एक मौके की तलाश में हूँ ।अगली बार जब भी कोईबिग बिलियन डेयासुपर सेल डेजैसा अवसर हाथ आया,केवल माउस पकड़े ही नहीं बैठा रहूँगा ।वह माल चाइनीज़ हो या अमेरिकन,उसकी हमें ज़रूरत हो या नहीं,दीवाली-शॉपिंग में जो भी मिल जाएगा,भागते भूत की लँगोटी समझकर रख लूँगा।आखिर अपन की भी कोई इज्ज़त है कि नहीं !




गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

अब कक्षाओं से ही ‘किरपा’ बरसेगी !


यह कक्षाओं में पहुँचने का मौसम है।शिक्षक-दिवस पर देश के सभी बच्चों की कक्षा ली गई ,गाँधी-जयंती पर सफ़ाई की क्लास लगी.इसके बाद दूरदर्शन की कक्षा से भागवत-कथा सुनाई गई।खेत में काम करता हुआ किसान तो उस समय बिलकुल बौरा ही गया जब उससे प्रधानमंत्री जी ने रेडियो से अपने ‘मन की बात’ कही ।अब तो हर दूसरे-तीसरे दिन इतनी कक्षाएं लग रही हैं कि आम आदमी और कर्मचारी अगली कक्षा की तैयारी में ही लगे हुए हैं । उन्हें इस सबके बीच मंहगाई और भ्रष्टाचार कहीं नज़र नहीं आ रहे,गोया ‘स्वच्छ भारत’ अभियान से घबराकर वे भी कहीं लुक गए हों !

कक्षाओं की इस श्रृंखला में सबसे उल्लेखनीय ‘मन की बात’ वाली कक्षा है।जो लोग यह सोचकर दुखी हो रहे थे कि ये कक्षाएं बस थोड़े दिनों के लिए हैं,उसके बाद उनका वक्त कैसे गुजरेगा,उनके लिए खुशखबरी है।प्रधानमंत्री जी ने स्पष्ट कर दिया है कि ‘मन की बात’ को वह नियमित रूप से कहते-बताते रहेंगे।इससे बहुत सारे फायदे हैं।अगर वो ‘प्रेस से मिलिए’ के ज़रिये अपनी बात रखें तो उन्हें अपनी बात के लिए कम मौका मिलेगा।कुछ सिरफिरे पत्रकार बात को कहीं और मोड़ सकते हैं,इससे विषयान्तर होने का अंदेशा बना रहेगा।दूसरी बात, वे जनता से होने वाले वाद-संवाद को विवाद का विषय नहीं बनाना चाहते।सबसे बड़ा कारण तो यह कि यदि जनता के पास प्रवचनों से ही नियमित रूप से ‘किरपा’ आने लग रही है,तो क्यों उन्हें उनके भौतिक दु:खों को याद करने दिया जाए।शायद इसीलिए जनता की सुविधा का ख्याल रखते हुए टीवी और रेडियो का भरपूर उपयोग किया जा रहा है।

खबर तो यह भी है कि गाँव के किसान रेडियो के इर्द-गिर्द ही बैठे रहते हैं।पता नहीं कब प्रधानमंत्री जी उनसे अपने ‘मन की बात’ करने लगें।वे भले अपने गाँव के सरपंच या इलाके के विधायक और सांसद के दर्शन-लाभ से वंचित हों,पर प्रधानमंत्री जी लगातार इसकी कमी पूरा कर रहे हैं.यह उनके लिए बहुत बड़ी बात है।किसानों को यह भी उम्मीद है कि आज नहीं तो कल प्रधानमंत्री जी उनके भी मन की बात सुनेंगे।फ़िलहाल,इत्ते कम समय में इतना कुछ हो पा रहा है,इसी से सब मुदित हैं।

इन कक्षाओं पर शोर मचाने वाले भी कुछ लोग हैं।उन्हें यह नहीं दिख रहा है कि जब नैतिक,आध्यात्मिक सत्संग से ही सारी समस्याएँ हल हो रही हैं,टीवी चैनल और रेडियो ज़मीनी काम करने में जुटे हैं,तो सरकार क्योंकर और कुछ करे ?चुपचाप काम करते रहने में वह ग्लैमर–युक्त आनंद कहाँ ! आखिर,करने से ज़्यादा काम करते हुए और मौन रहने से ज़्यादा बोलते हुए दिखना ही तो सर्वोत्तम अभीष्ट है।

लड्डू दुखी हैं !

लड्डू दुखी हैं।उनका घोर अपमान हुआ है।पेट में उतरने से पहले ही हलक में फँस गए।जीभ ने मिठास का पूरा स्वाद लिया भी न था कि कसैलापन हावी हो गया।नेता जी को जमानत मिलते-मिलते रह गई।यह वही बात हुई कि सामने छप्पन व्यंजनों की थाली रखी हो और उस पर अचानक छिपकली गिर जाय।भक्तों के दुःख से लड्डुओं का दुःख कहीं बड़ा है।वे बड़ी शान और आन से तुला पर तौलकर आये थे पर मुँह और पेट के रास्ते में ही कहीं अटक गए।उन्हें इस पर भी संतोष नहीं हो रहा है कि वे बिक कर भी बचे रह गए।अब उनके सुख की जमानत कौन लेगा ?

नेता कोई हल्का-फुल्का नहीं है,अपने हल्के का मुखिया रहा है।जनसेवा के नाम उसका पूरा जीवन समर्पित है,इस बात की गवाही उसके पास हजारों जोड़ी जूते-चप्पल देते हैं।वे लिए इसीलिए गए हैं कि समाजसेवा में घिस सकें,पर उन्हें इस पुनीत कार्य के लिए भी रोक दिया गया ।कपड़ों से ठंसी अलमारियां उदास हैं।उन्हें हवा-पानी के लिए भी खोलना गुनाह है इस वक्त।कपड़ों का हाल उससे भी बुरा है।वे अपने मालिक की तरह कारागार में बंद हैं।लगता यही है कि अगर कपड़ों को जल्द ही पैरोल पर नहीं छोड़ा गया तो वे पहने जाने का अपना गुण ही छोड़ देंगे।

सबसे बुरा हाल भक्तों का है।वे तो ठीक से जी भी नहीं पा रहे हैं।वे अपने बाल-बच्चों की सुध भुलाकर नेता जी के प्यार में अपनी जिंदगी हार रहे हैं।बड़ी मुश्किल से पेट में कुछ जाने की सम्भावना बनी थी पर वो भी नसीब नहीं हुआ।नेता जी के कारागार को पवित्र करने के बाद उस पवित्र-आत्मा से मिलने का दुर्लभ संयोग भी हाथ से छिटक गया।भक्त दिशाहीन और बहके हुए हैं। वे नेता-नशा के चंगुल में फंसकर भी आनंदित हैं।उनका सुख गिरवी पड़ा है।उसे कौन छुड़ाएगा ?

नेता जी भले ही कारागार में हैं पर उनका मन अपने सिंहासन के ही इर्द-गिर्द मंडरा रहा है।वे गिद्धों से उसको बचाना चाह रहे हैं।उनके रहते कोई और सिंहासन पर मंडराए,यह कैसे हो सकता है ? कारागार जाकर भी नेता जी सौ-टंच सोने के बने रहते हैं,यह उनको ईश्वरीय देन है।कोई भी दाग़ उनसे लिपटने को तैयार नहीं है।नेता जी पर धब्बा लगने के बजाय वह खुद को ही दागी बना लेता है।इत्ते कम का दाग़ होने पर वह स्वयं शर्मसार है।आइन्दा किसी नेता के पल्ले नहीं पड़ेगा।दाग़-धब्बे छोट-मोटे चोरों और उठाईगीरों के लिए ही मुफ़ीद होते हैं।इसकी गारंटी आम आदमी लेता है।

© संतोष त्रिवेदी
डेली न्यूज, जयपुर में।

सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

हमको मौका नहीं मिला वरना....!


जिंदगी में कई बार ख़ूबसूरत मौके मिलते हैं पर वे प्रायः देर से पकड़ में आते हैं।जब तक हम इन मौकों को समझ पाते हैं ,तब तक बाज़ी हमारे हाथ से निकल चुकी होती है या पलट जाती है ।मौके की मार की वजह से ही दूसरे लोग आज जिस मुकाम पर खड़े हैं,हमें वहां होना चाहिए था।मौके पर चौका न मार पाने के कारण हम अपनी सही जगह पर कभी पहुँच नहीं पाए।कुछ ऐसे नसीब वाले हैं जो पैदा हुए तो सीधे मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर,जबकि हमें आज तलक सलीके से स्टील का चम्मच तक पकड़ना नहीं आ पाया।इस दशा में हमारा भाग्य भी कितना संघर्ष करता ऐसे मौकेबाज़ों के सामने ?हमारी जिंदगी की शुरुआत ही सही मौका न मिलने से हुई।


क्रिकेट के खेल में जब भी रोमांच चरम पर पहुँचता है और हमारे बल्लेबाज एक-दो रन बनाने में चूक जाते हैं,ऐसे में हमें फिर मौके की मार याद आती है।उस समय हमें यही लगता है कि यदि बल्लेबाज की जगह हम होते तो दो गेंदों में पाँच क्या बारह रन बना डालते।बस उन्हें दो बार ही तो सीमारेखा के पार भेजना होता,पर क्या करें,हमें स्कूल की टीम में ही कभी मौका नहीं मिला।इसका सारा दोष हमारे गाँव के ही खेल अध्यापक बिंदाचरन जी का रहा,जो नहीं चाहते थे कि उनके गाँव से एक और प्रतिभा दुनिया के सामने आए।सोचिये,उस समय हमें मौका मिला होता तो आज अतिरिक्त खिलाड़ी की तरह हम ड्रेसिंग रूम में न बैठे होते।


मौक़ा तो हमें तब भी नहीं मिल पाया था ,जब छात्र संघ के चुनाव में हम मात्र पाँच हज़ार वोटों से हार गए थे।उन पाँच हज़ार लोगों ने यदि हमें मौका दिया होता तो आज हम भी देश सेवा कर रहे होते |उस चुनाव में हमारे विरुद्ध जीतने वाले रमई पहलवान जी आज खेल मंत्रालय को भलीभाँति संभाल रहे हैं।वे खुद खिलाड़ी नहीं बन पाए तो क्या, उन्हें चुन रहे हैं।काश,हम भी आज अगली ओलम्पिक टीम तैयार कर रहे होते।हम देश को कुश्ती में एक ओलम्पिक स्वर्ण पदक और दिला सकते थे क्योंकि हमारी बुआ का लड़का,जो गाँव के दंगल में झूरी पहलवान को कई बार पटकनी दे चुका है ,कुश्ती में देश का प्रतिनिधित्व कर रहा होता ।पर जब हमारा ही मौका काट दिया गया तो उसे क्योंकर मिलता !


जब किसी फिल्म को सौ-करोड़ी होते देखता हूँ तब भी हमारा मन हुलस कर रह जाता है।अगर सिने-स्टार खोज प्रतियोगिता हमारे ज़माने में शुरू हुई होती तो आज हम भी आमिर खान की तरह ‘पीके’ पड़े होते और हमारी फ़िल्में कभी भी बॉक्स-ऑफिस में औंधे मुँह न गिरतीं।कुसूर सिर्फ़ इतना रहा कि किसी लायक डायरेक्टर की मुई नज़र ही हम पर न पड़ी और हम बस सिनेमा की टिकटें ही ब्लैक करते रह गए।


मौकों का हमारे प्रति यह असहयोगपूर्ण रवैया यहीं खत्म नहीं हुआ।स्कूली पढ़ाई के दौरान हम जिस साँवली लड़की को अपना दिल दे बैठे थे उसे कभी एक कागज़ का छोटा-सा पुर्जा न थमा पाए।हर बार कोई न कोई हम दोनों के बीच बाधा बनकर खड़ा हो गया।स्कूल में हमारे ही साथियों ने कई मौकों को ध्वस्त किया तो स्कूल के बाहर हमारे अपनों ने।एक बार हम अपनी खिड़की से अपने प्रेम को कागज के गोले में लपेटकर उस तक पहुँचाने में कामयाब होने ही वाले थे कि तभी न जाने कहाँ से पिताजी आ गए।कागज का गोला सीधा उनकी नाक को निशाना बनाता हुआ धराशायी हो गया और इसके बाद पिता जी ने हमारे संग जमकर अभ्यास मैच खेला था।उस दिन के बाद से हमने ड्रोन के द्वारा प्रेम-पत्र भेजने की मुराद हमेशा के लिए मुल्तवी कर दी।थोड़ा होश सम्भालने पर वही प्रेम शायरी बनकर निकल पड़ा।हाँ,इस प्रक्रिया में कई टन कागज जरूर शहीद हुआ ।इस सबका जिम्मेदार यही इकलौता मौका है।सुनते हैं कि हमारे स्कूल वाली वो लड़की आज एक अफ़सर की बीवी बन गई है और हम अभी भी किसी मौके की तलाश में पन्द्रह अगस्त के अलावा भी पतंग उड़ाने छत पर चले जाते हैं।


हमने भले ही कई मौकों को अपनी जिंदगी में खोया हो,पर यह बात भी उतनी ही सही है कि उन नामुराद मौकों ने भी हमें खोया है।अगर एक भी मौका हमें मिलता तो आज वह भी कितना ख़ूबसूरत होता !




रविवार, 5 अक्तूबर 2014

सफाई -अभियान

1)


नेता जी :कल की तैयारी हो गई है?


चेला :जी पक्की। दस ठो झाड़ू और बीस ठो कैमरों का इंतजाम हो गया है।

नेता :गुड।और मीडिया का क्या खबर है? यह इवेंट सुपरहिट होना चाहिए।

चेला :खबर तो आपही ना बनाएँगे ! यहिके बरे चंदू चौरसिया और फोकट शर्मा अपना-अपना टीम लेके साँझै से जुट गए हैं। कूड़ा-करकट को ढूंढ ढूँढकर उसका इंटरभू ले रहे हैं। कल के लिए प्रैक्टिस भी तो करनी है।

नेता :पर देखना, झाडू देर तक पकड़ने की आदत नहीं है।कचरा ज्यादा तो नहीं है?

चेला :इसका भी चौचक इंतजाम हो गया है। तीन दिन से मार सफाई की जा रही है। आपके आने से पहिले दो-चार कागज वहीं छोड़ दिया जाएगा।जइसे ही आपका भीडियो तैयार हुआ , हमारे बंदे झाड़ू थाम लेंगे।


2)


सफाई को देखते ही कचरा भाग खड़ा हुआ। बगल में खड़ा भ्रष्टाचार भी रास्ता ढूँढ़ने लगा,तभी सफाई ने प्यार से उसका कंधा थपथपाया और बोली, 'यार, तुमने तो सीरियसली ले लिया। हमारा, तुम्हारा तो जनम-जनम का साथ है। तुम कचरा थोड़ी हो,हमारे सरताज हो।तुम्हारी जगह डस्टबिन में नहीं ,फाइलों में है प्राणनाथ ।'


गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

बुद्धिजीवी होने के ख़तरे!

इस देश को यदि कोई खतरा है तो वह बुद्धिजीवियों से ही है। अकल'मंद' इस मामले में पूरी तरह से निर्दोष ठहरते हैं।वे तुलसीदास बाबा की चौपाई ‘कोउ नृप होय हमहिं का हानी’ का स्थायी जाप करके कई फ़ौरी संकटों से निजात पा सकते हैं ।बुद्धिजीवी को सामने दिखती हुई चीज़ भी नहीं दिखाई देती,जबकि अकल 'मंद' इस मामले में भी उनसे आगे होते हैं। वे इस सबके आर-पार देख लेते है।बुद्धिजीवी आस-पास के ध्वनि-संकेत नहीं पकड़ पाते जबकि इसके उलट वे सात समंदर पार से भी वास्तविक सन्देश ग्रहण करने में दक्ष होते हैं।


पिछले दिनों देश के अंदर और बाहर क्या-कुछ नहीं हुआ,फिर भी नकचढ़े बुद्धिजीवियों को न कुछ दिखता है न सुनता है।उन्हें न तो जापान से बजाई गई ढोल सुनाई देती है और न ही अमरीका से ‘रॉक-स्टार’ की स्टार-परफोर्मेंस।उन्हें मैडीसन स्क्वायर पर ‘मैड’ हो रही जनता भी नहीं दिखती और न ही अपने चैनल-वीरों का कदमताल करता डांडिया-नृत्य।ये रतौंधी के शिकार वे लोग हैं जिन्हें मंगलयान का ‘अच्छे दिनों’ में अपनी कक्षा में प्रवेश भी नहीं दिखता ।उन्हें तब भी यही दिख रहा था कि देश के हजारों स्कूलों में मास्टर अपनी कक्षा में नहीं पहुँच पा रहे हैं और यह भी कि विद्यार्थी अपनी-अपनी कक्षा छोड़कर भाग रहे हैं।यह निहायत ग़लत नम्बर का चश्मा है,जिसे बुद्धिजीवियों ने खामखाँ अपनी बड़ी नाक पर चढ़ा रखा है।


देश को आगे बढ़ाने में गाँधी जी का हाथ माना जाता रहा है पर यह सब इत्ती आसानी से मुमकिन नहीं हुआ।इसके लिए उनके अनुयायियों को स्वयं दल-बल सहित आगे बढ़ना पड़ा।इतना बढ़ जाने के बाद अभी भी गाँधी जी में इतना कुछ बचा है जिसके सहारे कई पीढ़ियाँ अपना मुस्तकबिल सँवार सकती हैं।अब गाँधी जी के असली विचारों को धरातल पर उतारने के लिए उनके धुर-विरोधी भी कृत-संकल्प हैं।इसके लिए पूरी सरकार सड़क पर झाडू लेकर उतर आई है पर यहाँ भी बुद्धिजीवी टाँग अड़ा रहे हैं।उनको केवल कैमरे के फ़्लैश दिख रहे हैं,ज़मीन का कचरा नहीं । उनसे उस झाड़ू का गौरव भी सहन नहीं होता ,जो मंत्री जी के कर-कमलों में पहुँचकर धन्य हो रही है;वरना किसे नहीं पता कि बिना झाड़ू लिए ही देश के खजाने को कितनी सफाई से साफ़ किया जा सकता है।गाँधी जी का जोर सत्य और अहिंसा के ऊपर भी था पर विकास बलिदान चाहता है,इसलिए उन दोनों को शहीद होना पड़ा। उनके जन्मदिन को सफाई के बहाने बड़ी सफाई से हथियाकर गाँधी की अंतिम पूँजी बचाई जा रही है पर बुद्धिजीवी इसे भी पाखंड समझ रहे हैं।पापी कहीं के !


इन सबसे भले तो वे अकल'मंद' हैं,जो मंदी का शिकार होकर भी तेज सोचते हैं।बुद्धिजीवियों को रेहड़ीवाले की ‘आसमानी-आलू’ की आवाज़ तो सुनाई दे रही है पर मैडीसन स्क्वायर से आती गड़गड़ाहट नहीं।वे न तो स्वयं मस्त रहते हैं और न ही खाए-अघाए लोगों को रहने देते हैं।ऐसे लोगों की जगह मैडीसन स्क्वायर नहीं जंतर-मंतर है,जहाँ पर वे लोकतंत्र के नाम पर रोज़ एक मोमबत्ती जला सकते हैं।इससे उनके दिल को भी गहरा सुकून मिलेगा ।


धुंध भरे दिन

इस बार ठंड ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी कि राजधानी ने काला कंबल ओढ़ लिया।वह पहले कूड़े के पहाड़ों के लिए जानी जाती थी...