रविवार, 19 फ़रवरी 2017

परसाईं-प्रेमी से मुलाक़ात !

वे परसाईं जी के सबसे बड़े प्रेमी हैं और परसाईं-प्रसाद बाँटने वाले इकलौते वितरक भी।जब भी वक्तव्य देते हैं,परसाईं से नीचे नहीं उतरते।आशय यह कि परसाईं पूरी तरह उनके मुँह लग चुके हैं।इस बात को वे कई बार साबित भी कर चुके हैं।उनके पास परसाईं के हाथ की लिखी एक चिट हमने भी देखी है।वे उसे हमेशा अपने पास रखते हैं।जब भी किसी विमर्श में हल्के पड़ने लगते हैं,चिट आगे कर देते हैं।इससे उनके विरोधी चित्त हो जाते हैं।परसाईं के नाम से शहर में जितनी गोष्ठियाँ होती हैं,उनके व्याख्यान की गठरी तैयार रहती है।वे बस इत्ता करते हैं कि नियत समय पर जाकर वही गठरी श्रोताओं के सामने पटक देते हैं।श्रोता पहले से ही अधमरे होते हैं।कोई प्रतिकार नहीं कर पाते।श्रद्धाभाव से उनसे धुल लेने में ही भलाई समझते हैं।उनके पास परसाईं नाम की ऐसी अचूक मिसाइल है,जिससे वह कोई भी सभा ध्वस्त कर देते हैं।

इस बार सभा से पहले हमें उनके दर्शन करने का सौभाग्य मिल गया।समकालीन व्यंग्य-लेखकों का एक गैंग पहले से ही उनको घेरे में लिए हुए था।हमें परसाईं तक पहुँचना था,इसलिए उनसे मिलना ज़रूरी था।किसी तरह उनके बनाए चक्रव्यूह को भेदकर हम उनके चरणों तक पहुँच गए।उस समय भी वे पारम्परिक परसाईं-मुद्रा में बैठे थे।नई पीढ़ी के होनहारों को तीस साल पहले का एक संस्मरण सुना रहे थे।हमें देखते ही उनका आशीर्वादी-हस्त स्वतः उठ गया।हमने भी माहौल की नजाकत समझते हुए अपने नाकारा कर उनके चरणों में समर्पित कर दिए।

वे मुस्कुराने लगे।हमने उनकी मुस्कराहट को साहित्यिक-प्रेम समझकर आत्मसात कर लिया।उस समय हमारे पास और कोई चारा नहीं था और न ही आसपास दूसरा वरिष्ठ कि इसका बुरा मानता।हमें अपने कब्जे में पाते ही वे शुरू हो गए-तुमसे बड़ी निराशा हुई है।नई पीढ़ी इसी तरह करती रही तो व्यंग्य की दशा स्थिर ही रहनी है।तुम लोग न किसी को पढ़ते हो और न व्यंग्य समझते हो।ऐसा कब तक चलेगा ? ज्यादा दिनों तक मैं इंतज़ार नहीं कर सकता।इतना सुनते ही हमें होश लौट आया।पूछा-गुरुदेव,हम निरंतर परसाईं को पढ़ते हैं।उन्हें समझ भी रहे हैं,फिर भी कोई चूक रह गई हो तो मार्गदर्शन करें।'

अब वे मुखर हो चुके थे।तुम लोग घुइयाँ लिखते-पढ़ते हो।परसाईं के बाद तुम्हें कुछ दिखता ही नहीं ! वे तो लिखकर चले गए और उन्हें समझने,समझाने की जिम्मेदारी हमने बकायदा निभा भी ली।अब हमें समझो और आगे दूसरों को समझाओ।आखिर हम परसाईं के बारे में तुम्हें समझा रहे हैं ना ? 'पर गुरुदेव,परसाईं के लेखन और आचरण का सिलेबस एक ही था।इसलिए उन्हें समझने में आसानी है।हमने  तो उन्हें पढ़कर अबतक यही समझा है।

'तुम परसाईं को जानते हो या मैं ?पिछले कई सालों से उन पर हजारों व्याख्यान दे चुका हूँ।मेरी मजबूत पकड़ है।परसाईं को नहीं छोड़ा तो तुम किस खेत की जड़ हो ? लिखता तो मैं भी निरंतर हूँ।रही बात आचरण की,इसके लिए किसी आह्वान की ज़रूरत नहीं,वे मेरे पास भी हैं।अभी-अभी तुमने छुए भी हैं।दरअसल,दिक्कत तुम्हारी नहीं,इस पीढ़ी की है।इसके पास न विचार हैं न शिष्टाचार।विचार नहीं तो कोई बात नहीं।हमने भी तो इत्ते साल यूँ ही काट दिए।पर वत्स,शिष्टाचार मत भूलो।हमारी उमर हो रही है।ऊपर जाकर परसाईं जी को क्या मुँह दिखाऊंगा ! हमसे यही कहेंगे कि हमने उन्हें बार-बार याद करके उनका स्वर्ग में जीना हराम किया ही,हमारी नई पीढ़ी भी यही कायरता दिखा रही है।इसलिए कह रहा हूँ कि तुम लोग अब आगे बढ़ो और हमें उठा लो।कल ही हमारी फलाने वरिष्ठ से टेलीफोन पर बात हो रही थी।दो मिनट की वार्ता में हम दोनों इस निष्कर्ष पर पहुँच गए कि नई पीढ़ी से कोई उम्मीद नहीं।यह तो अच्छा हुआ कि परसाईं के बाद हम लोगों ने उन्हें उठा लिया।पर यह उठावनी यहीं रुकनी नहीं चाहिए।तुम लोग अपने हाथ और कंधे मजबूत रखो।कभी भी किसी को स्वर्णिम अवसर मिल सकता है।उसी के नाम अगला इतिहास होगा।'उनके अन्दर का भरा पड़ा साहित्यकार आखिर फूट ही गया।


हमने धीमे से भी प्रतिवाद नहीं किया।मन ही मन कहने लगा-पिछले कुछ समय से हमें भी अब अहसास हो रहा है कि हम जड़ हैं।जहाँ पाँच साल पहले खड़े थे,आज भी वहीँ है।यहाँ तक कि गोष्ठी में एक छोटी -सी जगह भी नहीं घेर पाए।क्या करें,लिखने से अधिक समय समझने में जाया हो जाता है।जिसको समझने लगता हूँ,वह हमें ग़लत साबित कर देता है।हमें फिर से पूरा होमवर्क करना पड़ता है।आज भी व्यक्ति और प्रवृत्ति को समझने में असमर्थ हूँ।इसीलिए यहाँ आया था।अब जा रहा हूँ।'

मुलाकाती-समय समाप्त हो चुका था।हमारी दुविधा और बढ़ गई थी।हमें अब व्यंग्य की नहीं अपनी चिंता सताने लगी थी।

इस बीच हमने उनके गैंग की ओर देखा।वे सब मंच की व्यवस्था में जुट चुके थे।वहीँ से थोड़ी देर में आदरणीय को परसाईं-स्मृति व्याख्यान पर बोलना था।हमने उन्हें आखिरी बार नज़र भर के देखा।साहित्य के एक बड़े मौके से हम हाथ धो चुके थे।एक बड़े अपराध-बोध के साथ हम गोष्ठी-स्थल के बाहर निकल आए।

सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

चुनावी हरियाली और छुट्टा साँड़ !

उनका टिकट फिर कट गया है।इस बार पूरी उम्मीद थी कि जनता की सेवा करने का टिकट उन्हें ही मिलेगा।पर नहीं मिला।इस अन्याय पर वे फूट-फूटकर रोने लगे।उनके सब्र का बाँध ढह गया।इससे ऐसी बाढ़ मची कि वे बहकर दूसरे दल तक पहुँच गए।दूसरे दल वाले ने अपने पुराने और जमे हुए प्रत्याशी को ज़ोर का धक्का दिया।वह समर्पित-टाइप का था पर दल को अब उसके समर्पण की नहीं तर्पण की ज़रूरत थी।उसको मुक्ति मिली और दल को नई शक्ति।इस नवल ऊर्जा को नए दल ने सर पर बिठा लिया।इस तरह उन्हें सेवा करने का लाइसेन्स मिल गया।आँसू काम आ गए।सेवा के लिए ख़ून नहीं बहाना पड़ा।यह उनकी समझदारी का परिचायक है।दिमाग़ से लिया फ़ैसला ऐसे ही होता है।टिकट पाने के लिए वो बंधनमुक्त हो जाते हैं,कहीं भी बह सकते हैं।फ़िलहाल वे चुनावी-हवा में बह रहे हैं।

दूसरे दल ने उन्हें तुरंत लपककर बड़ा पुण्य-कार्य किया है।वे अभी तक नख-शिख भ्रष्टाचार की गंगा में डूबे हुए थे।हर तरह के पाप उनके सिर पर थे।उनकी काया भले ही मलिन हो गई हो,पर अंतरात्मा बिलकुल बेदाग़ है।उसी ने आवाज़ दी और वो नए घर में शिफ़्ट हो गए।वैसे भी कोई कहाँ ज़िंदगी भर एक घर में टिकता है ! सेवा करने के लिए पैदाइशी घर छोड़ना ही पड़ता है।नए घर में आते ही उनका परकाया-प्रवेश पूर्ण हुआ।कपड़े बदलने भर से जब कोई साधु बन जाता है तो दल और दिल बदलकर जनसेवक क्यों नहीं बना जा सकता ? इसी दिन के लिए तो उन्होंने बरसों भूख और प्यास सही।लोगों के ताने सुने।अब ऐसे सुहाने मौसम में भी वो न बहें तो कब बहेंगे ! चुनावी-मौसम में सब बह रहे हैं।जहाँ भी टिकट की मनुहार के साथ थोड़ा प्यार मिल जाता है,जनसेवक वहीं टिक जाता है।जिनको ऐसी हरियाली में भी मुँह मारने को नहीं मिलता,वे छुट्टा साँड़ हो जाते हैं।हर जगह मुँह मारते हैं।

डिजिटल इंडिया में जनसेवा का यह आधुनिक संस्करण है।समझदार लोग अपने को जल्दी अपडेट कर लेते हैं।जिनके टिकट कटते हैं,भगवान उनके हाथ-पैर पहले ही मज़बूत कर देता है।हाथ विरोधी से टिकट झपटता है और पैर दल-दल में टहलता है।वह सबको साधने की कला जानता है।ऐसा साधक ही कलिकाल में लम्बे समय तक कुर्सी पर टिकता है।

रविवार, 12 फ़रवरी 2017

बस एक सम्मान का सवाल है !

लंबे इंतज़ार के बाद अंततः इस साल का साहित्य-भूषण सम्मान घोषित हो गया।साहित्य सेवक जी भारी सदमे में हैं।इस बार भी वे थोड़े अंतर से चूक गए।उनको लग रहा है कि सम्मान-प्रदाता कमेटी में उनका कोई ख़ास शुभचिंतक ज़रूर है,जो उनकी कटिया को मेन-लाइन से जुड़ने नहीं दे रहा है।सम्मान का करंट पाने को वे इतने कटिबद्ध रहे हैं कि उन्होंने अब तक केवल कटिप्रदेश प्रधान रचनाएँ ही लिखी हैं।फिर भी कमेटी के कुछ सदस्यों की आँखों पर पट्टी बँधी हुई है।इसका पहला नुक़सान तो हिन्दी साहित्य को ही हुआ,जो इतनी बड़ी संभावना से वंचित हो गया।दूसरा और महत्वपूर्ण यह कि सम्मान-समिति के वरिष्ठ सदस्य उनके लेखन की गहराई में बहुत अंदर तक डूब गए और इस तरह उनका सम्मान भी।

साहित्य-सेवक जी को मलाल इस बात का है कि साहित्य-भूषण न्योछावर करने वाली संस्था में उनकी अच्छी घुसपैठ के बावजूद उनसे कनिष्ठ साहित्य-द्रोही बाजी कैसे मार सकता है ! इससे उनको गहरा साहित्याघात लगा है।फलस्वरूप उसकी रचना को वे दैनिक रूप से पटक रहे हैं।उनका पक्ष है कि सिफारिश में भी अनुभव को प्राथमिकता मिलनी चाहिए पर संस्था ने इसकी अनदेखी कर परंपरा तोड़ी है।यह साहित्यिक-इतिहास का अब तक का सबसे बड़ा घपला है।साहित्य-सेवक जी इसीलिए आजकल घपलों का नाम आते ही भड़क उठते हैं।उनका मानना है कि सम्मान संभालने के लिए भी एक शऊर और सलीक़ा होना चाहिए,जो उनके पास बरसों से धरा हुआ है।


उनके साथ हुए इस साहित्यिक घात का विरोध पूर्व में चूके कई सम्मान-पिपासुओं ने भी किया है।उनका मानना है कि ऐसी मौलिक और मालिशयुक्त प्रतिभा के साथ हो रहे अन्याय से साहित्य की अपूरणीय क्षति हो रही है।इससे तो प्रशस्ति-पत्र इकट्ठा करने वाले वरिष्ठों का सम्मान-संग्रहालय एकदम सूना हो जाएगा।यदि केवल लिखकर सम्मानित होने की परंपरा चल निकली तो सम्मान-संस्थाओं की क़ाबिलियत पर प्रश्न-चिह्न ही लग जाएगा।जिस साहित्य में घुसपैठ करके एकाध नारियल और शाल दबोचने की गुंजाइश न हो,वो साहित्य न लेखकसेवी है और न ही समाजसेवी।साहित्य को समाज का दर्पण यूँ ही नहीं बताया गया है।अब सम्मानरहित लटका हुआ मुँह लेकर लेखक उस दर्पण में कैसे झाँके ! इससे साहित्य की ही बदनामी होगी।


जब से साहित्य-सेवक जी इस सम्मान से चूके हैं,बिलकुल कांतिहीन हो चुके हैं।अपने सम्पर्कों को फिर से टटोलने लगे हैं।कोई तो है जो उनके पास बैठकर उनके ही मान-पथ पर काँटे बिछा रहा है।पिछले काफ़ी समय से वे इस सम्मान पर टकटकी लगाए हुए थे पर सब व्यर्थ रहा।सम्मान-कस्तूरी पाने के लिए वे अंडमान-निकोबार तक न केवल दौड़ सकते हैं बल्कि इस इवेंट में सेल्फ़-फ़ाइनैन्स-स्कीम के तहत इंवेस्टमेंट भी कर सकते हैं।यह संस्था की बदनसीबी है कि उसने सही जगह पर टॉर्च नहीं मारी।और न ही किसी सुपारी-समीक्षक ने उन पर समुचित प्रकाश डाला।लेकिन इस बात से कई साहित्य-रंजक इत्तेफाक नहीं रखते।वे इसका अंदरूनी कारण कुछ और बताते हैं।उनका कहना है कि साहित्य-सेवक जी पर टॉर्च न मारने की बात एकदम गलत है।दरअसल,उनके टॉर्च की बैटरी ही कमजोर थी।ऐसे में नई व चकमक-बैटरी बाजी मार ले गई।लब्बो-लुबाब यह कि समुचित सम्मान पाने के लिए साहित्य-सेवक जी या तो अपनी टॉर्च बदलें या उसे चमत्कारिक बैटरी से चार्ज करवा लें।तभी सम्मान में लगी साढ़ेसाती से मुक्ति मिलेगी।

सम्मान के प्रति उनके इस समर्पण को देखकर कई अन्य साहित्यसेवी घोर अवसाद में चले गए हैं।उनके जैसी ऊर्जा और मज़बूत इरादे का स्तर बनाए रखने में अपने को असहाय पा रहे हैं।इसके लिए कुछ लोग 'सम्मानातुर-संघ' बनाकर अपनी दावेदारी बनाए रखना चाहते हैं।यह संस्था हर वर्ष अपनी वरिष्ठता-सूची को अपडेट करती रहेगी।इसमें सदस्य होने की पात्रता केवल उन्हीं की होगी जो गली-मोहल्ले के सम्मान बटोरकर भी प्रादेशिक या राष्ट्रीय सम्मान से अभी तक वंचित हैं।इस सम्मान-भूख को मिटाने के लिए संस्था के सभी सदस्य मर-मिटने के लिए तैयार हैं।इसके लिए वे सामूहिक रूप से भूख-हड़ताल पर जा सकते हैं।कम से कम एकाध सम्मान तो उनके पास भी ऐसा हो,जिसे वापस कर वे भी मौक़े पर चौका जड़ सकें।


इस बीच साहित्य भूषण धारी लेखक से जब सम्पर्क किया गया तो उन्होंने इस फ़ैसले पर कुछ भी कहने से इंकार कर दिया।उनका साफ मानना है कि उनके मुँह में सम्मान लग चुका है और वे अब सम्मान-रहित लोगों के मुँह नहीं लगना चाहते।सम्मानों की वज़ह से वे लिखने के लिए समय खैंच नहीं पा रहे थे,अब आए दिन ऐसी असाहित्यिक अफ़वाहें सुन-सुनकर उनके कान भी पिराने लगे हैं।सुना है कि इस ख़बर से साहित्य-सेवक जी और उखड़ गए हैं।वे अब शिल्प तोड़ने वाली नई रचना पर हथौड़ा लेकर जुटे हैं।

सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

गाँधी और नया मुक्ति-काल !

गाँधी जी ऊपर बैठे पछता रहे हैं।पूरी ज़िंदगी लँगोटी पहनने की ज़िद की,सूत काता,फिर भी वो नहीं कमा पाए जो उनके नए अवतार ने केवल झाड़ू और चरख़ा पकड़कर पलक झपकते ही पा लिया।देश को जानने,समझने के लिए उन्होंने बरसों गाँव-गाँव,सड़क-सड़क घूमकर अपनी ऊर्जा नष्ट की फिर भी कोई चमत्कार नहीं पैदा हुआ।इधर नव-गाँधी केवल कलेंडर और डायरी में ही घुसकर पूरे देश में छा गए।इससे साबित होता है कि गाँधी एक असफल नेता थे।इसलिए आज़ादी के समय और उसके बाद किसी भी असफलता के सबसे सहज कारण गाँधी ही माने जाते हैं।आज देश की जो दुर्गति है,इसमें गाँधी और उनकी  प्रेरणा का योगदान सबसे अधिक है।हमारे नए गाँधी ग़ुलामी के वक़्त होते तो फिरंगियों के ख़िलाफ़ आमरण अनशन नहीं करते,बल्कि उन्हें भाषण पिला-पिला कर ही मार डालते।

ख़ैर,अब तक जो हुआ सो हुआ,अब नहीं होगा।सत्तर सालों का हिसाब मिलना शुरू हो गया है।गाँधी का आम आदमी क़तार में खड़ा आख़िरी आदमी था पर अब क़तार में खड़े हर आदमी का हाल आख़िरी आदमी जैसा हो गया है।समाज में यह बराबरी गाँधी की मुद्रा बदलने से आई है।इससे साफ़ हुआ कि वो गाँधी अब निरर्थक हो गए हैं।मुद्रा बदलने से अगर बाज़ार मूल्य बढ़ता है तो बदल। लेने में समझदारी है।बाज़ार के बरक्स आदमी और मुद्रा का अवमूल्यन तुच्छ है।हम बाज़ार में रहेंगे,बिकेंगे,तभी बचेंगे।आज हमारे लिए होना नहीं बचना ज़रूरी है।गाँधी भी इसी बाज़ार में खड़े हैं।उनकी हर चीज़ अब नुमाइश की चीज़ है।जो दिखता है,वो बिकता है,इसी सिद्धांत पर उनकी नई पीढ़ी अमल कर रही है।और देखिए,इतने भर से खादी हॉट हो गई है ! बाज़ार का हिट होना ज़रूरी है,इससे गाँधी 'हिट' होते हैं तो हों।

चरख़ा अचानक चमत्कारी हो गया है।पहले सूत कातता था,अब वोट कातने लगा है।गाँधी जी इस परिवर्तन से सबसे ज़्यादा ख़ुश हैं।देश को आज़ादी मिले इतने बरस हो चुके हैं पर अब जाकर उन्हें मुक्ति मिली है।यह सफ़र इतना आसान भी नहीं रहा।ऐसी सम्मानपूर्ण विदाई उन्हें किश्तों में मिली है।पहले उनका शरीर मुक्त हुआ,फिर विचार।प्रचार में वो फिर भी लगातार बने रहे।पुरानी दीवारों के कलेंडर में टंगे रहे।फिर अचानक एक दिन देश बदलने लगा।सफ़ाई-अभियान चला और गाँधी सब जगह से ग़ायब होने लगे।दिल  के बाद नोट से भी उतर गए।यह उचित भी हुआ।दुबले-पतले और अधनंगे फ़क़ीर की तस्वीर किसी म्यूज़ियम में तो स्थापित की जा सकती है पर बाज़ार के रैम्प पर कैटवाक करने के लिए डिज़ाइनर और सूटेड-बूटेड फ़क़ीर ही उपयुक्त होता है।हिट होने के लिए मौनव्रत के आंदोलन की नहीं हंगामाखेज इवेंट की ज़रूरत होती है।गाँधी इसीलिए फ़ेल हो गए।

चरखा नए गाँधी के हत्थे चढ़ चुका है।खादी को उसकी खाद मिल गई है।सियासी फ़सल लहलहाने लगी है।चरखे से सूत नहीं सीधे सत्ता निकल रही है।यह देखकर गाँधी जी की बकरी डरने लगी है।मुक्तिकाल की मूकदर्शक रही है वह।आम आदमी को उसने मुक्ति पाने के लिए क़तारबद्ध होते देखा है।वह चिंतित है कि नए गाँधी कहीं उसे भी न झपट लें ! पर वह नादान है।उसे नहीं पता कि भेड़-बकरियों के पास बचने का कोई विकल्प नहीं होता।पूरी तरह दुह कर उन्हें मुक्त कर दिया जाता है।मुक्ति पर उनका स्थायी हक़ है।बदलते हुए देश में अब सब कुछ मुक्त हो रहा है,बिलकुल शर्म-मुक्त शेख़ी के साथ।


धुंध भरे दिन

इस बार ठंड ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी कि राजधानी ने काला कंबल ओढ़ लिया।वह पहले कूड़े के पहाड़ों के लिए जानी जाती थी...