रविवार, 11 नवंबर 2018

टिकट कटे नेता का परकाया प्रवेश !

उनका टिकट फिर कट गया।इस बार पूरी उम्मीद थी कि जनता की सेवा करने का टिकट उन्हें ही मिलेगा।पिछले पाँच साल से वे इसी आस पर टिके हुए थे,पर अनहोनी हो गई।उनकी आस में दिन-दहाड़े सेंध लग गई।आख़िरी सूची से उनका नाम नदारद हो गया।दरअसल दल के एक बड़े पदाधिकारी का ‘छुटका’ बेटा जनसेवा करने के लिए अचानक मचल उठा।हाईकमान ने पार्टीहित,जनहित और देशहित के संगम में उनकी डुबकी लगवा दी।वे ज़रा समर्पित-क़िस्म के जीव थे पर दल को अब उनके  समर्पण की नहीं तर्पण की ज़रूरत महसूस हुई।पार्टी ने एक बार फिर त्याग और बलिदान का पाठ पढ़ाकर उन्हें सप्रेम किनारे कर  दिया।उनको मुक्ति मिली और दल को नई शक्ति।इस अनचाही पुण्याई पर वे फूट-फूटकर रोने लगे।उनके आँसू ज़मीन पर गिरकर अकारथ हों,इससे पहले ही मीडिया के कैमरों और विरोधी दल के हाथ ने उन्हें थाम लिया।राजनीति पर उनका विश्वास टूटते-टूटते बचा।

वे इतने काम के निकले कि उनके खारे आँसू भी दूसरे दल के काम आ गए।दो कौड़ी की भावुकता दूर की कौड़ी साबित हुई।जब तक वे दिल से सोचते रहे,घाटे में रहे।दिमाग़ ने सही राह सुझाई और दर्द के आँसू सीप के मोती बन गए।विचारधारा और सिद्धांत की नश्वरता समझने में पहले ही उन्होंने काफ़ी देर कर दी थी।एक झटके में वे सभी बंधनों से मुक्त हो गए।दुर्भाग्य पलक झपकते ही सौभाग्य बन गया।चुनावी-हवा का संसर्ग पाकर वे अनुकूल दिशा में बह चले।ऐसे सुहाने मौसम में भी वो न ‘बहते’ तो कब बहते !

उन्हें तुरंत लपककर नए दल ने बड़े पुण्य का काम किया है।जिनके लिए वे कल तक भ्रष्टाचार के पर्याय थे,उनके दल में प्रवेश होते ही वे कुंदन-से चमकने लगे।यह उनके सार्वजनिक-क्रंदन का ही प्रताप था।उन्होंने अपनी ‘बेदाग़’ चदरिया जस-की-तस नए तंबू में बिछा दी।इस तरह आत्मा का परकाया-प्रवेश पूर्ण हुआ।उनकी अंतरात्मा को काफ़ी दिन बाद सुकून मिला।वे अब जनसेवा की दहलीज़ पर खड़े थे।कपड़े बदलने भर से जब कोई साधु बन जाता है तो दल और दिल बदलकर जनसेवक क्यों नहीं बन सकता ? इसलिए जहाँ टिकट मिली वे वहीं टिक गए।

टिकट कटने पर उनका रोना एक बड़ी ख़बर रही।जनसेवा से उनको वंचित करने की साज़िश को उन्होंने विरोधी दल के साथ मिलकर नाकाम कर दिया।सेवा को लेकर उनकी प्रतिबद्धता इसी से ज़ाहिर होती है।इस बात की तसदीक़ करने के लिए हम बेचैन हो उठे।वे चुनाव-क्षेत्र में ही मिल गए।उनके एक हाथ में आँसू और दूसरे हाथ में टिकट था।हमें देखते ही भावुक हो उठे।कहने लगे-‘तुम्हारी भविष्यवाणी पर हमें यक़ीन था।तुमने बहुत पहले ही कहा था कि हमारे हाथ की रेखाओं में सेवा का योग लिखा है और देखिए आज उसी हाथ ने हमें यह मौक़ा दिया है।अब हम दोनों हाथों से जनता की सेवा करेंगे।जनता भी हमें पाकर धन्य होगी।हमें महसूस हो रहा है कि हमारा जन्म ही सेवा के लिए हुआ है।अभी तक तो हम दलदल में फँसे हुए थे।अब जाकर सही दल मिला है।इतना बड़ा चरागाह मानो हमारी ही प्रतीक्षा कर रहा था।तबियत से हरियाली चरेंगे।’

हमने उनके कंधे पर हाथ रखा और कहा-‘तुम्हारा राजनैतिक उदय शुरू हो चुका है।तुम बहुत आगे तक जाओगे।तुम्हारी ‘किरपा’ आँसुओं में रुकी हुई थी।अब वह साक्षात् दिख रही है।तुम्हारे आँसुओं ने टेलीविज़न पर बरस कर बरसों का ‘सूखा’ समाप्त कर दिया है।एक चुनावी-टिकट ने संभावनाओं के कई द्वार खोल दिए हैं।अब तुम्हारे सामने सेवा के मौक़े ही मौक़े हैं।’

इतना सुनते ही वे भाव-विह्वल हो उठे।बोले-‘मौक़े का नाम सुनते ही सारे शरीर में झुरझरी-सी उठने लगती है।दूसरों को मौक़ा मिलते हमने दूर से ख़ूब देखा है।इतने क़रीब से पहली बार अपने मौक़े को महसूस कर पा रहा हूँ।राजनीति में टिकट-विहीन नेता पर-कटे पंछी की तरह होता है।बिना पंख के जैसे उसकी उड़ान रुक जाती है,वैसे ही नेता का विकास।हम तो विकास के जन्मजात समर्थक हैं और पूरी तरह जनता को समर्पित भी।हमारा अपना कुछ नहीं है।सब जनता का है।हमारा विकास जनता का विकास है।हमारी पीड़ा भी जनता की पीड़ा है।हमारे सार्वजनिक-रुदन का कारण यही है।ये हमारे आँसू नहीं जनता के हैं।आने वाले पाँच सालों में उसे भी यह बात ठीक तरह से समझ में आ जाएगी।सेवा देकर एक-एक आँसू का हिसाब लूँगा।’

‘टिकट कटने के बाद से तुम्हारा आत्मविश्वास लौट आया है।पार्टी हाईकमान यदि तुम्हारा टिकट नहीं काटता,तुम अभी भी गुमनामी में जीते।नए दल से टिकट मार कर तुमने दिखा दिया है कि आँसू कमज़ोर ही नहीं मज़बूत भी बनाते हैं।बस चुनाव तक अपने आँसू बचाए रखो।अब जनता की सेवा करने से तुम्हें कोई नहीं रोक सकता।तुम्हारी जीत सुनिश्चित है।’ हमने उनके आत्मविश्वास को और हवा देते हुए कहा।

हमारा आश्वासन पाकर वे भभक उठे।उनके चुनाव-क्षेत्र की ख़ैर मनाते हुए हम घर लौट आए।

संतोष त्रिवेदी

बुधवार, 7 नवंबर 2018

आओ प्रकाश से अंधकार की ओर चलें।

भक्तजनो,आज तुम्हें हम एक ऐसी सीख देने जा रहे हैं,जिससे तुम्हारे जीवन में कल्याण ही कल्याण होगा।कल तक तुमने सुना और पढ़ा है कि हम सबको अंधकार से प्रकाश की ओर चलना चाहिए।सालों से यह तुम सब कर ही रहे हो पर प्रकाश ने तुम्हें दिया कुछ ? यह इसलिए नहीं हुआ क्योंकि अब तक तुम्हारा ‘दिया’ ग़लत जगह टिमटिमा रहा था।तुम प्रकाश के ही पक्ष में खड़े थे,अंधेरे की तरफ़ गए ही नहीं।सच तो यह है कि अँधेरा ही हमारा स्वाभाविक साथी है।हम उजाले से हमेशा विमुख रहे हैं।फिर वह हमारा सहचर कैसे हो सकता है ?अँधेरा सदा से हमारे अनुकूल रहा है।वह हमारा अस्तित्व है।कठिन घड़ी में अंधेरे ने ही हमें उबारा है।इसीलिए जीवन का वास्तविक दर्शन हमें ड्रॉइंगरूम के बजाय ‘डार्करूम’ में प्राप्त होता है।निजी अनुभव के नाते हम तुम सबसे अँधेरे को आजीवन अपनाने का आह्वान करते हैं।

प्रियजनो,बाहर ‘प्रकाश-पर्व’ का बड़ा शोर है।पर यह कितने लोग जानते हैं कि अंधकार के असीम बलिदान के बाद ही यह अवसर आता है।उजाला झूठा और नश्वर है जबकि अँधेरा सच्चा और शाश्वत।प्रकाश की एक समय-सीमा है जबकि अंधकार असीमित।अंधेरे के लक्षण हर युग में मिलते हैं पर कलियुग में अंधकार सर्वाधिक शक्तिशाली है।अंधकार की ही सत्ता है।प्रकाश को तो कृत्रिम रूप से गढ़ा जा सकता है पर अंधकार को नहीं।वह वास्तविक रूप में सर्वत्र उपस्थित है।

भद्रजनो,अब हम इस बात पर ‘प्रकाश’ डालेंगे कि अंधकार की इतनी महत्ता क्यों है ?प्रकाश का वर्ण निरा सफ़ेद है,जबकि अंधकार का निपट काला।सफ़ेद हमेशा दाग़ और धब्बों से डरा-डरा रहता है जबकि काला हमेशा बिंदास।एक छोटा-सा भी दाग़ उजाले को मलिन कर देता है लेकिन पूरी की पूरी कड़ाही काले का बाल भी बाँका नहीं कर सकती।धन के रूप में हो या मन के,काला सदैव गतिमान बना रहता है।उसकी तंदुरुस्ती का राज भी यही है।वह देश में हो या परदेस में,उसे कभी खाँसी-ज़ुकाम तक नहीं होता।दूसरी ओर सफ़ेद हमेशा अपना बचाव करता रहता है।एक हल्की सी छींट भी उसकी सेहत ख़राब कर देती है।रंग काला हो तो होली या दीवाली भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाती।इन त्योहारों में वह और निखरता और बिखरता है।यहाँ तक कि सफ़ेदी की महिमा भी काले रंग की वजह से ही बची हुई है।

स्वजनो,सफ़ेदी ने कोई कारनामा किया है,क्या कभी ऐसा सुना है? नहीं,कभी नहीं।कारनामा हमेशा काला होता है।अख़बार के पन्ने इससे भरे होते हैं।काले रंग का क्रेज़ है ही इतना।अभी थोड़े दिनों पहले एक भद्र व्यक्ति ने अपने सफ़ेद घोड़े को काला करके ऊँची क़ीमत में बेच दिया।उसे कालिमा का महत्व बख़ूबी पता था।पता तो ख़रीदार को भी था,इसीलिए उसने इसके लिए मोटी रक़म अदा की थी।घोड़ा बेचने वाले ने काली कमाई कर ली,पर ख़रीदार के हाथ काला घोड़ा भी न आया।यह इस बात का सबक़ है कि जब किसी पशु की क़ीमत कालिमा ओढ़ने से बढ़ सकती है तो फिर हमारी क्यों नहीं ! इधर हम अपने वास्तविक मूल्य को पहचान नहीं पा रहे हैं,उधर समझदार लोग कालेधन की समूची ढेरी तक पचाए जा रहे हैं।इसलिए जितनी जल्दी हो सके,हमें कालिमा का आलिंगन कर लेना चाहिए।इससे हमारा हाज़मा बेहतर होगा।

कालकूट-प्रेमियो,बरसों पहले ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का जो पाठ हमने तुम्हें पढ़ाया था,अब उसके पुनर्पाठ की ज़रूरत है।यह हमारा भ्रम था कि हम तम से प्रकाश की ओर भाग रहे थे।दरअसल,यहाँ तम के बाद एक पॉज अर्थात रुकावट है,जिसे हम नहीं समझ पाए।नए संस्करण में यह ‘तमसो,मा ज्योतिर्गमय’ हो गया है,जिसका भावार्थ है कि अंधकार की ओर अग्रसर हों,प्रकाश की ओर क़तई नहीं।यह नया पाठ ही हमें और तुम्हें इस अंधकार-युक्त जगत में प्रतिष्ठा दिलाएगा।हमें पूर्ण विश्वास है कि काले धन और काले मन के प्रभावशाली उपकरणों की सहायता से प्रकाश को हम छिपने तक की जगह नहीं देंगे।’अँधेरा क़ायम रहे’ आज से यही हमारा उद्घोष होगा।

प्रवचनों की अंतिम कड़ी में हम कुछ नुस्ख़े बताने जा रहे हैं,जिससे तुम्हें अँधेरे के आग़ोश में रहने में सहूलियत होगी।तुम सब ‘प्रकाश-पर्व’ में बढ़-चढ़कर हिस्सा लो,पर मन के अँधेरे पर तनिक भी आँच न आने देना।ध्यान रहे,सफ़ाई और सद्भाव हमारे चिरंतन शत्रु हैं सो इनसे निपटने के लिए पटाखे और पराली का माक़ूल इंतज़ाम हो।‘ग्रीन’ पटाखे  सेकुलर विस्फोट से फटेंगे तो उनकी मारक क्षमता और बढ़ जाएगी।हमें पूरे ज़ोर-शोर से अंदर और बाहर अँधेरे का साम्राज्य स्थापित करना है।इसके इतर भी हमें प्रयास करने होंगे।आर्थिक हवाला और राजनैतिक निवाला के साथ मिलकर हम यह आसानी से कर सकते हैं।जब हम इस अँधेरे कक्ष से बाहर निकलेंगे तो सुनिश्चित करेंगे कि प्रकाश की देखरेख में हम अपना मिशन पूरा करें।आओ,हम सब बड़े अँधेरे की ओर प्रस्थान करें।

©संतोष त्रिवेदी

सम्मान की मिनिमम-गारंटी हो !

सुबह की सैर से लौटा ही था कि श्रीमती जी ने बम फोड़ दिया, ‘यह देखो,तुम्हारे मित्र अज्ञात जी को पूरे चार लाख का सम्मान मिला है।तुम भी तो लिखते...