वह कभी मेरे अभिन्न मित्र थे, पर पिछले कुछ समय से भिन्न हो गए थे।हालाँकि कभी इस बारे में खुलकर कहा नहीं पर मुझे यही लगा।इसके फ़ायदे और नुक़सान दोनों हुए।पहले ‘टच’ में रहते थे तो हमें ख़बरें जानने के लिए न टेलीविज़न खोलना पड़ता और न इंटरनेट मीडिया।सब कुछ वही अपडेट कर देते।मुझे साहित्य में दख़ल करने का पर्याप्त अवसर मिलता।नुक़सान यह हुआ कि अंदर की ख़बरों के लिए मुझे टीवी और इंटरनेट मीडिया दोनों जगह समय खर्च करना पड़ा इससे साहित्य की तरफ़ ध्यान देना मुश्किल हो गया।
ऐसे कठिन समय में कल शाम अजूबा हो गया।वह मिसाइल की तरह अचानक घर आ धमके।उनके हाथ में बड़ा-सा कटहल था।अपनी भाभी जी को देते हुए बोले, ‘ सीज़न का पहला फल है।सोचा आपको ही अर्पित कर दूँ !’ इस कदम के द्वारा उन्होंने औपचारिक रूप से ‘शीतयुद्ध’ समाप्ति की घोषणा की।इसके लिए मेरी सहमति की ज़रूरत भी नहीं समझी।मित्रता से अचानक इस्तीफ़ा उन्होंने दिया था,मैंने नहीं।घर आए कटहल का मान रखते हुए मैंने भी आत्मीयता परोसी, ‘भई कहाँ ग़ायब हो गए थे ? आते रहा करो।तुमसे बातें करके ज्ञान-वृद्धि होती है।’
‘ एक्ज़ैक्टली,तुमसे मिलने आया ही इसलिए हूँ।हमें लोकल-लफड़ों को भुलाकर ग्लोबल-टेंशन पर ध्यान देना चाहिए।विश्व इस समय बड़े संकट से जूझ रहा है।पता नहीं यह लड़ाई कितनी दूर तक जाएगी ?’ ऐसा कहते हुए उन्होंने किचन की ओर झाँका।मुझे श्रीमती जी से यह कहने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि मित्र का मन पकौड़े खाने का है।वह मुझसे भी अधिक समझदार निकलीं।उन्होंने विश्व-युद्ध के संभावित ख़तरे को पहले ही भाँप लिया था।वह फटाफट रसोई में जुट गईं और हमने आपसी संबंधों में आए गतिरोध को तोड़ना शुरू कर दिया।
पहला हथौड़ा उन्होंने ही मारा, ‘ईरान टिक नहीं पाएगा इज़राइल के सामने।क्या कहते हो ?’ उनके इस सीधे सवाल से मैं हड़बड़ा गया।‘देखिए,मैं साहित्य का आदमी हूँ।आज तक यह नहीं समझ पाया कि यहाँ कौन-सा गुट बड़ा है या किस लेखक की अकादमी में चलती है।फिर यह वैश्विक कूटनीति समझना मेरे वश की बात नहीं।तुम्हीं कुछ प्रकाश डालो।मुझे तो अब तक यही लगता था कि ईरान और इज़रायल दोनों हमारे दोस्त हैं।और हम एक गुट-निरपेक्ष देश रहे हैं।’
वह एकदम-से कसमसा उठे, ‘वैसे तुमने एक बात तो ठीक कही है।वाक़ई तुम्हें अंतरराष्ट्रीय मामलों की समझ बिल्कुल नहीं है।यहाँ कोई तुम्हारे साहित्यिक-गुट जैसा मामला नहीं है।इज़राइल छोटा देश भले है मगर तकनीकी रूप से बहुत सक्षम है।उसने कई बार हमारी मदद की है।फिर उसके पीछे दुनिया का दादा अमरीका खड़ा है जिसने कई सभ्यताओं को बर्बाद कर दिया।ईरान क्या चीज़ है ! और हाँ,तुम्हारे साहित्य में भी तो कहीं लिखा है, ‘देखन में छोटे लगें,घाव करें गंभीर ।’ कहते-कहते वह इज़राइल की तरह आक्रामक हो उठे।
‘यह सही है कि इंटरनैशनल मामलों में मैं अनाड़ी हूँ पर अमेरिका भरोसे लायक नहीं है,इतना ज़रूर जानता हूँ।’ यह कहते हुए मैंने उनको ‘चिल्ड’ पानी ऑफर किया पर उन्होंने ‘शांति-प्रस्ताव’ समझकर ठुकरा दिया।मुझ पर भड़कते हुए बोले,‘अभी तक ऐसा कोई नहीं हुआ है जिसने अमेरिका को पानी पिलाया हो ! वियतनाम और अफ़ग़ानिस्तान भूल जाइए।नया अमेरिका है।सबको मारकर महान बनना उसका लक्ष्य है।देखिए ना,डर के मारे पाकिस्तान उसकी मेज़ पर बिछ गया।यह होती है कूटनीति।कूटो भी और रोने भी मत दो।’ कहते हुए वह अपनी जीभ से होठों को फेरने लगे।
मैं कुछ कहता तभी श्रीमती जी पकौड़े ले आईं।मुझे लगा शायद अब ‘सीज़फायर’ हो जाए पर उन्होंने फिर से हमला बोल दिया, ‘तुम पकौड़े खाओ और साहित्य की सेवा करो।विदेश-नीति समझना तुम्हारे वश की बात नहीं।तुम अगले अकादमी सम्मान पर ध्यान दो।यह वाला तो गया ! ’ उन्होंने सीधे मेरे दिल पर हमला बोला।मैंने हाथ में आया पकौड़ा छोड़ दिया।मैंने भी अंदरूनी चोट की,‘किंतु आतंकी देश को भोजन कराना कहाँ तक उचित है ? इतना तो मैं भी समझता हूँ।’ अगले पकौड़े को उदरस्थ करते हुए वह बोले, ‘अरे भाई,तुमने शुरू में ही बता दिया था कि तुम्हें अंतरराष्ट्रीय मामलों की समझ नहीं है।यहाँ जो दिखता है,वैसा नहीं होता।कूटनीति में कैरेक्टर नहीं देखा जाता।साथ लंच करने से पाक-साफ़ नहीं हो जाता कोई।लंच का मेनू ऐसा था कि डकार भी आए तो सिर्फ़ ‘नोबेल’ निकले।तुम्हारे साहित्य में है ऐसी पारदर्शिता ?’ कहते हुए उन्होंने पूरी प्लेट साफ़ कर दी।
‘अंतर तो बहुत है।युद्ध में जहाँ आत्म-समर्पण होता है,वहीं साहित्य में समर्पण।यहाँ सामने से वार नहीं होता।पिछले साल एक वरिष्ठ लेखक मेरे ‘सम्मान’ के लिए मेरे हर्जे-खर्चे पर राजधानी गए थे।वहाँ अपना नाम देकर लौट आए।बाद में उन्होंने अपना ‘सम्मान’ मुझे समर्पित किया।यह होता है समर्पण ! ईरान जीते या इज़राइल,तुम्हारे अमेरिका को ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।’ इतना सुनते ही वह भिनभिनाते हुए बाहर निकल गए।मैं ड्राइंग रूम में बैठकर युद्धकाल की कविताएँ लिखने लगा।
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