रविवार, 12 मार्च 2023

सम्मान की मिनिमम-गारंटी हो !

सुबह की सैर से लौटा ही था कि श्रीमती जी ने बम फोड़ दिया, ‘यह देखो,तुम्हारे मित्र अज्ञात जी को पूरे चार लाख का सम्मान मिला है।तुम भी तो लिखते हो।कभी तुम्हारे हिस्से कुछ आया ?’ यह कहकर श्रीमती जी ने अख़बार मेरी ओर बढ़ा दिया।मैं अभी अपनी उखड़ी हुई साँसों पर क़ाबू पाने की कोशिश में था कि इस ख़बर से धड़कनें और तेज हो गईं।उस वक़्त को कोसने लगा,जब मैंने श्रीमती जी को रोज़ अख़बार पढ़ने की सलाह दी थी।आदमी कहीं भी,कितना भी गिर ले,मगर अपनी पत्नी के सामने गिरता हुआ दिखना उसे नागवार गुजरता है।मैंने सामान्य होने का ढोंग करते हुए श्रीमती जी के सवाल का उत्तर दिया, ‘वे सदैव से सम्मान-प्रेमी रहे हैं।लोग देते हैं,वे ले लेते हैं।एक और मिल गया तो क्या हुआ ? उनका संपूर्ण लेखन ‘सम्मान-फ़्रेंडली’ है।और हाँ, तुम्हें कुछ पता भी है ? अज्ञात जी के तगड़े कनेक्शन हैं।उसी का नतीजा है।रही बात मेरी,मैं सम्मान के लिए नहीं लिखता।’ अख़बार को बिना पढ़े ही मैंने उसे मेज के नीचे सरका दिया।


मामला तूल न पकड़े इसलिए मैंने ऐसा ठंडा रिस्पांस दिया पर श्रीमती जी जैसे  निपटने के मूड में थीं।वैसे सच बताऊँ,अंदर ही अंदर मैं ख़ुद निपट चुका था।चार लाख की रक़्म थोड़ी नहीं होती।सम्मान देने वाले इस राशि को गुप्त भी रख सकते थे पर फिर दूसरे लेखकों के दिल में साँप कैसे लोटते ! सम्मानदाताओं ने दो ग़लतियाँ की।एक यह कि जो पहले से खूब सम्मानित है,उसे ही ‘सम्मान’ दिया और दूसरा यह कि इनामी-राशि उजागर कर दी।इससे तो साहित्यिक-समाज में विषमता फैलेगी।अगर क्रिकेट की तरह ग्रेड-सिस्टम यहाँ भी लागू हो जाए तो ‘मिनिमम सम्मान’ की गारंटी तो होगी ! लेखक भले समाज में समता लाने के लिए लिखता हो पर ख़ुद लेखकों की कैटेगरी होने में कोई बुराई नहीं।मैं यह सोच ही रहा था कि श्रीमती जी ने अगला धमाका किया, ‘आख़िर क्या ख़ूबी है उनके लेखन में जो तुम्हारे में नहीं है ? पिछले कई सालों से तुम भी तो लिखे जा रहे हो।पीछे वाला कमरा अटा पड़ा है।कोई इन्हें पढ़ता क्यों नहीं ? और तो और ,शहर की हो या बाहर की,हर गोष्ठी में पहुँचते हो।तीन-तीन ग्रुपों में एडमिन भी बने हुए हो।फिर भी किसी को तुम्हारा नाम क्यों नहीं सूझता ?’श्रीमती जी गुगली के साथ-साथ बाउंसर भी फेंक रही थीं।मैं उनसे इस तरह के साहित्यिक-हमले की उम्मीद नहीं कर रहा था।मेरे लेखन और हमारी ‘पढ़ी-लिखी’ दुनिया में उन्हें भला इतनी रुचि क्योंकर पैदा हो गई ? जिन सवालों से मैं अब तक बचता रहा,वे मेरे घर से ही उठने लगे।श्रीमती जी के निजी सवालों ने मेरे आत्मविश्वास को अंदर तक हिला दिया।


अब मैं इस बात का क्या जवाब देता कि अज्ञात जी के लेखन में क्या खूबी है।मुझे तो अपने लेखन में क्या कमी है,यह आज तक नहीं पता चला।पत्नी के सामने खुद को बेहद अपमानित महसूस करने लगा।सोचने लगा,दूसरे का सम्मान,अपना अपमान कैसे हो सकता है ! पर यह हो रहा था।फिर भी उसका घूँट पीते हुए सोच को नई दिशा दी और दिल को तसल्ली।लिखना और सम्मानित होना दो अलग चीजें हैं।केवल लिख भर देने से सम्मान मिलता तो मुझे अब तक दर्जनों बार मिल चुका होता।पिछले पाँच साल में ही मेरी पच्चीस किताबें आई हैं।नक़द मिलने की कौन कहे,हमें अपने पल्ले से हज़ारों रुपए लगाने पड़े।यह सब मैंने साहित्य-सेवा की भावना से किया।ऐसा भी नहीं है कि मुझे सम्मान नहीं मिलता।अभी गुजरे पुस्तक-मेले में ही मैंने दस विमोचन और बीस लोकार्पण किए हैं।पचासेक लेखकों को  ऑटोग्राफ़ की हुई अपनी पुस्तकें भेंट की।लोगों ने इसका भी बुरा नहीं माना।पूरा सोशल मीडिया मेरी फ़ोटुओं से भर गया था।मगर ये खबरें तुम तक नहीं पहुँची।इसमें मेरा क्या दोष ? मैं यह सब कहना चाह रहा था,पर कहा नहीं।आगे और कठिन सवाल हो सकते थे।और जवाब देने का मेरा मूड क़तई नहीं था।


पर मन तो ख़राब हो ही गया था।बहलाने के ख़याल से मैंने सोशल मीडिया का रुख़ किया।शायद कोई हो जो मेरी तरह उसकी भी भावनाएँ आहत हुई हों।सबसे पहले पथिक जी की पोस्ट पर नज़र गई।वे अल्ट्रा-वरिष्ठ हैं।भले ही लेखन में कोई क़ायदे का सम्मान नहीं मिला हो पर सालों से वरिष्ठता को दबोचे हुए हैं।उन्होंने अज्ञात जी को दिल खोलकर बधाई दी थी।मेरा दिल एकदम से बैठ गया।उनसे तो यह उम्मीद नहीं थी।फ़ोन पर जब भी उनसे बात होती,उनके लेखन में हज़ार कमियाँ निकालते।आज कह रहे हैं कि अज्ञात जी ने लेखकों के लिए नया रास्ता खोल दिया है।वे हमारी प्रेरणा हैं।पोस्ट पर धड़ाधड़ टिप्पणियाँ आ रही थीं।मैंने दूसरे मित्र को फ़ोन किया जो बरसों से इस सम्मान की लाइन में खड़े हैं।उन्होंने बताया कि पथिक यह सब इसलिए लिख रहा है क्योंकि सम्मानदाता उसकी मित्र-सूची में हैं।


यह सुनते ही मेरा दिमाग़ ठिकाने आ गया।शायद सम्मानदाताओं की दृष्टि मुझ पर भी पड़े,मैंने भी टिप्पणी जोड़ दी, ‘अज्ञात जी का अभी सही मूल्यांकन शेष है।वे इससे भी बड़े इनाम के हक़दार हैं।उन्हें सम्मान देने का निर्णय ऐतिहासिक है।’


संतोष त्रिवेदी 

रविवार, 5 फ़रवरी 2023

अमृत-काल का तिलिस्मी बजट

बजट का दिन था।सुबह से ही पेट में अफ़रा मचा था।‘कर्तव्य-पथ’ की झाँकी देखने के बाद हमारा यह दूसरा कर्तव्य था,जब हम बुद्धू-बक्से पर आँखें गड़ाए बैठे थे।साथ में भरोसे दद्दू भी थे।वे बार-बार उचक रहे थे।हमसे ज़्यादा उन्हें इस मौक़े का इंतज़ार था।आख़िरकार सरकार जी ने अपनी पिटारी खोली।काफ़ी देर तक बड़ी गंभीर किसिम की बातें होती रहीं,जो हमारे भेजे में जाने को तैयार ही नहीं थीं।हमें तब भी भरोसा था कि गंभीर-मंथन से कुछ न कुछ तो निकलेगा ही।बजट आने से दो दिन पहले ही सरकार ने स्वयं हलवा चखा था।उसी हलवे का मज़ा अब हमें भी चखाएगी।यह सोच ही रहा था कि अचानक सत्ता-पक्ष की ओर से ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ पीटी जाने लगीं।तभी सरकार जी ने फट्ट से घोषणा कर दी कि हम ‘अमृत-काल’ में प्रवेश कर चुके हैं और यह ‘अमृत-काल’ का पहला बजट है।यह सुनकर हमारे साथ बैठे भरोसे दद्दू का बचा-खुचा भरोसा भी उठ गया,जो यह समझे बैठे थे कि ‘निर्मम’ सरकार का यह आख़िरी बजट है।इसी इंतज़ार में उन्होंने बहुत सारा ‘विष-पान’ किया है।‘अमृत-काल’ में वह चरस कैसे बोएँगे,अब यह बड़ी चिंता थी।


मेरी चिंता दूसरी थी।सारे कर देने के बाद भी जो आय बचेगी,उसका हम करेंगे क्या ? सरकार को इतनी भी छूट नहीं देनी चाहिए कि कर्मचारी अपनी आय से प्यार करना ही बंद कर दे।बहरहाल,हमने अपनी चिंता को परे धकेला और दद्दू की चिंता पर सवार हो गए, ‘आप तनिक भी मत घबराओ।विष-वर्षा का समय गया।अब केवल अमृत बरसेगा।हमने तो पहले ही आपसे कहा था कि यह सरकार बड़ी कारसाज है।कुछ बड़ा करेगी।इतने सालों में जो हुआ,अच्छा हुआ।देख लीजियेगा,इस अमृत-काल में मँहगाई और बेरोज़गारी को सिर छुपाने की जगह भी नहीं मिलेगी।अब आप जो भी ‘विष-वमन’ करेंगे,वह अमृत हो जाएगा।’ हम दद्दू की हौसला-अफ़ज़ाई कर ही रहे थे कि विपक्षी-ख़ेमे की तरफ़ से सदन में हो-हल्ला शुरू हो गया।यह देखकर भरोसे दद्दू के प्राणों में नव-संचार हो गया।उन्हें लगा कि उनके ‘विषाधिकार’ पर कोई तो है,जो आवाज़ उठा रहा है।इधर हमें हलवे का स्वाद कसैला लगने लगा।हम भारी असमंजस में थे।दद्दू इधर-उधर टहलने लगे।सुकून उन्हें भी नहीं मिल रहा था।हम चैनल-चैनल भटकने लगे।कहीं भी आत्मा को शांति नहीं मिल रही थी।अचानक एक चैनल पर हम दोनों की निगाह बर्फ़ की तरह जम गई।


ग़ज़ब दृश्य था।आसमान में एक मचान बँधा हुआ था।चार चैनल-चंचलाएँ चर्चा को शिखर पर ले जाने को बेताब थीं।तीन विशेषज्ञ कमर में बजट को पेटी की तरह बाँधे हुए दिख रहे थे।दस कैमरे ज़मीन पर और पंद्रह मचान पर तैनात थे।चैनल का दावा था कि उसकी सतर्क निग़ाह से अब कुछ नहीं बचेगा।बजट की क्या मजाल जो उससे रत्ती भर भी बच जाए ! उनका चैनल हवा में बातें ही नहीं करता,देखता भी है।हवा से ही उनकी टीम ज़मीनी सचाई परख लेगी।हमारी नज़रें उसी चैनल पर टिकी रहीं।बहुत बाद में यह मालूम हुआ कि हम देख भी रहे हैं ! 


एक समाचार-सुंदरी ने हमारा बजट-बोध कराते हुए कहा, ‘अमृत-काल’ में पेश किया गया यह ऐतिहासिक बजट है।इसकी चर्चा के लिए हमारे पास अलग-अलग दृष्टि रखने वाले विशेषज्ञों का पैनल है।जो सबसे बाईं ओर बैठे हैं,उनके पास ‘विकट-दृष्टि’ है।इन्हें अपने आसपास विकट के सिवा कुछ नहीं दिखता।जो सज्जन बीच में विराजमान हैं,उनके पास ‘गिद्ध-दृष्टि’ है।इनकी विशेषता है कि इन्हें बहुत दूर का दिखता है,पास का बिलकुल नहीं।और आख़िर में दाईं ओर जो महामना तनकर बैठे हैं,उन्हें ‘दिव्य-दृष्टि’ प्राप्त है।इनकी ख़ासियत है कि इन्हें वह भी दिखता है,जो होता ही नहीं।यह जो दिखाते हैं,लोग वही देखने लगते हैं।कुछ मूढ़ इसे चमत्कार कहते हैं पर यह इनकी योग-साधना है।


दूसरी चैनल-कन्या ने विमर्श को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘मेरा पहला प्रश्न विकट-दृष्टि जी से है।इस बजट को आप कैसे देखते हैं ?’ उन्होंने उँगली उठाते हुए कहा, ‘मैं इन लोगों से शुरू से ही कह रहा हूँ,पर इन्हें कुछ नहीं दिखता।यह बजट गरीब-विरोधी है।अगर सरकारी दावे के हिसाब से ग़रीबी दूर होगी तो बताओ,गरीब कहाँ जाएगा ? इसलिए यह बजट भी इनके वादों की तरह झूठा है।’


‘और आपकी इस पर क्या राय है ? आप ‘अमृत-काल’ के आगमन पर क्या सोचते हैं ?’ चैनल-चंचला ने ‘गिद्ध-दृष्टि’ वाले सज्जन की ओर ताकते हुए पूछा।‘मुझे तो पिछले आठ सालों से दिख रहा है।चुनाव आता है।सरकार आती है।बजट आता है।इसमें नया क्या है ? रही बात ‘अमृत-काल’ की,तो यह सरकार की साज़िश है।वह इसी बहाने अमृत पीकर अमर होना चाहती है।मैं तो देख रहा हूँ कि आगे चुनाव ही नहीं होंगे।’


यह सुनते ही ‘दिव्य-दृष्टि’ वाले सज्जन एकदम से उखड़ गए।मचान का एक पाया उखाड़कर वे कहने लगे,‘यह राष्ट्र-बजट का घोर अपमान है।कोरोना-काल के बावजूद सरकार अमृत-काल खींच लाई है,यह कम उपलब्धि है ?’ यह सुनते ही बाक़ी दोनों सज्जन पेटी खोलकर खड़े हो गए।इससे विमर्श में संतुलन बिगड़ गया।पूरा चैनल ज़मीन पर आ गिरा।मचान टूट गया पर बजट का तिलिस्म नहीं टूटा।ग़नीमत रही कि किसी की हड्डी नहीं टूटी।दद्दू बोले, ‘यह अवश्य ही अमृत-काल का प्रताप है।’


बाद में अख़बार में पढ़ा कि अमृत-काल के पहले बजट को अब घर-घर जाकर समझाया जाएगा।


संतोष त्रिवेदी 


रविवार, 8 जनवरी 2023

इस अँधेरे को हमारे पास रहने दो !

अँधेरे को लेकर कभी एक राय नहीं रही।ज़्यादातर लोग इसे अच्छा नहीं मानते या इससे डरते हैं।पर बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं जिनको अँधेरे से ही मुहब्बत है।यह साहित्य और राजनीति दोनों जगह हिट है।जितना घना अँधेरा हो,कविता में उतनी ही अधिक उजास होती है।इसे प्रतीक मानकर जाने कितना साहित्य रचा जा चुका है।इसके बाद भी इसके गुणों का बख़ान पूरा नहीं हो पाया।आज भी कई कवि इसी अँधेरे को बेचकर ख़ुद के लिए उजाले का इंतज़ाम कर लेते हैं।अँधेरे पर लिखी गई कविता एक साथ कई निशाने साधती है,इसलिए कवियों की पहली पसंद अँधेरा ही है।वे कभी नहीं चाहते कि इसका अस्तित्व समाप्त हो।एक प्रमुख कवि ने तो अँधेरे पर सबसे लंबी कविता लिखी थी।शायद उनको बोध हो गया था कि उनकी मुक्ति अँधेरे से ही होगी।


काव्य में अँधेरे की ऐसी घुसपैठ के चलते मेरी धारणा इसके प्रति औरों से अलग रही।मैंने इसे कभी नकारात्मक रूप से नहीं लिया।मेरे जीवन में जब भी घना अँधेरा छाया,मैं चिंतामुक्त हो गया।उजास को मजबूरन मेरा दामन पकड़ना पड़ा।इसलिए मेरे लिए तम की काली छाया हमेशा आशावाद की सूचक रही।जब तक मैं उजाले में रहा,डर में रहा,अँधेरे का अवसाद रहा।इस तरह मैंने जाना कि मेरी सहज और स्वाभाविक स्थिति अँधेरा ही है।इसलिए साहित्य में मैंने हमेशा अँधेरा फैलाया।जिस काम के लिए मुझे प्रशंसा मिलनी चाहिए,उसके लिए कुबुद्धिजीवियों ने मुझे लानत भेजी।फिर भी मैं अपने पक्ष पर दृढ़ता से डटा रहा।कम से कम यह इस बात का प्रमाण है कि मैं उच्चकोटि का विचारक और बुद्धिजीवी तो हूँ ही।


साहित्य के माध्यम से समय-समय परअँधेरे से उजाले की ओरका आह्वान यूँ ही नहीं किया गया।अधिकतर लोग इसे उजाले की प्रतिष्ठा के रूप में देखते हैं पर वे इसके पीछे के रहस्य को अनदेखा कर जाते हैं।सीधा मतलब है कि उजाले में आने के लिए पहले अँधेरा पैदा करना ज़रूरी है।इसलिए हमें उन तमाम लोगों का आभारी होना चाहिए जिनकेसद्प्रयासोंसे साहित्य,राजनीति,धर्म,कला सहित समाज के सभी क्षेत्रों तक अँधेरे का समुचित प्रसार हो सका।प्राचीन काल सेतमसो मा ज्योतिर्गमयका पाठ भी इसकी तस्दीक़ करता है कि प्रकाश की ओर जाने का रास्ता अँधेरे से ही निकलता है।



राजनीति को भी साहित्य की तरह अँधेरा अधिक पसंद है।इसकी मुख्य वजह अँधेरे का काला होना है।कालेपन की ख़ासियत है कि इस पर कोई दाग नहीं लगा सकता।आज के समय में सफ़ेद होना सबसे ख़तरनाक है।पता नहीं,कब कोई उसकी सफ़ेदी को सरेआम काला कर दे।इसलिए अब राजनीति में वही लोग प्रवेश करते हैं,जिन्हेंसफ़ेदीसे एलर्जी होती है।वे राजनीति में बाय-डिफ़ॉल्ट काले और दाग़ी ही आते हैं।इससे भविष्य में उनके दाग़दार होने का अंदेशा भी नहीं रहता।राजनीति के लिए अँधेरा होना बेहद ज़रूरी है।लोगों की ज़िंदगी से इसी को मिटाने का बार-बार संकल्प लिया जाता है।इस चक्कर में ज़िंदगी मिट जाती है,पर अँधेरा बचा रहता है।इसके सहारे चुनाव जीते जाते हैं।रोशनी का सपना दिखाया जाता है।चुनाव संपन्न होते ही उजाला फटता है।लोगों की तकलीफ़ का प्रमुख कारण यही साबित होता है।लोग फिर से अपने अँधेरे को याद करते हैं और वह तुरत हाज़िर होता है,जैसे कहीं गया ही हो ! यह अजर-अमर है।सदियों से है,सदियों तक बना रहेगा।इसलिए सबका ध्येय वाक्य हैअँधेरा क़ायम रहे !’


बात अँधेरे की हो तो कालिमा या कालिख़ के बिना अधूरी रहेगी।जितनी ज़्यादा कालिख़ पुतती है,अँधेरे की गुंजाइश बढ़ जाती है।जितना उजला और झक सफ़ेद हो,उस पर उतनी ही कालिमा फबती है।काले कारनामे में एक-दो बार कालिख और पुत गई तो क्या फर्क पड़ता है ! कालिमा इसीलिए सहज होती है और मौलिक भी।उजले और धुले वस्त्र अंततः कालिख की गति को ही प्राप्त होते हैं जबकि कालिमा कभी भी धवल और उज्ज्वल नहीं हो सकती।सूरदास जी बहुत पहले ही यह कह गए हैं, ‘काली कामरी में चढ़े दूजो रंग।अँधेरे का काला रंग बाक़ी सभी रंगों को आत्मसात कर लेता है,इसीलिए इसकी महत्ता है।सब इसे ओढ़ना चाहते हैं।


समाज की सारी विशिष्ट कलाएं इसी की शरण में फलती-फूलती हैं।सबसे बड़ा समाजवाद अँधेरे का होता है।इसमें छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं रहता।न किसी का सूट-बूट दिखता है यह कि कौन लंगोटी में है ! अँधेरा गरीब का पक्षधर है।उसके खाली पेट को ढाँपता है।अमीर को और समृद्ध होने की राह दिखाता है।काला इसीलिए सबका अभीष्ट है,फ़िर चाहे वह धन हो या मन।अँधेरे की जड़ में यही काला रंग है।इससे उपजी कालिख़ संभावनाओं के नये द्वार खोलती है।कालिख लगना कलियुग का प्रताप है।जिसे लग गई वह देश का भविष्य बन जाता है।इसलिए कालिख से नहीं उजाले से डरो।उजाला विकास का शत्रु है,भेदिया है।और भेदिये देशद्रोही होते हैं।


इसलिए जब भी अँधेरा छँटे,सतर्क हो जाओ।उजास दुःख देता है,सपने भी नहीं लेने देता।अँधेरा हो तो आदमी,कुछ नहीं,सपने तो देख ही सकता है,उम्मीद पाल सकता है,प्रतीक्षा करना सीख जाता है।अब इससे ज़्यादा अकेला अँधेरा इस आदमी के लिए और क्या कर सकता है !


सम्मान की मिनिमम-गारंटी हो !

सुबह की सैर से लौटा ही था कि श्रीमती जी ने बम फोड़ दिया, ‘यह देखो,तुम्हारे मित्र अज्ञात जी को पूरे चार लाख का सम्मान मिला है।तुम भी तो लिखते...