रविवार, 29 दिसंबर 2024

नया साल और बदलाव

साल बदलने जा रहा है।इसके साथ बहुत कुछ बदलने वाला है।अवश्य ही उन लोगों की आत्मा को ठंडक पहुँचेगी जो हर पल बदलाव की रट लगाए रहते हैं।गर्म मौसम में जहाँ उन्हें सर्द चाँद की दरकार होती है,वहीं हाथ-पाँव सुन्न होते ही इन्हें चमकता सूरज चाहिए।ऐसी बदलाव-आतुर जनता जिस सरकार को मिल जाए,सोचिए उसका क्या होगा ! कई सरकारें महज़ इस बात पर बदल जाती हैं कि जनता बस बदलाव चाहती है।


साल बदलते ही हमारे दुःख भी बदल जाते हैं।पुराने दुःखों की जगह नए ले लेते हैं।दुःख हमेशा पूरा आता है जबकि सुख आधा-अधूरा।साल बदलने से हाल बदल जाता है,यह बात हमारे अंदर घुस चुकी है।इसी भरम में हम दनादन शुभकामनाएँ लेते और देते हैं।हमें हर वक़्त कुछ कुछ बदलते हुए दिखना चाहिए।इसके लिए हरदम मचलते रहते हैं।ज़्यादा कुछ नहीं तो बैठी हुई चिड़िया फुर्र से उड़ जाए या चलती हुई सरकार ही धम्म से गिर जाए ! नए साल से इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है।


ऐसा नहीं है कि केवल जनता ही ऐसा सोचती है।हमारी सरकार भी बदलाव के लिए सदैव प्रतिबद्ध रहती है।वह सत्ता में आती ही है बदलाव के नाम पर।इसलिए हर समय प्रयासरत रहती है।सत्ता में आने के बाद वह कभी नाम बदलती है,कभी दाम।जब उसे कुछ नहीं सूझता,बढ़े हुए टैक्स को और बढ़ा देती है।उसका यह ख़ास काम है।इससे माहौल अपने आप बदलने लगता है।लोग खुदाई और मँहगाई भूलकर टैक्स नियमों की खिंचाई में लग जाते हैं।सरकार इसकी सफ़ाई में व्यस्त और जनतारीलमें मस्त हो जाती है।मीडिया में मुद्दे हर पल बदलते रहते हैं।जो सरकार यह कारनामा कर लेती है,वह लंबे समय तक टिकी रहती है।


बदलाव को लेकर सबसे ज़्यादा चिंतित बुद्धिजीवी रहते हैं।यथास्थिति को स्वीकार करने वाला बुद्धिजीवी हो भी नहीं सकता।इसलिए वे सदैव सक्रिय रहते हैं।कुछ लोग देश बदलने की सोचते हैं तो कुछ राजनीति।ये सब नहीं बदल पाते तो पल भर में विचारधारा बदल लेते हैं।इससे एक झटके में सब बदल जाता है।जो विचार देश के लिए ख़तरनाक होता है,वह तत्काल-प्रभाव से देशहित में हो जाता है।सियासत हो या साहित्य ,विचार को धारा में बहाने भर से असीमित लाभ मिलते हैं।इन दोनों क्षेत्रों में यह प्रयोग ख़ूब सफल है।


हमारे यहाँ बदलने की रफ़्तार फ़िलहाल ज़्यादा है।कुछ को लगता है पिछले सत्तर साल में बदलाव धीरे-धीरे आया।कुछ लोग मानते हैं कि कुछ नहीं बदला।जो बदला है पिछले दस साल में ही बदला है।किसी को लोकतंत्र कभी ग़ायब हुआ दिखता है तो किसी को लगता है कि आज़ादी अभी अभी आई है।बस इस बदलाव को देखने और महसूसने की दृष्टि चाहिए।यह बदलाव तब साफ़ दिखता है, जब आँखों में अपनी प्रिय दुकान का चश्मा लगा हो।


सरकार को इस बात का आराम ज़रूर है कि उसके ख़िलाफ़ जो लड़ाई सड़क पर लड़ी जाती थी,अब डिजिटल प्लेटफॉर्म तक सीमित रह गई है।यह लोकतंत्र का नवीनतम बदलाव है।लोगों की राजनैतिक विचारधारा आपसी रिश्तों से लगाव को ख़त्म कर रही है।इससे एक ज़बरदस्त फ़ायदा हुआ है।मोह-माया छूटने में आसानी हुई है।आधुनिक घर वास्तविक रूप से लोकतांत्रिकसदनका अहसास देते हैं जिसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों साथ-साथ रह रहे हैं।दोनों को लगता है कि बिना धक्कामुक्की किए देश आगे नहीं बढ़ सकता।खुशी इस बात की है कि इस बात से किसी को धक्का नहीं लग रहा।


सबको लगता है कि नया साल सबके लिए ख़ुशियाँ लाता है।कई लोगों को बाद में महसूस होता है कि उनके साथ धोखा हुआ है।दरअसल यह साल बहुत बुरा था।किसी को टिकट मिलते-मिलते रह गई और किसी को फ़लाँ पुरस्कार दिया ही नहीं गया।किसी के सिर का ताज और किसी के सिर लग गया और बॉस की समुचित सेवा के बाद भी विभागीय पदोन्नति कोई और ले गया।बीता साल इतना भी अच्छा नहीं बीता।


इन सारी आशंकाओं के बावजूद हर आदमी एक-दूसरे को नए साल की शुभकामनाएँ देता है।पिछले कई सालों से वह बराबर दे रहा है ।कई उल्लेखनीय बदलाव हुए भी हैं।कुछेक ऐसे हैं जिनका ज़िक्र ज़रूरी है।


जिस रूपये के थोड़ा गिरने पर पहले आँखें चढ़ जाती थीं,पातालगामी होने पर अब स्वतः मुँद जाती हैं।युवा पहले रोजगार ढूंढ़ते थे,अब मंदिर-मस्जिद खोज रहे हैं।अखाड़ों में होने वाली कुश्ती सदन तक चली आई।इस मायने में यह अभूतपूर्व बदलाव हुआ है।अब सफल जनसेवक होने के लिए जूडो,कराटे,बॉक्सिंग और नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा का विद्यार्थी होना ज़रूरी है।इससे सदन में बहस हो हो बोरियत नहीं होगी।उम्मीद है नए साल में इससे भी ज़्यादा बदलाव होगा !


संतोष त्रिवेदी

रविवार, 1 दिसंबर 2024

धुंध भरे दिन

इस बार ठंड ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी कि राजधानी ने काला कंबल ओढ़ लिया।वह पहले कूड़े के पहाड़ों के लिए जानी जाती थी,अब उस पर रोज़ाना आसमान से काले पहाड़ टूट रहे हैं।जहाँ कूड़े के पहाड़ से कुछ लोग ही लाभान्वित हो पा रहे थे,वहीं आसमानी-पहाड़ सभी को समान अवसर दे रहे हैं।यहाँ तक कि राजधानी से निकटता रखने वाले मनुष्य भी स्वर्गिक-सुख का उतना ही आनंद उठा रहे हैं।यहाँ अब कोई ख़ास नहीं रहा, सबआमहो गए हैं।समाज में जो समानता सरकार नहीं ला पाई,उसे इस नश्वर धुंध ने साकार कर दिया है।

राजधानी की हवा में ऑक्सीजन के अलावा सब कुछ है।जानकार कहते हैं इसकी हवा में ही ज़हर है।मौक़े का फ़ायदा उठाकर कुछ अफ़वाहें भी इसमें शामिल हो गईं हैं।बड़ी बात यह कि वे सच भी हो रही हैं।हालाँकिधुंध में साँस लेना दूभर हैजैसी बेसिर-पैर की अफवाहें भी फैलाई जा रही हैं जबकि गद्दियों में बैठे जनसेवक सरे-आम सुकून की साँस लेते देखे जा सकते हैं।कई नेता नए ठिकानों मेंएडजस्टहो रहे हैं।जिस दल में उनका दम घुटने लगता है,उसे झट से छोड़ देते हैं।यह सुभीता भी उन्हें धुंध दे रही है।उनके चेहरों में जो कालिख़ पुती है वह महज़ धुंध की वजह से बताई जा रही है।इसका अनैतिकता,भ्रष्टाचार या कदाचार से कोई संबंध नहीं है।


धुंध सबके लिए बड़े काम की चीज़ है।उसने सबको काम पर लगा दिया है।बच्चे स्कूलों से मुक्त होकर मोबाइल से खेल रहे हैं।उनकी माताएँ ऑफ़िस के बजाय घर पर ही रील बना रही हैं।जो लोग कार्यालय में काम के समय सोते थे,वे अब ऑनलाइन जम्हाई ले रहे हैं।बाज़ार को भी धुंध ने क़ायदे से संभाला है।मास्क और खाँसी के सिरप ऑउट ऑफ़ स्टॉक हो गए।टीवी की प्राइम-टाइम बहस को नई ऊँचाई मिली है ।एंकर वातानुकूलित कक्षों में मास्कित होकर प्रदूषण पर अंतरदेशीय मिसाइल छोड़ रहे हैं।धुंध के आते ही सोई हुई आलोचनाएँ सक्रिय हो उठी हैं ।आजकल मनुष्य की आलोचना करना सबसे ख़तरनाक काम है।और यदि वह नेता,लेखक या अफ़सर हुआ तो आलोचना जानलेवा भी हो सकती है।इसलिए धुंध पर अंधाधुंध फायरिंग हो रही है।इसमें कोई ख़तरा नहीं है।


सबसे चिंताजनक बात यह है कि दीवाली और पराली को इस बार ख़ास वेटेज नहीं मिला है।इससे साबित होता है कि धुंध अब पूरी तरह आत्मनिर्भर हो चुकी है।घर से लेकर बाहर तक वही छाई हुई है।ऐसे ही एक अँधियारे दिन राजधानी में चिंतन-बैठक का आयोजन हुआ।पूरे देश में प्रदूषण फैलाने वाले सभी क़ाबिल पत्रकार वहाँ मौजूद थे।वे पर्यावरण जी के स्वास्थ्य के प्रति बेहद चिंतित दिखे।हल्ला तब मचा जब धुंध अपने प्रेमी प्रदूषण के साथ वहाँ पधारी।वह इस बात से बेहद ख़फ़ा लग रही थी कि किसी ने उसका वास्तविक पक्ष नहीं समझा।पर्यावरण जी कोने में अधमरे-से बैठे थे।पत्रकारों की चिंता के बाद से उनकी हालत और पतली हो गई थी।उनको ऐसी अवस्था में देखकर प्रदूषण और धुंध ने भी चिंता व्यक्त की।दोनों ने पर्यावरण जी को परामर्श दिया,‘आप वरिष्ठ हो गए हैं।अपना ध्यान रखिए।अब आप सिर्फ़ गोष्ठियों और विमर्श में बचे हैं।हम जैसे युवाओं की वज़ह से ही आप प्रासंगिक हैं ,इस बात को हम भूलने देंगे और ये गोष्ठियाँ।


पर्यावरण जी पहले से ही मरणासन्न थे,यह सुनकर और सुन्न हो गए।तभी गोष्ठी ने पर्यावरण जी को बचाने के लिए एक अभियान शुरू करने की घोषणा कर दी।उन्हें तुरंत होश गया।धुंध और प्रदूषण को करारा जवाब दिया ,‘तुम अभी बच्चे हो।मौसम की तरह आए हो,चले भी जाओगे।मैं सदाबहार हूँ और ग्लोबल भी।मुझे बचाने को पूरी दुनिया जुटी हुई है।कइयों की रोज़ी-रोटी मेरे सहारे चल रही है।वे मुझे मरने देंगे, मैं उन्हें।इसलिए तुम अपनी चिंता करो।


तभी वहाँ अचानक बारिश होने लगी।गोष्ठी में बैठे लोगों में हड़कंप मच गया।लोग डर गए कि बिन मौसम और बिन बादल बरसात कैसे होने लगी ! कुछ खोजी पत्रकारों ने ब्रेकिंग न्यूज़ दी कि पर्यावरण जी की सेहत के लिए उन्हें नक़ली बारिश की डोज़ दी जा रही है।यह जानकर सबने धुंध-भरी साँस ली।इससे धुंध और कमजोर हुई।अपने ख़िलाफ़ माहौल बनते देखकर धुंध अपने प्रेमी प्रदूषण के साथ भागने लगी तभी पर्यावरण जी ने ललकारा,  ‘रुको ज़रा।अभी मेरेसम-विषमआते होंगे ! उनसे तो निपट लो !’


तभी एक युवा पत्रकार ने घोषणा की, ‘चुनाव परिणाम गए हैं।धुंध अब साफ़ हो चुकी है।


संतोष त्रिवेदी 


नया साल और बदलाव

साल बदलने जा रहा है।इसके साथ बहुत कुछ बदलने वाला है।अवश्य ही उन लोगों की आत्मा को ठंडक पहुँचेगी जो हर पल बदलाव की रट...