रविवार, 14 मई 2023

वायरस की चपेट में !

बिस्तर में जाने की तैयारी में था कि मेरे ह्वाट्सऐप पर दन्न से सर्जिकल स्ट्राइक हुई।आशंका तो मुझे पहले से ही थी पर रपट पढ़ने के बाद पुष्टि भी हो गई।मेरे शरीर के अंदर ख़तरनाक वायरस मिला था।यह खबर दूसरी लहर में आई होती तो प्राण वैसे ही सूख जाते।वायरस को अतिरिक्त मेहनत न करनी पड़ती।बहरहाल,वायरस तो वायरस है,डर लगता ही है।रपट पढ़कर अंदर से तो मैं डर गया पर प्रकट रूप से यही मान लिया कि कई बार रपट ग़लत भी हो जाती है।आदमी उसी बात को ज़्यादा मानता है,जो उसके लिए मुफ़ीद होती है।इस लिहाज़ से भी मैं एक आदमी ठहरा।यही सोचकर निडरता की चादर ओढ़कर सो गया।लेकिन कहते हैं ना कि जैसा सोचो,ज़रूरी नहीं वैसा ही दूसरे भी सोचें।मैंने इस वायरस के बारे में निजी तौर पर किसी को जानकारी नहीं दी थी पर मेरे शुभचिंतक मुझसे भी चतुर निकले।पता नहीं कहाँ से उन्हें सुराग मिल गया और इसकी चर्चा मेरे जगने से पहले अंतरजाल में वायरल हो गई।इस बात का पता मुझे तभी चला जब अलस्सुबह मेरे मित्र अजातशत्रु जी का फ़ोन घनघना उठा।


‘अजी,क्या हुआ ? तुम तो बड़ा परहेज़ बरतते हो।इंटरनेट मीडिया पर भी कभी कुछ नहीं बोलते।किसान,जवान,पहलवान तुम्हारे लिए महज़ तुकबंदी हैं।तुम अपने काम से काम रखने वाले मनई हो।यह ससुरा वायरस तुम्हारे अंदर कैसे प्रविष्ट हो गया ?  लापरवाह तो तुम शुरू से ही हो,बीमार भी हो गए ? ’ वे धाराप्रवाह बोलते गए।जैसे ही उन्होंने साँस ली,मैंने दख़ल देना ज़रूरी समझा।अब तक मुझे तनिक होश आ चुका था।मैंने मित्र पर साहित्यिक-हमला बोल दिया, ‘देखिए,मैं तुम्हारी तरह अजातशत्रु नहीं हूँ।तुम संतुलन साधने में माहिर हो।अन्तर्जाल हो या साहित्य,सबसे मिलकर चलते हो।इसलिए मिट्टी में नहीं मिल सकते।अपना क्या है ! दूसरों की जितनी फ़ैन-फॉलोइंग होती है,उससे ज़्यादा मेरी दुश्मन-फॉलोइंग है।वरिष्ठ मुझे ठीक से देखते तक नहीं कि कहीं उन्हें मुझसे प्यार न हो जाए।समकालीन इस डर से मुझे पढ़ते तक नहीं कि कहीं उनका लेखन बंद न हो जाए।और कनिष्ठों को क्या कहें,वे सिर्फ़ लिखना चाहते हैं,किसी को पढ़ना नहीं….।’ मेरी बात बीच में ही काटकर शत्रु बोले, ‘भई मैं तो तुम्हारी बीमारी और वायरस के बारे में चिंतित था।अब पुष्टि हो गई कि वाक़ई,ख़तरनाक वायरस घुस गया है;तुम्हारे शरीर में और दिमाग़ में भी।पता नहीं कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो ! मैं वायरस की पूछता हूँ तो तुम साहित्य में घुस जाते हो।जब कविता लिखना होता है तो कहानी लिखने लगते हो।पूरे अन्तर्जाल में तुम्हारे लिए दुआएँ माँगी जा रही हैं।तुम्हारे लेखन से ज़्यादा तुम्हारे वायरस ने तुम्हें हिट कर दिया है।मुझे इसकी चिंता है।’ कहकर लंबी साँस ली।


‘नहीं,नहीं बिलकुल नहीं।मैं तुम्हारी वायरस वाली चिंता समझता हूँ।जानकर तुमको निराशा होगी कि इसकी मारक-क्षमता पहले जैसी नहीं रही।बिलकुल मॉडर्न वैरियंट है।बाज़ार में नया है।कुछ दिन बीमार करता है फिर ‘हफ़्ता’ लेकर चला जाता है।इसकी ख़ासियत है कि यह अपडेटेड है।और तुम तो जानते ही हो,मैं कितना अपडेटेड आदमी हूँ।गैजेट हो,गाड़ी हो,दोस्त हों या सरकार ,मैं हमेशा नए मॉडल पसंद करता हूँ।पुरानी चीजों का मोह नहीं करता।उन्हें अफ़ोर्ड करना महँगा होता है,और कुछ काम भी नहीं आतीं।भले वायरस ने नए वैरियंट के साथ मुझे धर लिया हो लेकिन इसे नहीं पता कि किससे पाला पड़ा है।जिस तरह धीरे-धीरे मेरे लेखन से सरोकार ग़ायब हुए हैं,यह नामुराद वायरस भी दफ़ा हो जाएगा।अंत सबका होता है,इसका भी होगा।बहरहाल,तुमने जो मेरी चिंता की,उसके लिए हमेशा आभारी रहूँगा।’ मैंने अपनी तरफ़ से बीज-वक्तव्य दे दिया था।


मित्र को अभी भी संतोष नहीं हुआ।बूस्टर-डोज़ देने लगे, ‘देखिए,तुम जैसे भी हो, बने रहो।तुम्हारा बचे रहना साहित्य और मेरे दोनों के लिए ज़रूरी है।तुम्हारे लेखन की तुलनात्मकता से ही मेरी प्रतिष्ठा अभी तक बची हुई है।इसलिए बचे रहने के कुछ सूत्र अवश्य दूँगा।इस वक़्त सबसे ज़रूरी है कि अपनी इम्यूनिटी और कम्यूनिटी दोनों को मज़बूत करिए।इससे तुम्हारे अंदर ‘एंटी-बॉडी’ विकसित होगी और ‘एंटी-नेशनल’ ताक़तों से भी बचोगे।ख़ुद से ज़्यादा मुझे तुम्हारी फ़िक्र है।मुझे निराश मत करना।अब फ़ोन रखता हूँ।अगले साहित्योत्सव की तैयारियाँ भी करनी हैं।’ 


फ़ोन तो कट गया पर जाते-जाते मित्र ने मेरे अंदर के वायरस को और सक्रिय कर दिया।साहित्योत्सव के मंच पर हर बार मेरी कुर्सी होती है।इस बार भी होगी? यह सोच ही रहा था कि पता नहीं श्रीमती जी कहाँ से ‘काँपा’ लगाए बैठी थीं,अचानक सामने प्रकट हो गईं।कहने लगीं, ‘ई कौन-सा भायरस की बात हो रही है जी ? हमको भी कुछ बताइएगा ?’ 


‘अरे कुछ नहीं भागवान ! बस रपट में गलती से पॉज़िटिव आ गया है।जल्द से फिर निगेटिव हो जाऊँगा।’ मैंने उन्हें दिलासा दी।पर वो कहाँ मानने वाली थीं। ‘ई तुम्हरा दोस्त-ऊस्त इसमें कुछ नय करेगा।दिन में तीन बार टीवी में न्यूज़वा देख लो।बॉडी में एतना टॉक्सिक हो जाएगा कि ‘एंटी-बॉडी’ क्या ‘एंटी-ह्यूमन’ भी बन जाओगे।ससुरा भायरस कुछ नय बिगाड़ पाएगा।’


अब मुझे पक्का यक़ीन हो गया कि रपट बिलकुल झूठी है।देह में वायरस के रुकने की जगह ही कहाँ बची है ?


संतोष त्रिवेदी 

रविवार, 16 अप्रैल 2023

लुगदी-लेखन मुख्य-धारा में कूदा

जब यह ख़बर आई कि एक विश्वविद्यालय नेलुगदी-लेखनको मान्यता दी है,मुझे अपार ख़ुशी हुई।मैं सीधे अपने स्कूली दिनों में  पहुँच गया।उस वक़्त शर्मा,पाठक,नंदा और बाजपेयी आदि की ऐसी लत लगी थी किकेमिस्ट्रीऔरअलज़ेब्राके बजाय दिन भर मैं सस्पेंस और थ्रिलर की दुनिया में खोया रहता था।स्कूली-किताबें जहाँ काटने को दौड़ती थीं,वहीं घर-परिवार में प्रतिबंधित किताबें छुप-छुप के पढ़ता रहता।सभ्य समाज में यहलुगदी-लेखनवर्जित था।उस समय अपन को लेखन के किसी टाइप का पता नहीं था।बस,रोमांटिक और जासूसी किताबें परमानंद देती थीं।इनकी वजह से पढ़ाई से मन एकदम उचट गया था।नतीजा यह हुआ कि किसी तरह से बस पास भर हो पाया।यदि उस जमाने में आज वालीस्कीम जाती, तो विद्या-क़सम,पूरे प्रदेश में टॉप करता


लेकिन यह मेरी सोच थी।इस फ़ैसले का ताप मापने के लिए मैं सोशल-मीडिया में गया तो वहाँ थर्मामीटर चटकने से बाल-बाल बचा।साहित्य कीमुख्य-धारामें ज़बर्दस्त उबाल आया हुआ था।साहित्य में हुए इस हादसे के बाद से मुख्य-धारा के कई लेखक गंभीर रूप से घायल हुए थे।इनमें से एक बड़े पाठ्यक्रम-लेखक,जो मेरे परम मित्र हैं,कुछ ज़्यादा ही चोटिल लग रहे थे।आम जन का दुःख बयान करने में वह खूब अनुभवी हैं पर पहली बार उनका निजी-दर्द रिस रहा था।अब तक उन्होंने जो लिखा था,कहीं कहींफिटहो चुका था।तक़रीबन हर विश्वविद्यालय या बोर्ड में उनकी किताबें लगी हुई थीं।किंतु अब उन पर यह नई आपदा आई थी।


समाज और देश पर जब भी संकट आता है तो मेरे लेखक-मित्र सहजता से आँखें मूँद लेते हैं,पर यह बिलकुल अलग तरह का संकट था।वह सोशल-मीडिया पर बेक़ाबू हो गए, ‘यह संकट हम पर नहीं साहित्य पर गिरा है।हमारेक्लॉसिक-लेखनकोलुगदी-लेखनसेरिप्लेसकिया जा रहा है।यह छोटा-मोटा नहीं गंभीर ख़तरा है।आज इतिहास और साहित्य को मिटाया जा रहा है।इतिहास नहीं बचेगा तो हम बचेंगे, ही साहित्य।आज लुगदी-लेखन विश्वविद्यालयों की कक्षाओं में पढ़ाया जाने लगा है,तो कल को पुस्तकालयों में भी इन्हीं का क़ब्ज़ा होगा।कहाँ क्लॉसिक-लेखन और कहाँ यह लुगदी-लेखन ! क्लॉसिक वाले लेखन में कई तरह की संभावनाएँ मौजूद थीं।विद्वान पाठक शब्दार्थ के साथ भावार्थ भी ढूँढ़ लेते थे।पर अब क्या होगा ? पाठक को पढ़ते समय चिंतन की ज़रूरत पड़ेगी और गाइडकी।एक तरफ़ से पढ़ते जाओ,दूसरी तरफ़ से निकालते जाओ।लुगदी-लेखन दिमाग़ में ही नहीं टिक पाता फिर साहित्य में कहाँ टिकेगा ?’ इतने पर भी वह रुके नहीं।उन्होंने फिर आग बरसी, ‘बरसों से जो कृतियाँ ऐसे पुस्तकालयों में खप रही थीं,वहाँ से भी उनका पत्ता कट जाएगा।फिर उनकेलेखकबने रहने में भी ख़तरा होगा।वेमुख्य-धारासे ही बह जाएँगे।लोकतंत्र की हत्या के बाद लोक-साहित्य की हत्या की जा रही है।हम चुप नहीं बैठेंगे।


उनकी इस लंबी चिंता पर एक वरिष्ठ लेखक ने,जो क्लॉसिक के नीचे लिखते ही नहीं थे,बड़े मार्के की टीप दर्ज़ की, ‘ हमारी सबसे बड़ी चिंता सम्मानों को लेकर है।अभी कम मारामारी है,जो यह नई विधा भीकंपटीशनमें उतार दी गई ? यह संकट साहित्य से अधिक हमारे सम्मान का है।निराला,परसाई और मुक्तिबोध को जो मिलना था,मिल चुका।उन्हें हटाकर सरकार ठीक ही कर रही है।वे हटेंगे,तभी हमारे लिए जगह बनेगी लेकिन यह सरासर ग़लत है किलुगदी-लेखकोंको हमारे मुक़ाबले में खड़ा किया जाए।वैसे यदि सरकार को ऐसे लेखन से ज़्यादा प्यार है तो यह कमी हम स्वयं पूरी करते हैं।हमारा संपूर्ण लेखन उत्कृष्ट-क़िस्म की लुगदी से किसी प्रकार भी कम नहीं है।अभी तक प्रकाशक ने रॉयल्टी नहीं दी,कम से कम सरकार ही हमें इसका मुआवज़ा दे ! ’


दूसरी टीप इससे भी अधिक उल्लेखनीय थी।यह एक उभरते हुए कवि की थी, ‘हम अभी भी मुख्य मुद्दे से दूर हैं।सबसे बड़ा संकट कविता में आने वाला है।पारंपरिक साहित्य में कविताई का ख़ूब चांस है।लुगदी में केवलक्राइमहै,थ्रिल है,लोकप्रियता है।उपन्यास और कहानियाँ लिखने वाले तो फिर भीसर्वाइवकर जाएँगे,लेकिन दोस्तो,क्या आपने सोचा है कि कविता का क्या भविष्य होगा ? ‘लुगदी-लेखनमें कोई ऐसा उदाहरण अभी तक नहीं है।कविता के लिए वहाँ कोई जगह नहीं दिखती।


इस टिप्पणी के बाद चर्चा और उत्तेजक हो गई।एक सम्मानित-कवि ने कहा, ‘यह केवल समझ का फेर है।हमारी बोरी भर कविताएँ आज भी या तो प्रकाशक के यहाँ या पुस्तकालय में जमा हैं।सरकार चाहे तो इन्हेंलुगदी-लेखनकी मान्यता दे सकती है।वे अब मेरे और ही जनता के किसी काम की हैं।पाठ्यक्रम में लग जाएँ तो प्रकाशक का भी भला हो,हमारा भी।कम से कमरद्दी-लेखनके तमग़े से तो मुक्ति मिलेगी !’


जल्द ही यह पोस्ट वायरल होने लगी।जितनी तेज़ी से जंगल में आग नहीं फैलती (क्योंकि अब जंगल में पेड़ ही नहीं रहे ) उतनी तेज़ी से पाठ्यक्रम-लेखक की यह पोस्ट फैल गई।आख़िरकार एक ज़िम्मेदार शिक्षाशास्त्री ने स्थिति स्पष्ट की, ‘हमने अपनी तरफ़ से कुछ नहीं जोड़ा।जो उपेक्षित लेखक थे,उन्हें मौक़ा मिला है और केवल असुविधाजनक पाठ हटाए गए हैं।अब सियासत की तरह साहित्य में भी विकल्प है कि आप जिसे चाहें,उसे चुनें।और आख़िरी बात,ये सुधार हमक्लॉसिक-लेखनपढ़ने के बाद ही कर रहे हैं।इसलिए सारी बहस बेमानी है।


संतोष त्रिवेदी


वायरस की चपेट में !

बिस्तर में जाने की तैयारी में था कि मेरे ह्वाट्सऐप पर दन्न से सर्जिकल स्ट्राइक हुई।आशंका तो मुझे पहले से ही थी पर रपट पढ़ने के बाद पुष्टि भी...