रविवार, 1 दिसंबर 2024

धुंध भरे दिन

इस बार ठंड ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी कि राजधानी ने काला कंबल ओढ़ लिया।वह पहले कूड़े के पहाड़ों के लिए जानी जाती थी,अब उस पर रोज़ाना आसमान से काले पहाड़ टूट रहे हैं।जहाँ कूड़े के पहाड़ से कुछ लोग ही लाभान्वित हो पा रहे थे,वहीं आसमानी-पहाड़ सभी को समान अवसर दे रहे हैं।यहाँ तक कि राजधानी से निकटता रखने वाले मनुष्य भी स्वर्गिक-सुख का उतना ही आनंद उठा रहे हैं।यहाँ अब कोई ख़ास नहीं रहा, सबआमहो गए हैं।समाज में जो समानता सरकार नहीं ला पाई,उसे इस नश्वर धुंध ने साकार कर दिया है।

राजधानी की हवा में ऑक्सीजन के अलावा सब कुछ है।जानकार कहते हैं इसकी हवा में ही ज़हर है।मौक़े का फ़ायदा उठाकर कुछ अफ़वाहें भी इसमें शामिल हो गईं हैं।बड़ी बात यह कि वे सच भी हो रही हैं।हालाँकिधुंध में साँस लेना दूभर हैजैसी बेसिर-पैर की अफवाहें भी फैलाई जा रही हैं जबकि गद्दियों में बैठे जनसेवक सरे-आम सुकून की साँस लेते देखे जा सकते हैं।कई नेता नए ठिकानों मेंएडजस्टहो रहे हैं।जिस दल में उनका दम घुटने लगता है,उसे झट से छोड़ देते हैं।यह सुभीता भी उन्हें धुंध दे रही है।उनके चेहरों में जो कालिख़ पुती है वह महज़ धुंध की वजह से बताई जा रही है।इसका अनैतिकता,भ्रष्टाचार या कदाचार से कोई संबंध नहीं है।


धुंध सबके लिए बड़े काम की चीज़ है।उसने सबको काम पर लगा दिया है।बच्चे स्कूलों से मुक्त होकर मोबाइल से खेल रहे हैं।उनकी माताएँ ऑफ़िस के बजाय घर पर ही रील बना रही हैं।जो लोग कार्यालय में काम के समय सोते थे,वे अब ऑनलाइन जम्हाई ले रहे हैं।बाज़ार को भी धुंध ने क़ायदे से संभाला है।मास्क और खाँसी के सिरप ऑउट ऑफ़ स्टॉक हो गए।टीवी की प्राइम-टाइम बहस को नई ऊँचाई मिली है ।एंकर वातानुकूलित कक्षों में मास्कित होकर प्रदूषण पर अंतरदेशीय मिसाइल छोड़ रहे हैं।धुंध के आते ही सोई हुई आलोचनाएँ सक्रिय हो उठी हैं ।आजकल मनुष्य की आलोचना करना सबसे ख़तरनाक काम है।और यदि वह नेता,लेखक या अफ़सर हुआ तो आलोचना जानलेवा भी हो सकती है।इसलिए धुंध पर अंधाधुंध फायरिंग हो रही है।इसमें कोई ख़तरा नहीं है।


सबसे चिंताजनक बात यह है कि दीवाली और पराली को इस बार ख़ास वेटेज नहीं मिला है।इससे साबित होता है कि धुंध अब पूरी तरह आत्मनिर्भर हो चुकी है।घर से लेकर बाहर तक वही छाई हुई है।ऐसे ही एक अँधियारे दिन राजधानी में चिंतन-बैठक का आयोजन हुआ।पूरे देश में प्रदूषण फैलाने वाले सभी क़ाबिल पत्रकार वहाँ मौजूद थे।वे पर्यावरण जी के स्वास्थ्य के प्रति बेहद चिंतित दिखे।हल्ला तब मचा जब धुंध अपने प्रेमी प्रदूषण के साथ वहाँ पधारी।वह इस बात से बेहद ख़फ़ा लग रही थी कि किसी ने उसका वास्तविक पक्ष नहीं समझा।पर्यावरण जी कोने में अधमरे-से बैठे थे।पत्रकारों की चिंता के बाद से उनकी हालत और पतली हो गई थी।उनको ऐसी अवस्था में देखकर प्रदूषण और धुंध ने भी चिंता व्यक्त की।दोनों ने पर्यावरण जी को परामर्श दिया,‘आप वरिष्ठ हो गए हैं।अपना ध्यान रखिए।अब आप सिर्फ़ गोष्ठियों और विमर्श में बचे हैं।हम जैसे युवाओं की वज़ह से ही आप प्रासंगिक हैं ,इस बात को हम भूलने देंगे और ये गोष्ठियाँ।


पर्यावरण जी पहले से ही मरणासन्न थे,यह सुनकर और सुन्न हो गए।तभी गोष्ठी ने पर्यावरण जी को बचाने के लिए एक अभियान शुरू करने की घोषणा कर दी।उन्हें तुरंत होश गया।धुंध और प्रदूषण को करारा जवाब दिया ,‘तुम अभी बच्चे हो।मौसम की तरह आए हो,चले भी जाओगे।मैं सदाबहार हूँ और ग्लोबल भी।मुझे बचाने को पूरी दुनिया जुटी हुई है।कइयों की रोज़ी-रोटी मेरे सहारे चल रही है।वे मुझे मरने देंगे, मैं उन्हें।इसलिए तुम अपनी चिंता करो।


तभी वहाँ अचानक बारिश होने लगी।गोष्ठी में बैठे लोगों में हड़कंप मच गया।लोग डर गए कि बिन मौसम और बिन बादल बरसात कैसे होने लगी ! कुछ खोजी पत्रकारों ने ब्रेकिंग न्यूज़ दी कि पर्यावरण जी की सेहत के लिए उन्हें नक़ली बारिश की डोज़ दी जा रही है।यह जानकर सबने धुंध-भरी साँस ली।इससे धुंध और कमजोर हुई।अपने ख़िलाफ़ माहौल बनते देखकर धुंध अपने प्रेमी प्रदूषण के साथ भागने लगी तभी पर्यावरण जी ने ललकारा,  ‘रुको ज़रा।अभी मेरेसम-विषमआते होंगे ! उनसे तो निपट लो !’


तभी एक युवा पत्रकार ने घोषणा की, ‘चुनाव परिणाम गए हैं।धुंध अब साफ़ हो चुकी है।


संतोष त्रिवेदी 


रविवार, 27 अक्तूबर 2024

साहित्य-महोत्सव और नया वाला विमर्श

पिछले दिनों शहर में हो रहे एकसाहित्य-महोत्सवके पास से गुजरना हुआ।इस दौरान एक बड़े-से पोस्टर पर मेरी नज़र ठिठक गई।महोत्सव में अनूठा विमर्श चल रहा था,जिसका विषय था, ‘साहित्य में नर्क।वैसे तो हर साल महोत्सवों में नए प्रयोग सुनते आए हैं,पर यह वाला बिल्कुलफ्रेशथा।एकदम मौलिक,आजकल की कविताओं की तरह।ख़ास बात यह थी कि इस विमर्श को सहने,क्षमा करें,सुनने के लिए भुगतान भी देना था।यानी नर्क जाना भी अब सस्ता नहीं रहा।हो सकता है विमर्शकार वहाँ जाने का कोई शॉर्टकट बताने वाले हों,यही विचार मन में आया।वैसे भी लंबे समय से साहित्य ने चौंकाया नहीं था।इस मायने में आयोजकों ने शानदार पहल की थी और पर्याप्त चौंकाया भी।

पहली दृष्टि में आयोजक सरकार की कार्यशैली से प्रभावित लगते दिखे।जैसे वह जनता पर कैसे टैक्स लगाया जाए इस पर दिन-रात चिंतन करती रहती है,वैसे ही आधुनिक साहित्यकार भी पाठकों को मुक्ति की राह बताने में तन-मन-धन से जुटे हुए हैं।अचानक मुझे नोटबंदी का वह समय याद गया जब लोग बैंक या एटीएम के सामने गुजरने से भी काँपते थे।उन्हें डर लगता था कि कहीं उनका न्यूनतम बैलेंस और न्यूनतम हो जाए ! इस पोस्टर को देखकर एकबारगी यही डर लगा।


बहरहाल, ‘साहित्य में नर्कविषय पर विमर्श जानकर अच्छा लगा कि इस तरह के प्रतिभावान लोगों के कारण ही अब तक साहित्य सुरक्षित है और यह धरा भी।लेखन सही विमर्श तो उच्च-कोटि का हो ही रहा है।आज साहित्य के आधुनिक कार्यकर्ता ऐसे,वैसे और जाने कैसे-कैसे योगदान देने में सक्षम हैं।इससे भी बड़ी बात कि लोग ड्रामे की तरह विमर्श सुनने का टिकट भी ले रहे हैं।आधुनिक पाठक और श्रोता भी पर्याप्त समृद्ध और सजग हो चुके हैं।पहले स्वर्ग जाने के लिए वर्षों की तपस्या लगती थी,अब नर्क के लिए टिकट कट रही है।स्वर्ग को नर्क से इस तरह भीरिप्लेसकिया जा सकता है।यहनया वाला साहित्यहै जो स्वर्ग और नर्क का भेद मिटाकर सच्चा समाजवाद ला रहा है।इसने भी अपनी एकजनताबना ली है।यह स्थापित सत्य है कि अब कुछ भी मुफ्त का नहीं है।वह रेवड़ी भी नहीं जो नेता हर पाँच साल में बाँटते हैं।


पोस्टर ने उत्सुकता बढ़ा दी थी।अंदर गया तो एक भारी पंडाल था।एक तरफ़ छोले-भटूरे और गोलगप्पे के स्टॉल लगे थे,दूसरी ओर किताबें सजी थीं।मैंने उत्सुकतावश एक स्टॉल वाले से बिरयानी की पड़ताल की तो उसने मुझे समझाया कि यह सब एहतियातन मना है।आयोजकों को डर था कि संस्कारवादियों को कहीं इसकी भनक लग गई तोविमर्श-स्थलकी बजाय यहीं पर नर्क शुरू हो जाएगा।फिर उन्हें करने के लिए कुछ नहीं बचेगा।मैं उदास होकर आगे बढ़ गया।काउंटर पर टिकट लेने की कोशिश की,पता चला शो हाउसफुल जा रहा है।अगले महोत्सव का इंतज़ार करें या स्क्रीन पर रहे विमर्श से जुड़ जाएँ ! मैंने स्क्रीन पर निगाहें गड़ा दीं।


एक वरिष्ठ चर्चाकार बोल रहे थे।उनका मुख-मंडल सुलग रहा था।लगा कि उनका अध्ययन बोल रहा है।उनके परिचय में लिखा था कि वह नर्क करने के मामलों में विशेषज्ञ हैं।वह एक मिनट बाद ही सीधे तुलसी पर गए।कहने लगे, ‘ साहित्य में नर्क लाने का श्रेय सिर्फ़ तुलसी को है।एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा कि उनकी दृष्टि बिल्कुल साफ़ थी।उन्होंने कहा है,जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।सो नृप अवसि नरक अधिकारी।यहाँ तुलसी राजा के लिए नर्क जाने का सुगम मार्ग बता रहे हैं।यदि उसे अपने नर्क की सीट पक्की करनी है तो अपनी करनी से प्यारी प्रजा को दुःख पहुंचाए।अपनी प्रजा के प्रति राजा का यह अनुपम त्याग है।वह प्रजा के साथ ही नर्क भोगने को तैयार है ।लेकिन यह बात कोई पत्रकार बताएगा और ही साहित्यकार।तुलसी इसीलिए बड़े हैं।वह बहुत पहले जान गए थे कि सियासत और साहित्य नर्क पहुँचाने की सीढ़ियाँ हैं।ग़ालिब ने भी बाद में स्वीकार किया था कि उन्हें जन्नत की हकीकत मालूम है।इससे सिद्ध होता है कि ज़्यादा संभावनाएँ नर्क में ही हैं।इसीलिए अधिकतर जनसेवक ,पत्रकार और लेखक नरक-प्रेमी बन गए हैं !’


तभी एक उत्साही श्रोता ने सवाल उठा दिया, ‘क्या इसीलिए हम सबको नर्क में धकेला जा रहा है ताकि हम इन सबके काम आएँ ?’ विमर्शकार कुछ बोल पाता कि तभी स्क्रीन में अँधेरा छा गया।अचानक संचालक ने माइक पर विषय-परिवर्तन की घोषणा कर दी।अब स्क्रीन के ऊपर मोटे-मोटे अक्षरों में नया शीर्षक फ़्लैश होने लगा था,‘नर्क में साहित्य।चर्चाकार अभी भी वही थे,बस विमर्श बदल गया था


धुंध भरे दिन

इस बार ठंड ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी कि राजधानी ने काला कंबल ओढ़ लिया।वह पहले कूड़े के पहाड़ों के लिए जानी जाती थी...