रविवार, 2 दिसंबर 2018

आश्वासन आख़िरी दौर का !

चुनाव-प्रचार अंतिम चरण में कूद चुका था।नेताजी जनता के बिलकुल निकट थे।वे उसके चरणों में कूदने ही वाले थे कि क़रीबी कार्यकर्ता ने आचार-संहिता के हवाले से उन्हें रोक दिया।यह रुकावट उन्हें बहुत अखरी।वे अपनी पर उतर आए।जनता के लिए जो बहुरंगी-पिटारी उनके पास थी,उसे खोल दिया।पिटारी से साँप और बिच्छू के बजाय अचानक हरे और खरे वादे निकलने लगे।घोषणाएँ तो इतनी रफ़्तार से भागने लगीं कि उन्हें पकड़ना जोखिम भरा हो सकता था।मगर जनता ख़ाली हाथ थी।उसके पास कोई विकल्प नहीं था।कुछ न कुछ पकड़ना ज़रूरी था।ऐसा न करने पर लोकतंत्र ख़तरे में पड़ सकता था।जनता ने पहले नेताजी को देखा,फिर अपने चरणों की ओर।वे अब तक सुरक्षित थे।स्थिति पूरी तरह नेताजी के नियंत्रण में थी।वे थोड़ा और निकट आए।जनता के चरण लगातार उनका आह्वान कर रहे थे।आख़िर नेताजी गिर पड़े।

जनता हतप्रभ थी।लोकतंत्र के पुजारी उसके चरणों में थे।यह तो घोर अनर्थ हुआ।उसने उनको उठाकर गले से लगा लिया।नेताजी के मुखारविंद से बोल फूटा-‘हम हमेशा की तरह तुम्हारे ही हैं।तुम भी रहो।हम वह भी करेंगे,जो कभी नहीं कहा।हमारे पास इरादा है और तुम्हारे पास हमारा वादा।उसे मज़बूती से पकड़ लो।हम भले गिर जाएँ,तुम मत गिरना।वादे अनंत-काल तक सुरक्षित  रहने चाहिए।तुम हमें मत दो,हम तुम्हें ठीक कर देंगे।’

जनता की समझ में यह वाली बात नहीं आई।उसने अपना गला छुड़ाते हुए पूछा-‘क्या मतलब ? कम से कम चुनाव की तो लाज रखो स्वामी ! इस संवेदनशील समय में भी हमारा ‘मेकओवर’ करोगे ? जो भी आता है,चपत लगाकर चला जाता है।क्या आप भी यही करेंगे ?’ नेताजी तुरंत संभल गए।यू-टर्न लेते हुए बोले-‘अजी बिलकुल नहीं।हम तुम्हें क्यों ठोंकेंगे ! हम तो तुम्हें ठीक करने की बात कर रहे थे।कुछ लोग भ्रम फैला रहे हैं कि जनता की हालत ठीक नहीं।वे तुम्हें बीमार बताते हैं।कहते हैं तुम्हें लोकतंत्र की बीमारी लगी है।सच तो यह है कि तुम अभिव्यक्ति की आज़ादी की चपेट में हो।हम इसी बीमारी का निवारण करना चाहते हैं।हमने प्रण लिया है कि तुम्हारे पास वोट और प्राण दोनों बने रहें।उसे किसी और को नहीं लेने देंगे।तुम हमें मत का इनाम दो,हम तुम्हें नाम देंगे।’

‘नाम तो हम आपका ही बरसों से जप रहे हैं सरकार।बस मँहगाई और भ्रष्टाचार की तरह हमें भी रोज़गार दे दो।अब तो आपकी सेवा का साइड-इफ़ेक्ट भी होने लगा है।हमारी तबियत इसीलिए ख़राब हुई है।शायद सेवा का ओवरडोज़ हो गया है।कृपया अब आप आराम करें और हमें काम दें।’ जनता ने आख़िरकार नेताजी से कुछ माँग ही लिया।

‘अरे,यह क्या माँग लिया ? यह तो हमारा काम है।तुमने हमें काम करने के लिए ही तो जिताया है।हम वही कर रहे हैं।हमें अपना काम करने दो,इसमें बाधक मत बनो।हम तुम्हें ‘नाम’ देते हैं।हफ़्ते के बजाय अब हम हर दिन देंगे।हमारे पास वादों की तरह नाम का भी एकदम फ़्रेश स्टॉक है।हम रोज़ नया नाम निकालते रहेंगे।अब से तुम्हें प्रजा के बजाय राजा के नाम से जाना जाएगा।यहाँ तक कि तुम्हारे लिए हम ‘नामकरण मंत्रालय’ भी बना देंगे।और हाँ,फिर भी अगर तुम पर काम करने का भूत चढ़ा तो उसे हम सोशल-मीडिया पे झाड़ देंगे।बैंक के बजाय तुम अपना खाता वहीं खोल लो।डरो नहीं दूसरों को डराओ।कुछ फ़ोटो-शोटो खींचो।उन्हें वहाँ डालो।कम पड़ें तो कुछ फ़ोटो ‘शॉप’ कर लो।भुगतान हम कर देंगे।देश की चिंता मत करिए,उसे हम संभाल लेंगे।तुम ख़ुद  को संभालो।तुम हमसे नाम लो,हम तुम्हारा काम तमाम करेंगे।लेकिन ऐसा करने के लिए तुम पहले हमें वोट तो दो !’ नेताजी ने बिलकुल ताजे संकल्प जनता के चरणों में पटक दिए।

अब जनता को बेचैनी महसूस होने लगी।वह एक क़दम पीछे हटी।उसके चरण कुछ सुरक्षित हुए पर ख़तरा अभी पूरी तरह टला नहीं था।एकदम सामने था।मुश्किल यह कि आगे ख़तरा था तो पीछे कचरा।जनता को थोड़ी दुविधा हुई।नेताजी ताड़ गए।आनन-फ़ानन उसके आगे एक बड़ी मूरत खड़ी कर दी।जनता के सामने कोई चारा भी नहीं था कि वह उसे चबा सके।आख़िर बेबस होकर बोली- ‘वोट तो हम तुम्हें ही देते रहे हैं और फिर देंगे।बस काम करने की कसक दिल में बनी रहेगी।आप हमारे लिए इतना सोचते और करते हैं तो हम भी यू-टर्न ले लेते हैं।नए ज़माने में क्रांति बजरिए यू-टर्न भी आती है।आम आदमी का यह अचूक हथियार है।आगे से ‘कर्म ही पूजा’ हमारे लिए ‘पूजा ही कर्म’ होगी।इसलिए कर्म की नहीं तो कम से कम हमारे लिए धर्म की व्यवस्था अवश्य कर दें।सुना है आपका जन्म हमारी सेवा करने के लिए ही हुआ है।’

जनता के इस आर्तनाद का असर तुरंत हुआ।नेताजी की बाँछे खिल गईं।वह बोले-‘हम दूरदर्शी हैं।तुम्हारी चाहत का अंदेशा हमें पहले से ही था।हमने इसीलिए इसकी अग्रिम तैयारी कर रखी है।हर पंचवर्षीय योजना में तुम्हें हमारे दर्शन होंगे।तुम निर्विघ्न पूजा कर सको इसका भी प्रबंध होगा।तुम हमें मत दो,हम तुम्हें मंदिर देंगे’।

यह सुनकर जनता मारे ख़ुशी के बेहोश हो गई।चुनाव का यह आख़िरी आश्वासन था।


©संतोष त्रिवेदी

रविवार, 11 नवंबर 2018

टिकट कटे नेता का परकाया प्रवेश !

उनका टिकट फिर कट गया।इस बार पूरी उम्मीद थी कि जनता की सेवा करने का टिकट उन्हें ही मिलेगा।पिछले पाँच साल से वे इसी आस पर टिके हुए थे,पर अनहोनी हो गई।उनकी आस में दिन-दहाड़े सेंध लग गई।आख़िरी सूची से उनका नाम नदारद हो गया।दरअसल दल के एक बड़े पदाधिकारी का ‘छुटका’ बेटा जनसेवा करने के लिए अचानक मचल उठा।हाईकमान ने पार्टीहित,जनहित और देशहित के संगम में उनकी डुबकी लगवा दी।वे ज़रा समर्पित-क़िस्म के जीव थे पर दल को अब उनके  समर्पण की नहीं तर्पण की ज़रूरत महसूस हुई।पार्टी ने एक बार फिर त्याग और बलिदान का पाठ पढ़ाकर उन्हें सप्रेम किनारे कर  दिया।उनको मुक्ति मिली और दल को नई शक्ति।इस अनचाही पुण्याई पर वे फूट-फूटकर रोने लगे।उनके आँसू ज़मीन पर गिरकर अकारथ हों,इससे पहले ही मीडिया के कैमरों और विरोधी दल के हाथ ने उन्हें थाम लिया।राजनीति पर उनका विश्वास टूटते-टूटते बचा।

वे इतने काम के निकले कि उनके खारे आँसू भी दूसरे दल के काम आ गए।दो कौड़ी की भावुकता दूर की कौड़ी साबित हुई।जब तक वे दिल से सोचते रहे,घाटे में रहे।दिमाग़ ने सही राह सुझाई और दर्द के आँसू सीप के मोती बन गए।विचारधारा और सिद्धांत की नश्वरता समझने में पहले ही उन्होंने काफ़ी देर कर दी थी।एक झटके में वे सभी बंधनों से मुक्त हो गए।दुर्भाग्य पलक झपकते ही सौभाग्य बन गया।चुनावी-हवा का संसर्ग पाकर वे अनुकूल दिशा में बह चले।ऐसे सुहाने मौसम में भी वो न ‘बहते’ तो कब बहते !

उन्हें तुरंत लपककर नए दल ने बड़े पुण्य का काम किया है।जिनके लिए वे कल तक भ्रष्टाचार के पर्याय थे,उनके दल में प्रवेश होते ही वे कुंदन-से चमकने लगे।यह उनके सार्वजनिक-क्रंदन का ही प्रताप था।उन्होंने अपनी ‘बेदाग़’ चदरिया जस-की-तस नए तंबू में बिछा दी।इस तरह आत्मा का परकाया-प्रवेश पूर्ण हुआ।उनकी अंतरात्मा को काफ़ी दिन बाद सुकून मिला।वे अब जनसेवा की दहलीज़ पर खड़े थे।कपड़े बदलने भर से जब कोई साधु बन जाता है तो दल और दिल बदलकर जनसेवक क्यों नहीं बन सकता ? इसलिए जहाँ टिकट मिली वे वहीं टिक गए।

टिकट कटने पर उनका रोना एक बड़ी ख़बर रही।जनसेवा से उनको वंचित करने की साज़िश को उन्होंने विरोधी दल के साथ मिलकर नाकाम कर दिया।सेवा को लेकर उनकी प्रतिबद्धता इसी से ज़ाहिर होती है।इस बात की तसदीक़ करने के लिए हम बेचैन हो उठे।वे चुनाव-क्षेत्र में ही मिल गए।उनके एक हाथ में आँसू और दूसरे हाथ में टिकट था।हमें देखते ही भावुक हो उठे।कहने लगे-‘तुम्हारी भविष्यवाणी पर हमें यक़ीन था।तुमने बहुत पहले ही कहा था कि हमारे हाथ की रेखाओं में सेवा का योग लिखा है और देखिए आज उसी हाथ ने हमें यह मौक़ा दिया है।अब हम दोनों हाथों से जनता की सेवा करेंगे।जनता भी हमें पाकर धन्य होगी।हमें महसूस हो रहा है कि हमारा जन्म ही सेवा के लिए हुआ है।अभी तक तो हम दलदल में फँसे हुए थे।अब जाकर सही दल मिला है।इतना बड़ा चरागाह मानो हमारी ही प्रतीक्षा कर रहा था।तबियत से हरियाली चरेंगे।’

हमने उनके कंधे पर हाथ रखा और कहा-‘तुम्हारा राजनैतिक उदय शुरू हो चुका है।तुम बहुत आगे तक जाओगे।तुम्हारी ‘किरपा’ आँसुओं में रुकी हुई थी।अब वह साक्षात् दिख रही है।तुम्हारे आँसुओं ने टेलीविज़न पर बरस कर बरसों का ‘सूखा’ समाप्त कर दिया है।एक चुनावी-टिकट ने संभावनाओं के कई द्वार खोल दिए हैं।अब तुम्हारे सामने सेवा के मौक़े ही मौक़े हैं।’

इतना सुनते ही वे भाव-विह्वल हो उठे।बोले-‘मौक़े का नाम सुनते ही सारे शरीर में झुरझरी-सी उठने लगती है।दूसरों को मौक़ा मिलते हमने दूर से ख़ूब देखा है।इतने क़रीब से पहली बार अपने मौक़े को महसूस कर पा रहा हूँ।राजनीति में टिकट-विहीन नेता पर-कटे पंछी की तरह होता है।बिना पंख के जैसे उसकी उड़ान रुक जाती है,वैसे ही नेता का विकास।हम तो विकास के जन्मजात समर्थक हैं और पूरी तरह जनता को समर्पित भी।हमारा अपना कुछ नहीं है।सब जनता का है।हमारा विकास जनता का विकास है।हमारी पीड़ा भी जनता की पीड़ा है।हमारे सार्वजनिक-रुदन का कारण यही है।ये हमारे आँसू नहीं जनता के हैं।आने वाले पाँच सालों में उसे भी यह बात ठीक तरह से समझ में आ जाएगी।सेवा देकर एक-एक आँसू का हिसाब लूँगा।’

‘टिकट कटने के बाद से तुम्हारा आत्मविश्वास लौट आया है।पार्टी हाईकमान यदि तुम्हारा टिकट नहीं काटता,तुम अभी भी गुमनामी में जीते।नए दल से टिकट मार कर तुमने दिखा दिया है कि आँसू कमज़ोर ही नहीं मज़बूत भी बनाते हैं।बस चुनाव तक अपने आँसू बचाए रखो।अब जनता की सेवा करने से तुम्हें कोई नहीं रोक सकता।तुम्हारी जीत सुनिश्चित है।’ हमने उनके आत्मविश्वास को और हवा देते हुए कहा।

हमारा आश्वासन पाकर वे भभक उठे।उनके चुनाव-क्षेत्र की ख़ैर मनाते हुए हम घर लौट आए।

संतोष त्रिवेदी

बुधवार, 7 नवंबर 2018

आओ प्रकाश से अंधकार की ओर चलें।

भक्तजनो,आज तुम्हें हम एक ऐसी सीख देने जा रहे हैं,जिससे तुम्हारे जीवन में कल्याण ही कल्याण होगा।कल तक तुमने सुना और पढ़ा है कि हम सबको अंधकार से प्रकाश की ओर चलना चाहिए।सालों से यह तुम सब कर ही रहे हो पर प्रकाश ने तुम्हें दिया कुछ ? यह इसलिए नहीं हुआ क्योंकि अब तक तुम्हारा ‘दिया’ ग़लत जगह टिमटिमा रहा था।तुम प्रकाश के ही पक्ष में खड़े थे,अंधेरे की तरफ़ गए ही नहीं।सच तो यह है कि अँधेरा ही हमारा स्वाभाविक साथी है।हम उजाले से हमेशा विमुख रहे हैं।फिर वह हमारा सहचर कैसे हो सकता है ?अँधेरा सदा से हमारे अनुकूल रहा है।वह हमारा अस्तित्व है।कठिन घड़ी में अंधेरे ने ही हमें उबारा है।इसीलिए जीवन का वास्तविक दर्शन हमें ड्रॉइंगरूम के बजाय ‘डार्करूम’ में प्राप्त होता है।निजी अनुभव के नाते हम तुम सबसे अँधेरे को आजीवन अपनाने का आह्वान करते हैं।

प्रियजनो,बाहर ‘प्रकाश-पर्व’ का बड़ा शोर है।पर यह कितने लोग जानते हैं कि अंधकार के असीम बलिदान के बाद ही यह अवसर आता है।उजाला झूठा और नश्वर है जबकि अँधेरा सच्चा और शाश्वत।प्रकाश की एक समय-सीमा है जबकि अंधकार असीमित।अंधेरे के लक्षण हर युग में मिलते हैं पर कलियुग में अंधकार सर्वाधिक शक्तिशाली है।अंधकार की ही सत्ता है।प्रकाश को तो कृत्रिम रूप से गढ़ा जा सकता है पर अंधकार को नहीं।वह वास्तविक रूप में सर्वत्र उपस्थित है।

भद्रजनो,अब हम इस बात पर ‘प्रकाश’ डालेंगे कि अंधकार की इतनी महत्ता क्यों है ?प्रकाश का वर्ण निरा सफ़ेद है,जबकि अंधकार का निपट काला।सफ़ेद हमेशा दाग़ और धब्बों से डरा-डरा रहता है जबकि काला हमेशा बिंदास।एक छोटा-सा भी दाग़ उजाले को मलिन कर देता है लेकिन पूरी की पूरी कड़ाही काले का बाल भी बाँका नहीं कर सकती।धन के रूप में हो या मन के,काला सदैव गतिमान बना रहता है।उसकी तंदुरुस्ती का राज भी यही है।वह देश में हो या परदेस में,उसे कभी खाँसी-ज़ुकाम तक नहीं होता।दूसरी ओर सफ़ेद हमेशा अपना बचाव करता रहता है।एक हल्की सी छींट भी उसकी सेहत ख़राब कर देती है।रंग काला हो तो होली या दीवाली भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाती।इन त्योहारों में वह और निखरता और बिखरता है।यहाँ तक कि सफ़ेदी की महिमा भी काले रंग की वजह से ही बची हुई है।

स्वजनो,सफ़ेदी ने कोई कारनामा किया है,क्या कभी ऐसा सुना है? नहीं,कभी नहीं।कारनामा हमेशा काला होता है।अख़बार के पन्ने इससे भरे होते हैं।काले रंग का क्रेज़ है ही इतना।अभी थोड़े दिनों पहले एक भद्र व्यक्ति ने अपने सफ़ेद घोड़े को काला करके ऊँची क़ीमत में बेच दिया।उसे कालिमा का महत्व बख़ूबी पता था।पता तो ख़रीदार को भी था,इसीलिए उसने इसके लिए मोटी रक़म अदा की थी।घोड़ा बेचने वाले ने काली कमाई कर ली,पर ख़रीदार के हाथ काला घोड़ा भी न आया।यह इस बात का सबक़ है कि जब किसी पशु की क़ीमत कालिमा ओढ़ने से बढ़ सकती है तो फिर हमारी क्यों नहीं ! इधर हम अपने वास्तविक मूल्य को पहचान नहीं पा रहे हैं,उधर समझदार लोग कालेधन की समूची ढेरी तक पचाए जा रहे हैं।इसलिए जितनी जल्दी हो सके,हमें कालिमा का आलिंगन कर लेना चाहिए।इससे हमारा हाज़मा बेहतर होगा।

कालकूट-प्रेमियो,बरसों पहले ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का जो पाठ हमने तुम्हें पढ़ाया था,अब उसके पुनर्पाठ की ज़रूरत है।यह हमारा भ्रम था कि हम तम से प्रकाश की ओर भाग रहे थे।दरअसल,यहाँ तम के बाद एक पॉज अर्थात रुकावट है,जिसे हम नहीं समझ पाए।नए संस्करण में यह ‘तमसो,मा ज्योतिर्गमय’ हो गया है,जिसका भावार्थ है कि अंधकार की ओर अग्रसर हों,प्रकाश की ओर क़तई नहीं।यह नया पाठ ही हमें और तुम्हें इस अंधकार-युक्त जगत में प्रतिष्ठा दिलाएगा।हमें पूर्ण विश्वास है कि काले धन और काले मन के प्रभावशाली उपकरणों की सहायता से प्रकाश को हम छिपने तक की जगह नहीं देंगे।’अँधेरा क़ायम रहे’ आज से यही हमारा उद्घोष होगा।

प्रवचनों की अंतिम कड़ी में हम कुछ नुस्ख़े बताने जा रहे हैं,जिससे तुम्हें अँधेरे के आग़ोश में रहने में सहूलियत होगी।तुम सब ‘प्रकाश-पर्व’ में बढ़-चढ़कर हिस्सा लो,पर मन के अँधेरे पर तनिक भी आँच न आने देना।ध्यान रहे,सफ़ाई और सद्भाव हमारे चिरंतन शत्रु हैं सो इनसे निपटने के लिए पटाखे और पराली का माक़ूल इंतज़ाम हो।‘ग्रीन’ पटाखे  सेकुलर विस्फोट से फटेंगे तो उनकी मारक क्षमता और बढ़ जाएगी।हमें पूरे ज़ोर-शोर से अंदर और बाहर अँधेरे का साम्राज्य स्थापित करना है।इसके इतर भी हमें प्रयास करने होंगे।आर्थिक हवाला और राजनैतिक निवाला के साथ मिलकर हम यह आसानी से कर सकते हैं।जब हम इस अँधेरे कक्ष से बाहर निकलेंगे तो सुनिश्चित करेंगे कि प्रकाश की देखरेख में हम अपना मिशन पूरा करें।आओ,हम सब बड़े अँधेरे की ओर प्रस्थान करें।

©संतोष त्रिवेदी

रविवार, 21 अक्तूबर 2018

नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ !

बहुत पहले सुना था कि नाम में क्या रखा है पर पिछले दिनों अनुभव किया कि नाम में ही सब रखा है।वो दिन हवा हुए जब काम बड़ा करने से नाम बड़ा होता था।अब नाम बड़ा हो तो काम अपने आप बड़ा हो जाता है।काम जब ‘फ़ेल’ होने लगे तो नाम की महिमा से चुनाव की नाव भी पार लग जाती है।छोटे और मझोले क़िस्म के नाम का तो ‘मीटू’ भी नहीं होता।नाम बड़ा हो तो इस्तीफ़ा भी हो जाता है।नाम गद्दी दिलाता है तो उतार भी देता है।‘अबकी बार’ पर सवार सरकार भी इस बार सकते में है।नाम बचाएगा या डुबोएगा,यह बात काम भी नहीं जानता।

सियासत हो या साहित्य सब जगह नाम ही उबारता है।हिट लेखक की पिटी हुई किताब नाम के सहारे दस संस्करण निकाल लेती है।दो-चार अकादमी-सम्मान भी धर लेती है।सियासत में इसका फ़ायदा जनता और सरकार दोनों को अलग-अलग ढंग से होता है।‘हारे को हरिनाम’ का पाठ जनता के दिमाग़ में बहुत पहले से बैठा हुआ है।कोई बड़ी समस्या जब उसे दबोचती है,वह सरकार का मुँह नहीं देखती,नाम सुमिरन करने लगती है।सरकार भी जब काम कर करके थक जाती है तो यही करती है।नाम के इस ‘आतंक’ को तुलसीदास बाबा ने हमसे पहले देख लिया था।शायद इसीलिए उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि कलियुग में नाम के अलावा और कोई उपाय विशेष नहीं है।हम एक-दो दिशाओं में ही नाम के प्रभाव को समझ पा रहे हैं,उन्होंने दसों दिशाओं में इसे महसूसा था।आज के दिन के लिए ही उन्होंने कहा था;‘नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ’।इस बात को जनता के साथ-साथ हमारी सरकार ने भी आत्मसात कर लिया है।अब काम नहीं नाम संकटमोचक है।

जो लोग रोज़ पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों पर रुपए की तरह बल्लियों उछल रहे हैं,उन्हें इनका नाम बदलकर सरकार को सहयोग करना चाहिए।सरकार अपनी तरफ़ से अकेले कितना करे ? ‘मँहगाई’ पहले ही ‘अच्छे दिन’ का भेष धर चुकी है और ‘विकास’ को और फैलने की जगह नहीं मिल रही।वह अब तभी बढ़ेगा,जब सरकार बढ़ेगी और दो हज़ार उन्नीस से आगे जाएगी।नाम के इस बढ़ते प्रभाव से ‘नामधारी’ भी गदगद हैं।उन्हें लगता है कि जब नाम से ही सरकार बननी है तो उनका हक़ सबसे पहले बनता है।नाम ज़िंदा रहता है तो दावा भी मज़बूत होता है।चुनाव में भी टिकट काम नहीं नाम देखकर दिया जाता है।इसकी पीड़ा उनसे पूछो,जिनके नाम आख़िरी सूची से कट जाते हैं।

हम नाम के इस प्रभाव को परख ही रहे थे कि तभी काम याद आ गया।वह सचमुच हमारे सामने खड़ा था।बिलकुल निहत्था।कहने लगा-‘एक तुम्हीं हो जो हमें याद कर लेते हो।बताइए क्या काम है ?’ हम मन ही मन सोचने लगे कि इतनी जल्दी तो नाम लेने पर भगवान भी नहीं आते,काम कैसे आ गया ! पर हमने उससे यह बात नहीं कही।बुरा मान सकता था।काम के कटे हाथ को देखकर पिछले पाँच साल में पहली बार आत्म-संतुष्टि हुई।प्रत्यक्षतः हमने अपने मनोभाव को उस पर प्रकट नहीं होने दिया।हमदर्दी जताते हुए पहला सवाल यही किया कि उसके हाथ कौन ले गया।अब वह काम कैसे करेगा।

काम ने बेहद उदासीन होते हुए कहा-‘जबसे नाम का शोर मचा है,हम बेरोज़गार हो गए हैं।अभी-अभी इस्तीफ़ा देकर आए हैं।नाम ने हमें बहुत चोट पहुँचाई है।जिसके पास काम नहीं,वो सोशल मीडिया में बड़ा-सा नाम लेकर रम जाता है।हमारी सालों की कमाई मिनटों में ‘मीटू’ हो गई।चालीस साल का नाम ख़राब हो गया।हमने सुना था कि ‘काम बोलता है’ पर यहाँ तो ‘काम’ बेरोज़गार भी बना देता है।यह सब हमारे नाम का किया-धरा है।उसी की चपेट में आकर हम चौपट हुए हैं।’

काम को पहली बार पटरी से उतरा देखकर हम ख़ुश थे।इतने दिनों से पत्थरबाज़ी हो रही थी पर ‘हाथ’ ख़ाली था।अब जाकर एक क़ायदे का निशाना लगा था।उसके दुःख को हवा देते हुए हमने गहरे घाव पर सहानुभूति की पुल्टिस बाँधी-‘तुम निराश मत हो।अपने पर भरोसा रखो।कोई तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।रही नाम की बात, सही मौक़ा पाकर बदल लो।वैसे भी नाम में क्या रखा है ! यह तो शेक्सपियर ही कह गए हैं।जब नाम बदलने से घर सदन सकता है तो तुम्हारा नेक ‘काम’ इनाम में क्यों नहीं तब्दील हो सकता ! जब हर साल जलकर भी रावण दशानन बना रहता है,तुम्हारे तो फिर भी दो हाथ कटे हैं।अगले चुनाव तक उग आएँगे।और एक ज़रूरी बात,इतने घुप्प अंधेरे में किसको तुम्हारा ‘काम’ कब तक याद रहेगा ? थोड़े दिनों में ही सारे ‘मीटू’ स्वीटू हो लेंगे।बस दल या दिल बदल लो,यह बुरा वक़्त भी बीत जाएगा।’

हमारी बातें सुनकर घोर अंधेरे में भी काम की आँखों में चमक आ गई।‘नाम गुम जाएगा,चेहरा ये बदल जाएगा’ गुनगुनाते हुए वह अपने नाम की रक्षा के लिए आगे बढ़ गया।हम इस बीच एक नया पत्थर तलाशने लगे।

संतोष त्रिवेदी

रविवार, 30 सितंबर 2018

राफेल भाई और बोफोर्स बहन से एक्सलूसिव बातचीत !

राफ़ेल को लेकर इधर पूरे देश में रार मची हुई थी,उधर ख़ुद राफ़ेल भाई की हालत ख़राब थी।अचानक उसकी उड़ान पर लगाम लग गई।दिन में उसे नेता मारते,रात मेंप्राइम-टाइमराफ़ेल को लगने लगा कि इंडिया पहुँचने से पहले जब उसका यह हाल है ,जब वहाँ पधारेगा तो क्या होगा ? हिंदुस्तान के लोग उसे स्वीकारेंगे भी या नहीं ? इसी उधेड़बुन में वह वह फँसा हुआ था।कुछ सूझ नहीं रहा था,तभी एक पहुँचे हुए संकटमोचक ने सलाह दी कि वह बोफ़ोर्स बहन से मिल ले।उसे लड़ाई में दगने से ज़्यादा चुनाव में चलने का लम्बा अनुभव है।राफ़ेल भाई को यह बात जँच गई और वह बोफ़ोर्स बहन से मिलने उसके ठिकाने पर पहुँच गया।दोनों के बीच अज्ञात क्षेत्र में हुई वह बातचीत हमारे संवाददाता चौपट चौरसिया के हाथ लग गई।बिना किसी काट-छाँट के उसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि सब अपने-अपने हिसाब से काट-छाँट कर लें:

राफ़ेल : बोफ़ोर्स बहन ! बड़ी उम्मीद से तुम्हारे पास उड़कर आया हूँ।सीमाओं की रक्षा करने का दायित्व भले मेरा हो पर इस वक़्त मुझे स्वयं रक्षा की ज़रूरत है।और हाँ,हमारी यह मुलाक़ात गुप्त रहनी चाहिए,नहीं तोप्राइम-टाइमका एक और अटैक मुझे झेलना पड़ेगा।लोग भरे बैठे हैं।

बोफ़ोर्स: अरे नहीं राफ़ेल भाई ! तुम कुछ ज़्यादा ही सेंटिया रहे हो।लड़ाकू लोग दिल से नहीं दिमाग़ से काम करते हैं।वे विरोधियों की नहीं सुनते बल्कि उन्हें सबक़ सिखाते हैं।जबसे तुम्हारे आने की गड़गड़ाहट सुनी है,मैं बेहद ख़ुश हूँ।बहुत दिनों बाद लगा कि और भी कोई है जो हमारी टक्कर का है।वैसे तो हम हमेशा दुश्मन को निशाने पर लेते रहे हैं पर यहाँ तो हमीं निशाने पर गए थे।फिर भी देखिए,इतनी चर्चा और ख़र्चा के बाद हम अभी तक स्लिम और फ़िट बने हुए हैं।तुम अपनी चर्चा से नाहक परेशान हो।यह तो सफलता की पहली निशानी है।लड़ाई के मैदान में तुम्हारा स्वागत है।

राफ़ेल : बहन ! मेरी ज़िंदगी में पहली बार ऐसा हो रहा है,जब हम बिना उड़ेहिटहो रहे हैं।सोच रहा हूँ कि कहीं उड़ने के पहले ही मेरे पंख कट जाएँ ! यहाँ तक कि हमारे अपने देश में उबाल आया हुआ है।मैदान से ज़्यादा मीडिया में मार-काट मची है।मेरे जाने से पहले ही वह युद्धक्षेत्र बन गया है।बहना,तुमने तो ऐसी मार ख़ूब झेली है।कुछ अपने अनुभव हमें भी बताओ जिससे हमको सुकून मिल सके।

बोफ़ोर्स :हा हा हा।सुकून तो तुम्हें भरपूर मिलेगा।हम दोनों लड़ाकू प्रजाति के हैं।यह साफ़ तौर पर हमारी सफलता है कि लड़ाई के मैदान में शामिल होने से पहले ही लोग हमको लेकर आपस में लड़ने लगते हैं।मेरा क़िस्सा तो अजीब ही है।एक मंत्रीजी तो केवल इधर से उधर चिट्ठी ले जाने पर खेत रहे।चुनाव से पहले जो नेताजी जेब में हमारे नाम की पर्ची लेकर घूमते थे,उन्हें सत्ता-सुख की प्राप्ति हुई,भले ही देशवासियों को पर्ची में लिखे नाम को देखने का सुख कभी नहीं मिला।विरोधियों द्वारा हमारे नाम का बार-बार मंत्रोच्चार करने से असमय ही एक युवा नेता ऐतिहासिक बहुमत से अल्पमत में गया पर मजाल कि हमारे हितैषियों का बाल भी बाँका हुआ हो।हमने सबकी रक्षा की।पिछले तीस सालों से मैं हिंदुस्तान की सियासत संभाल रही हूँ।हमसे मार खाने वाले दुश्मन देश तो घबराते ही हैं,हमें अपनाने वाले हमारे ज़िक्र भर से काँपते हैं।ऐसा सौभाग्य कहीं और नहीं मिलेगा।इसलिए तुम बेखटके जाओ।उड़ो और दूसरों को उड़ाओ।

राफ़ेल : मेरी घबराहट का कारण कुछ और है।कहा जा रहा है कि मेरे सौदे में कुछ लोगों ने खाने-पीने के बाद डकार भी नहीं ली।यह बात विरोधियों को हज़म नहीं हो रही है।इसी पर सारा बवाल मचा हुआ है।जिन्हें खाने को नहीं मिला,उनका हाज़मा तो ख़राब होगा ही।सबके पेट भरने का इंतज़ाम मैं अकेले कैसे कर सकता हूँ ! हमने तो सुना है वहाँ नाले से भी गैस बनती है।सरकार को चाहिए कि इसका ठेका अपने विरोधियों को दे दे।उनके मुँह में भी ढक्कन लग जाएगा।तुम क्या सोचती हो इस बारे में बहन ?

बोफ़ोर्स : मैं तो बिंदास हूँ।शुरू-शुरू में मुझे भी झटका लगा था पर अब सब नॉर्मल लगता है।धीरे-धीरे तुम भी अभ्यस्त हो जाओगे।रही बात खाने-पीने की,तो इस मामले में भारतीय ज़्यादा चूज़ी नहीं हैं।जहाँ भी मिलता है,जो भी मिलता है,खा लेते हैं।हम किसी के पेट भरने का निमित्त बनें,यह हमारे लिए गौरव की बात है।हम दगते हैं,दग़ा नहीं देते।हम ख़ास मिशन के लिए बने हैं,‘कमीशनतो हम हथियारों का प्राण-तत्व है।ये हो तो हम कहीं -जा नहीं सकते।विकास के असली सारथी हम हथियार हैं।इसीलिए सभी विकसित देश हथियार संपन्न हैं।वास्तव में शांतिकाल विकास-विरोधी होता है।लड़ाई रोज़गार का प्रमुख साधन है और हमारे तुम्हारे रहते इसमें किसी प्रकार की कमी नहीं आएगी।माहौल पूरी तरह से तुम्हारे पक्ष में है।जितना तुम परअटैकहोगा,उतना ही अटैक करने की तुम्हारी क्षमता बढ़ेगी।

इस बातचीत के बाद से ही राफ़ेल की लोकेशन नामालूम है।ख़बर है कि मीडिया जल्द ही इस परसर्जिकल स्ट्राइककरने वाली है।

संतोष त्रिवेदी





अनुभवी अंतरात्मा का रहस्योद्घाटन

एक बड़े मैदान में बड़ा - सा तंबू तना था।लोग क़तार लगाए खड़े थे।कुछ बड़ा हो रहा है , यह सोचकर हमने तंबू में घुसने की को...