सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

हमको मौका नहीं मिला वरना....!


जिंदगी में कई बार ख़ूबसूरत मौके मिलते हैं पर वे प्रायः देर से पकड़ में आते हैं।जब तक हम इन मौकों को समझ पाते हैं ,तब तक बाज़ी हमारे हाथ से निकल चुकी होती है या पलट जाती है ।मौके की मार की वजह से ही दूसरे लोग आज जिस मुकाम पर खड़े हैं,हमें वहां होना चाहिए था।मौके पर चौका न मार पाने के कारण हम अपनी सही जगह पर कभी पहुँच नहीं पाए।कुछ ऐसे नसीब वाले हैं जो पैदा हुए तो सीधे मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर,जबकि हमें आज तलक सलीके से स्टील का चम्मच तक पकड़ना नहीं आ पाया।इस दशा में हमारा भाग्य भी कितना संघर्ष करता ऐसे मौकेबाज़ों के सामने ?हमारी जिंदगी की शुरुआत ही सही मौका न मिलने से हुई।


क्रिकेट के खेल में जब भी रोमांच चरम पर पहुँचता है और हमारे बल्लेबाज एक-दो रन बनाने में चूक जाते हैं,ऐसे में हमें फिर मौके की मार याद आती है।उस समय हमें यही लगता है कि यदि बल्लेबाज की जगह हम होते तो दो गेंदों में पाँच क्या बारह रन बना डालते।बस उन्हें दो बार ही तो सीमारेखा के पार भेजना होता,पर क्या करें,हमें स्कूल की टीम में ही कभी मौका नहीं मिला।इसका सारा दोष हमारे गाँव के ही खेल अध्यापक बिंदाचरन जी का रहा,जो नहीं चाहते थे कि उनके गाँव से एक और प्रतिभा दुनिया के सामने आए।सोचिये,उस समय हमें मौका मिला होता तो आज अतिरिक्त खिलाड़ी की तरह हम ड्रेसिंग रूम में न बैठे होते।


मौक़ा तो हमें तब भी नहीं मिल पाया था ,जब छात्र संघ के चुनाव में हम मात्र पाँच हज़ार वोटों से हार गए थे।उन पाँच हज़ार लोगों ने यदि हमें मौका दिया होता तो आज हम भी देश सेवा कर रहे होते |उस चुनाव में हमारे विरुद्ध जीतने वाले रमई पहलवान जी आज खेल मंत्रालय को भलीभाँति संभाल रहे हैं।वे खुद खिलाड़ी नहीं बन पाए तो क्या, उन्हें चुन रहे हैं।काश,हम भी आज अगली ओलम्पिक टीम तैयार कर रहे होते।हम देश को कुश्ती में एक ओलम्पिक स्वर्ण पदक और दिला सकते थे क्योंकि हमारी बुआ का लड़का,जो गाँव के दंगल में झूरी पहलवान को कई बार पटकनी दे चुका है ,कुश्ती में देश का प्रतिनिधित्व कर रहा होता ।पर जब हमारा ही मौका काट दिया गया तो उसे क्योंकर मिलता !


जब किसी फिल्म को सौ-करोड़ी होते देखता हूँ तब भी हमारा मन हुलस कर रह जाता है।अगर सिने-स्टार खोज प्रतियोगिता हमारे ज़माने में शुरू हुई होती तो आज हम भी आमिर खान की तरह ‘पीके’ पड़े होते और हमारी फ़िल्में कभी भी बॉक्स-ऑफिस में औंधे मुँह न गिरतीं।कुसूर सिर्फ़ इतना रहा कि किसी लायक डायरेक्टर की मुई नज़र ही हम पर न पड़ी और हम बस सिनेमा की टिकटें ही ब्लैक करते रह गए।


मौकों का हमारे प्रति यह असहयोगपूर्ण रवैया यहीं खत्म नहीं हुआ।स्कूली पढ़ाई के दौरान हम जिस साँवली लड़की को अपना दिल दे बैठे थे उसे कभी एक कागज़ का छोटा-सा पुर्जा न थमा पाए।हर बार कोई न कोई हम दोनों के बीच बाधा बनकर खड़ा हो गया।स्कूल में हमारे ही साथियों ने कई मौकों को ध्वस्त किया तो स्कूल के बाहर हमारे अपनों ने।एक बार हम अपनी खिड़की से अपने प्रेम को कागज के गोले में लपेटकर उस तक पहुँचाने में कामयाब होने ही वाले थे कि तभी न जाने कहाँ से पिताजी आ गए।कागज का गोला सीधा उनकी नाक को निशाना बनाता हुआ धराशायी हो गया और इसके बाद पिता जी ने हमारे संग जमकर अभ्यास मैच खेला था।उस दिन के बाद से हमने ड्रोन के द्वारा प्रेम-पत्र भेजने की मुराद हमेशा के लिए मुल्तवी कर दी।थोड़ा होश सम्भालने पर वही प्रेम शायरी बनकर निकल पड़ा।हाँ,इस प्रक्रिया में कई टन कागज जरूर शहीद हुआ ।इस सबका जिम्मेदार यही इकलौता मौका है।सुनते हैं कि हमारे स्कूल वाली वो लड़की आज एक अफ़सर की बीवी बन गई है और हम अभी भी किसी मौके की तलाश में पन्द्रह अगस्त के अलावा भी पतंग उड़ाने छत पर चले जाते हैं।


हमने भले ही कई मौकों को अपनी जिंदगी में खोया हो,पर यह बात भी उतनी ही सही है कि उन नामुराद मौकों ने भी हमें खोया है।अगर एक भी मौका हमें मिलता तो आज वह भी कितना ख़ूबसूरत होता !




2 टिप्‍पणियां:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

हाहा.............खूब मज़ेदार है. बधाई भी

विष्णु भट्ट ने कहा…

बहुत खूब त्रिवेदी जी। मौकों के मारे फिर भी न हारे। आप किसी धोनी से कम कहाँ हो सर।

धुंध भरे दिन

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