मंगलवार, 20 मई 2014

सरकार छोड़िए,विचार के लाले पड़ गए !

बीते कई महीनों से देश पर चढ़ा चुनावी-ज्वार शांत हो गया है।इसके साथ ही नेताओं का खुमार और आम आदमी का बुखार भी उतर गया।वे जिसे लहर समझने से कतरा रहे थे,वह कहर बनकर आई ।पूरे के पूरे मठ और खम्भे ढह गए।बहुतों पर ऐसी मार पड़ी कि हार से ज्यादा भविष्य के रोजगार पर ग्रहण लग गया ।कहीं कोई नामलेवा नहीं बचा तो कहीं सांत्वना के लिए एक कंधा भी नहीं मिल रहा ।भगवान ऐसे दिन किसी को न दिखाए,तिस पर लोग रट लगाये हैं कि अच्छे दिन आ गए।क्या ऐसे ही होते हैं अच्छे दिन ?

चुनावों ने किसी के मन का नहीं किया।जो सरकार चलाने भर के लिए अपनी झोली फैलाये हुए थे,उनके दामन में इतना प्रसाद आ गया कि छलकने लगा। माना यह गया कि मछलियों और बगुलों ने तालाब को ख़ूब मथा जिससे कीचड़ ज़्यादा निकला।इसी वजह से तालाब कमल के फूलों से लद गया।यह महत्वपूर्ण रूपक जब तक समझ में आता,बाकी लोग तालाब से बाहर हो चुके थे।जनता को कमलगट्टे खाने के लिए कुछ समय का इंतज़ार तो करना होगा पर तालाब से निकल चुकी कई मछलियाँ बिना जल के कब तक जीवित रह पाएंगी ?

चुनाव परिणामों ने कई जगह एकाकी-चिंतन का माहौल बना दिया है।कुछ सूझ नहीं रहा। सरकार बनाने के लिए नहीं,चिंतन-विमर्श के लिए तो कुछ आदमी होने चाहिए।जो लोग परिवार के सहारे सरकार चला रहे थे,चिंतन के लिए जनता ने उन्हें परिवार तक ही सीमित कर दिया है । ऐसी सुनामी आई कि सब कुछ तहस-नहस हो गया है।प्रतीकों के रूप में देखें तो हाथी सुन्न पड़ गया,तो हाथ अनाथ हो गया है ।कहीं रोने वाले नहीं बचे तो कहीं आँसू पोंछने वाले।हैंडपम्प उखड़ के हाथ में आ गया है । कल तक जिस झाड़ू पर बहार आई हुई थी,आज उसने खुद को ही बुहार दिया है।जिस लालटेन को लोग ताक रहे थे कि आखिरी क्षणों में भकभका कर रोशन हो उठेगी,उसका शीशा ही चटक गया ।सारे तीर तरकश में ही धरे रह गए।सूरज समय से पहले डूब गया और साइकिल गड्ढे में फिर गई.

अब फटे कुर्तों की जेबों से इस्तीफ़े लहरा रहे हैं।यह हार नहीं अंदरूनी मार है।वे कई हारों को पचा चुके हैं, फूलों का हार बनाकर गले लगा चुके हैं पर इस कमल का कमाल उनकी समझ से परे है।फ़िलहाल,पार्टी या संगठन की हार के बजाय सब अपनी ही हार के विचार में लगे हैं, पर वह भी तो अकेले नहीं होता।


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