बुधवार, 28 अक्तूबर 2015

लतियाने का साहित्यिक महत्त्व !

आलोचक-प्रभु जी प्रस्तर-पीठिका पर विराजमान थे।हमें देखते ही उन्होंने अपना दाहिना हाथ शून्य की ओर उठाया,मानो वे हमारी जड़ता को तोड़ने का संकेत दे रहे हों।उनका इतना स्नेह देखकर मैं अभिभूत हो गया।मेरी दृष्टि बरबस उनकी काया के सबसे निचले भाग की ओर ताकने लगी।मुझे ऐसा करते हुए प्रभु बोल पड़े,’क्या खोज रहे हो वत्स ? किसी गम्भीर तलाश में दिखते हो ! ’ मैंने चेहरे पर पूर्ण चेलत्व-भाव लाते हुए निवेदन किया,’प्रभु आपके चरणारविन्द कहाँ हैं ? मैं उन्हें स्पर्श कर अपना जीवन धन्य करना चाहता हूँ।आप जानते हैं कि जब तक मुझे आपके चरणों का संसर्ग नहीं मिलता,की-बोर्ड पर मेरी उँगलियाँ आगे नहीं बढ़तीं।’

प्रभु पक्के अन्तर्यामी ठहरे।हमारी विवशता तुरंत समझ गए और बोले,’वत्स ! चरण अभी खाली नहीं हैं।बड़ी दूर से ये कविश्री आए हुए हैं और चरणों पर स्नेह-अर्पित कर रहे हैं।इस बार की साहित्य-अकादमी इनके ही नाम बुक करवाई है।तुम तो मेरे गुणों के नियमित ग्राहक हो ।तुम्हारे लिए कुछ और मैनेज कर देंगे।तुम पहले तनिक विश्राम तो कर लो,फ़िर यह आवश्यक कर्म भी कर लेना।’ मैंने कहा,’प्रभु ! मैं बहुत चिंतित होकर ही आपके पास आया हूँ।इधर राजनीति से खबरें आ रही हैं कि बहुत ही खास और निकट के लोगों को लात मारकर आगे बढ़ाया जा रहा है।कहीं साहित्य इस मामले में पिछड़ गया तो ?’

‘नहीं वत्स,उसकी भी व्यवस्था मैंने सोच रखी है।साहित्य इस मामले में न पिछड़ने पाए इसके लिए हम प्रतिवर्ष लातोत्सव का आयोजन करने जा रहे हैं।जिससे सभी किस्म की लातें अपना हुनर दिखा पाएंगी।इससे यह फायदा भी होगा कि सबकी लातत्व-क्षमता देख-परखकर ही गुरु चुना जा सकता है।गुरु यदि ढंग से लतिया सकता है तो शिष्य भी मौका पाकर उसे अगूँठा दिखा सकता है।’आलोचक जी इतना कहकर हमारी ओर देखने लगे।हमने भी बिना मौका गँवाए पूरे समर्पित भाव से उनकी आशंका खारिज करते हुए कहा,’मेरी पीठ आपके लिए सदैव हाज़िर है।आप जैसे चाहें,उछलें-कूदें।यह पीठ आजीवन आपकी आभारी रहेगी।भविष्य की,सॉरी साहित्य की चिन्ता में मैं इस बार पिछवाड़े से कूदकर आया हूँ ।मेरी अंतिम इच्छा थी कि आप मुझे ही लतियायें,पर यहाँ तो कविवर पहले से ही लिपटे हुए हैं।’


आलोचक-प्रभु जी यह बात सुनकर थोड़ा चौकन्ने और सतर्क हो गए ।थोड़ा विचारकर कहने लगे,’राजनीति में लात मारने की कला से मैं अनभिज्ञ नहीं हूँ वत्स, पर वहाँ अभी भी इस क्षेत्र में पिछड़ापन है।साहित्य में ये विधा बहुत पहले से चलन में है।यहाँ तो आगे से ही लात का प्रहार किया जाता है जबकि राजनीति में अभी भी उसे पीछे से मारा जाता है।लतियाना साहित्य की मौलिक परम्परा रही है।हम इस विधा के अग्रदूत हैं तभी इतनी बड़ी पीठिका में चरण धरे हुए हैं।तुम्हारी चिन्ता व्यर्थ है वत्स ! यह कवि बहरा है।इसे अपनी कविताओं के अलावा कुछ सुनाई भी नहीं देता है।इससे आतंकित मत हो।’

अभी भी मेरे मन को पूर्ण आश्वस्ति नहीं हुई थी।मैंने प्रभु को कातर नेत्रों से देखते हुए उनसे याचना की,’पर मेरे मौलिक अधिकार पर किसी अन्य ने डाका डाल लिया तो चिन्ता तो होती है भगवन ! बिना आपके लतियाये मेरी साहित्यिक यात्रा आगे कैसे बढ़ पाएगी ?मैं तो अनाथ हो गया प्रभु !’

प्रभु ने सदा की तरह मेरे ऊपर अपना पूरा स्नेह निचोड़ दिया,बोले-‘वत्स ! मैं जो भी कर रहा हूँ,तुम्हारे कल्याणार्थ ही है।समय अब बहुत बदल गया है।इस क्षेत्र में प्रतियोगिता बहुत बढ़ गई है।इसलिए अच्छे परिणाम पाने के लिए चरणों में तेल-मालिश करवा रहा हूँ।इसके बाद लतियाने की गुणवत्ता चौगुनी बढ़ जाती है।हमें भी बुढ़ापे में अब सूखी लात मारने में बड़ा कष्ट होता है,इसलिए चिकने चरण मेरी और लात खाने वाली पार्टी,दोनों की सेहत के लिए मुफीद हैं।और हाँ,तुम चिन्ता मत करो,पहले प्रहार पर तुम्हारा ही अधिकार है।इससे तुम्हें वंचित नहीं करूँगा।कविवर सूखी लात खाकर ही सुखी हो जायेंगे।’

आलोचक-प्रभु जी के ऐसे स्नेहसिक्त वचन सुनकर मेरे नयन आर्द्र हो उठे।मैंने उनसे अगली साहित्यिक गोष्ठी के विमर्श के लिए निवेदन किया तो बोले,’अगली बार गोष्ठी प्रारम्भ होने से पहले ही अपने गुट के सभी सदस्यों को सामूहिक रूप से लतियाया जायेगा ताकि उनके अंदर के सभी मनोविकार अपने सहज रूप में बाहर आ जाएँ और आगामी लातोत्सव-प्रतियोगिता में बेहतरीन प्रदर्शन कर सकें।इससे सदस्यों में अतिरिक्त ऊर्जा का संचार होगा और वे बैठक में विरोधी गुट से लतिहाव करने की स्पर्धा में पिछडेंगे भी नहीं।’


इस बीच कविश्री ने कुछ पलों के लिए प्रभु के चरण छोड़े।मैंने इस स्वर्णिम मौके को झट से लपकते हुए उनके चरणों में अपनी पूरी काया समर्पित कर दी।प्रभु ने भी बिना मौका गँवाए,तेल-मालिश युक्त लात का मुझ पर ऐसा प्रहार किया कि मैं वहाँ से सीधे नगर के एक सम्मान-समारोह में जा गिरा।

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