पिछले दिनों शहर में हो रहे एक ‘साहित्य-महोत्सव’ के पास से गुजरना हुआ।इस दौरान एक बड़े-से पोस्टर पर मेरी नज़र ठिठक गई।महोत्सव में अनूठा विमर्श चल रहा था,जिसका विषय था, ‘साहित्य में नर्क’।वैसे तो हर साल महोत्सवों में नए प्रयोग सुनते आए हैं,पर यह वाला बिल्कुल ‘फ्रेश’ था।एकदम मौलिक,आजकल की कविताओं की तरह।ख़ास बात यह थी कि इस विमर्श को सहने,क्षमा करें,सुनने के लिए भुगतान भी देना था।यानी नर्क जाना भी अब सस्ता नहीं रहा।हो सकता है विमर्शकार वहाँ जाने का कोई शॉर्टकट बताने वाले हों,यही विचार मन में आया।वैसे भी लंबे समय से साहित्य ने चौंकाया नहीं था।इस मायने में आयोजकों ने शानदार पहल की थी और पर्याप्त चौंकाया भी।
पहली दृष्टि में आयोजक सरकार की कार्यशैली से प्रभावित लगते दिखे।जैसे वह जनता पर कैसे टैक्स लगाया जाए इस पर दिन-रात चिंतन करती रहती है,वैसे ही आधुनिक साहित्यकार भी पाठकों को मुक्ति की राह बताने में तन-मन-धन से जुटे हुए हैं।अचानक मुझे नोटबंदी का वह समय याद आ गया जब लोग बैंक या एटीएम के सामने गुजरने से भी काँपते थे।उन्हें डर लगता था कि कहीं उनका न्यूनतम बैलेंस और न्यूनतम न हो जाए ! इस पोस्टर को देखकर एकबारगी यही डर लगा।
बहरहाल, ‘साहित्य में नर्क’ विषय पर विमर्श जानकर अच्छा लगा कि इस तरह के प्रतिभावान लोगों के कारण ही अब तक साहित्य सुरक्षित है और यह धरा भी।लेखन न सही विमर्श तो उच्च-कोटि का हो ही रहा है।आज साहित्य के आधुनिक कार्यकर्ता ऐसे,वैसे और न जाने कैसे-कैसे योगदान देने में सक्षम हैं।इससे भी बड़ी बात कि लोग ड्रामे की तरह विमर्श सुनने का टिकट भी ले रहे हैं।आधुनिक पाठक और श्रोता भी पर्याप्त समृद्ध और सजग हो चुके हैं।पहले स्वर्ग जाने के लिए वर्षों की तपस्या लगती थी,अब नर्क के लिए टिकट कट रही है।स्वर्ग को नर्क से इस तरह भी ‘रिप्लेस’ किया जा सकता है।यह ‘नया वाला साहित्य’ है जो स्वर्ग और नर्क का भेद मिटाकर सच्चा समाजवाद ला रहा है।इसने भी अपनी एक ‘जनता’ बना ली है।यह स्थापित सत्य है कि अब कुछ भी मुफ्त का नहीं है।वह रेवड़ी भी नहीं जो नेता हर पाँच साल में बाँटते हैं।
पोस्टर ने उत्सुकता बढ़ा दी थी।अंदर गया तो एक भारी पंडाल था।एक तरफ़ छोले-भटूरे और गोलगप्पे के स्टॉल लगे थे,दूसरी ओर किताबें सजी थीं।मैंने उत्सुकतावश एक स्टॉल वाले से बिरयानी की पड़ताल की तो उसने मुझे समझाया कि यह सब एहतियातन मना है।आयोजकों को डर था कि संस्कारवादियों को कहीं इसकी भनक लग गई तो ‘विमर्श-स्थल’ की बजाय यहीं पर नर्क शुरू हो जाएगा।फिर उन्हें करने के लिए कुछ नहीं बचेगा।मैं उदास होकर आगे बढ़ गया।काउंटर पर टिकट लेने की कोशिश की,पता चला शो हाउसफुल जा रहा है।अगले महोत्सव का इंतज़ार करें या स्क्रीन पर आ रहे विमर्श से जुड़ जाएँ ! मैंने स्क्रीन पर निगाहें गड़ा दीं।
एक वरिष्ठ चर्चाकार बोल रहे थे।उनका मुख-मंडल सुलग रहा था।लगा कि उनका अध्ययन बोल रहा है।उनके परिचय में लिखा था कि वह नर्क करने के मामलों में विशेषज्ञ हैं।वह एक मिनट बाद ही सीधे तुलसी पर आ गए।कहने लगे, ‘ साहित्य में नर्क लाने का श्रेय सिर्फ़ तुलसी को है।एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा कि उनकी दृष्टि बिल्कुल साफ़ थी।उन्होंने कहा है,जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।सो नृप अवसि नरक अधिकारी।यहाँ तुलसी राजा के लिए नर्क जाने का सुगम मार्ग बता रहे हैं।यदि उसे अपने नर्क की सीट पक्की करनी है तो अपनी करनी से प्यारी प्रजा को दुःख पहुंचाए।अपनी प्रजा के प्रति राजा का यह अनुपम त्याग है।वह प्रजा के साथ ही नर्क भोगने को तैयार है ।लेकिन यह बात न कोई पत्रकार बताएगा और न ही साहित्यकार।तुलसी इसीलिए बड़े हैं।वह बहुत पहले जान गए थे कि सियासत और साहित्य नर्क पहुँचाने की सीढ़ियाँ हैं।ग़ालिब ने भी बाद में स्वीकार किया था कि उन्हें जन्नत की हकीकत मालूम है।इससे सिद्ध होता है कि ज़्यादा संभावनाएँ नर्क में ही हैं।इसीलिए अधिकतर जनसेवक ,पत्रकार और लेखक नरक-प्रेमी बन गए हैं !’
तभी एक उत्साही श्रोता ने सवाल उठा दिया, ‘क्या इसीलिए हम सबको नर्क में धकेला जा रहा है ताकि हम इन सबके काम आएँ ?’ विमर्शकार कुछ बोल पाता कि तभी स्क्रीन में अँधेरा छा गया।अचानक संचालक ने माइक पर विषय-परिवर्तन की घोषणा कर दी।अब स्क्रीन के ऊपर मोटे-मोटे अक्षरों में नया शीर्षक फ़्लैश होने लगा था,‘नर्क में साहित्य’।चर्चाकार अभी भी वही थे,बस विमर्श बदल गया था ।