रविवार, 16 फ़रवरी 2025

शून्य हासिल करने का सुख

हाल ही में राजधानी में शांतिपूर्वक चुनाव संपन्न हुए।अचरज इस बात का रहा कि चुनाव-परिणाम एग्जिट-पोल के मुताबिक आए और शांतिपूर्वक स्वीकारे भी गए।परिणामों के बाद अब सर्वत्र समीक्षा,मंथन और चिंतन का दौर शुरू है।जो जीते हैं,वे इस बात पर हैरान हैं कि ऐसे कैसे जीत गए ! और भी अच्छी तरह से जीत सकते थे।जो हारे हैं, उनका आकलन है कि लोग तो बेईमानी से हारते हैं,वे विशुद्ध ईमानदारी से हारे हैं।और तीसरे जो जीत में थे, हार में; वे सबसे ज़्यादा ख़ुश हैं।वे इसी में मगन हैं कि इस बार का शून्य पिछली बार से अलग है।हारने-जीतने वालों से ज़्यादा चर्चा उन्हीं की है।उनकी उपस्थिति भर से मजबूत सरकार भरभराकर गिर गई।यह महत्वपूर्ण उपलब्धि है।इन चर्चाओं के बीच हम तीनों दलों से अंदर की खबर खींच कर लाए हैं।


पहले चुनाव जीतने वालों की खबर लेते हैं।वे कई बरस बाद जीते हैं।जाहिर है सबसे ज़्यादा गहमागहमी यहीं थी।सभी जीते हुए लोग एक गोल बनाकर बैठे हुए थे।एक वरिष्ठ नेता सबको संबोधित कर रहे थे, ‘भाइयो, यह जीत हमारी और केवल हमारी है।कुछ लोग अफवाह फैला रहे हैं कि हम लोग यूँ ही जीत गए हैं।यह सरासर ग़लत है।हमें पता है कि हम कैसे जीते हैं ! हमारे अंदर जीत की भूख हरदम रहती है।हमारी उपस्थिति हार-जीत से ज़्यादा सरकार बनाने के लिए होती है।हमेंबिन-दूल्हे की बारातकहा जा रहा था,फिर भी हम जीते।यह अलग बात है हम अभी भी उस दूल्हे को तलाश रहे हैं।जनता आश्वस्त रहे।अगले चुनावों से पहले हमारी खोज पूरी हो जाएगी।दूल्हे की बात से याद आया; जिनके पास दूल्हा था, वही घोड़ी से गिर गया।अब बारात पर भी संकट है।हमें पूरी उम्मीद है कि वह जल्द किसी दूसरे पंडाल में प्रवेश कर जाएगी।फ़िलहाल आप सभी लोगगारंटीके मजे लें।इतना कहकर नेताजी ने अपनी वाणी को विराम दिया और सभी लोग दावतख़ाने की ओर लपके।


वहाँ से निकलकर दूसरे दल के पंडाल में पहुँचा तो माहौल बहुत गर्म था।पंद्रह-करोड़ीविधायक बेहद उत्तेजित थे।आलाकमान से वे अपने-अपने नुक़सान की भरपाई की माँग कर रहे थे।उनका सबसे बड़ा दुःख था कि हारने के बाद वे बिकने लायक़ भी रहे।उनके नेता ने सबको शांत करते हुए कहा, ‘असल नुक़सान तो हमारा हुआ है जी।हम आंदोलन से निकले लोग हैं।सरकार में आने से पहले सड़क पर ही थे।हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता जी।जनता पर पूरा भरोसा है हमें।उसकी याददाश्त कमजोर है।वह हमें जरूर फिर से याद करेगी।हम समंदर तो नहीं फिर भी लौट के आएंगे।यमुना मइया की क़सम।अब आम आदमी के मुँह में मुफ्त का ख़ून लग चुका है।वह छूटने वाला नहीं है।कुछ आदतें जनता की बदली हैं और कुछ हमारी भी।हम अपनीकट्टर ईमानदारीको रिचार्ज करेंगे।हम हारे भले हैं,पराजित नहीं हुए हैं।असल में हम भ्रष्टाचार साफ़ करने आए थे और हमें ख़ुशी है कि पूरी ईमानदारी से हम स्वयं साफ़ हो गए हैं !’ उनके इस चुनावी-चिंतन से तालियों का शोर इतना बढ़ गया कि आगे कुछ सुनाई नहीं दिया।


मेरे कदम अब तीसरे दल के शामियाने की ओर बढ़ गए।असल ज़श्न का माहौल वहीं दिखा।लोग एक-दूसरे को बधाई दे रहे थे।मैंने पहली बार किसी को हार की बधाई देते सुना।उनके नेता ऊँचे मंच से चहकते हुए कह रहे थे, ‘दोस्तो, बड़े संघर्ष के बाद हमने लगातार तीसरी बार शून्य हासिल किया है।ऐसे समय में जब सब कुछ तेजी से गिर रहा हो,तब शून्य ने विशेष प्रतिष्ठा अर्जित की है।राजनीति हो, बाज़ार हो या रुपया हो,सभी शून्य से होड़ लगाए हुए हैं।इसी से पता चलता है कि शून्य का क्या महत्व है ! जहाँ शून्य पाकर हम मालामाल हुए हैं ,वहीं सरकार चला रहे लोग अचानक संज्ञा-शून्य हो गए हैं।उन्हें एक झटके से सत्ता से बाहर होना पड़ा है।हमारे शून्य के प्रहार सेशीशमहलतक उजड़ गया है।जो नई सरकार बनाने जा रहे हैं,शून्य की महत्ता को वह भी नकार नहीं सकते।यह हमारा शून्य है जो किसी और के शून्य से बिल्कुल अलग है।शून्य में असीमित संभावनाएँ होती हैं जिन्हें आम लोग नहीं समझ सकते।यह हमें सकारात्मक ऊर्जा भी प्रदान करता है।हम भविष्य में और बेहतर शून्य की कामना करते हैं।ऐसा कहकर वे शून्य की ओर ताकने लगे।

शून्य की यह दार्शनिक व्याख्या उनकी पराजय की व्याख्या पर कितनी भारी पड़ी,यह जानकर मैं संज्ञा-शून्य हो गया।थोड़ी देर बाद जब चेतना वापस लौटी तो समझ में आया कि ऐसी निर्मम समीक्षाएँ ही हमारे लोकतंत्र को स्वस्थ बना रही हैं।


रविवार, 26 जनवरी 2025

राजधानी में वसंत

राजधानी में चुनाव हैं।मौसम सर्द से अचानक गर्म हो उठा है।वसंत के आने में भले थोड़ा वक़्त हो, पर राजधानी में इसने अभी सेएंट्रीले ली है।चुनाव के प्रभाव में नेता ही नहीं वसंत ने भी आचार-संहिता तोड़ डाली।यह उसी का प्रभाव है कि प्रदूषित राजधानी एकदम से हरिया उठी है।सब कुछ फ्री बँट रहा है।तीन दल मिलकर यह पुण्य-कर्म कर रहे हैं।कहने को तो तीनों अलग-अलग विचार के हैं पर आचार के मामले में सब मिले हुए हैं।आख़िर बात जनता के हित की है।तीनों अपने जादू के पिटारे रोज़ खोलते हैं और हवा में कई सारे तीतर-बटेर एक साथ उछाल देते हैं।पढ़ना फ्री,खाना फ्री,रहना फ्री,जाना फ्री।फ्री की बिजली,फ्री का पानी।फ्री की साँस।इतने सारेफ्रीदेखकर जनता भौंचक है।वह सोच नहीं पा रही है कि क्या ले और क्या मना करे ! वह यह भी नहीं सोच पा रही कि उसे अभी तक इसीलिए कुछ नहीं दिया गया था ताकि नेताओं को उसेफ़्रीदेने का मौक़ा मिल सके।इस फ्री के मेले में उसे फ्री का प्रदूषण भी नहीं याद रहा।यहफ्रीका चुनाव कितना मँहगा पड़ता है, इसके बारे में वह सोचना भी नहीं चाहती।यहाँ एक-दूसरे में ही नहीं तीसरे में भी प्रतियोगिता चल रही है।जो जितना ज़्यादा बाँटेगा,उतना ज़्यादा जीतेगा।इस चुनाव में जिसे सबसे कम उम्मीद है,वह सबसे ज़्यादा बाँट रहा है।जनता भले बँट जाए,नेताओं की एकता बेमिसाल है।


सभी दल भूखी और तंगहाल जनता को सब कुछ फ्री देने पर आमादा हैं, लेकिन शर्तों के साथ।सबकी सम्मिलित अपील है कि हवा में छोड़ी हुई चीज उनके कटोरों में तभी गिरेगी,जब वह उनका बटन दबाएगी।दलीय भेदभाव से उठकर तीनों दल आम जनता कोसब कुछ फ्रीपाने का पासवर्ड दे रहे हैं।उनके घोषणा-पत्र,संकल्प-पत्र में ही यह पासवर्ड लिखा हुआ है।अपने भरोसे चाचा को भी इस वसंत का लाभ मिला।उनके दरवाजे के पार से कल रात कोई तीन लिफाफे टिका गया।एक में करारे नोट,दूसरे में एक जोड़ी सुंदर जूते और तीसरे में कच्छा और बनियान का नया सेट मिला।सभी लिफाफों में हाथ से लिखा प्रेम-पत्र संलग्न था।रूपए, जूते और कच्छा-बनियान तो उन्होंने धर लिए पर उन प्रेम-पत्रों में क्या है ,यही समझने के लिए वह मेरे पास दौड़े आए। 



तीनों पत्र मजेदार थे।मुझे यह देखकर अच्छा लगा कि सभी पार्टियां अपनी परंपरा से स्नेह करती हैं ।भरोसे चाचा ने मुझे भरोसे में लेकर अपने निजी ख़त मेरे हवाले कर दिए।मैंने पहले गुलाबी लिफाफा खोला।लिफाफा बेहद आकर्षक था।चाचा ने बताया कि नोट इसी में निकले थे।पत्र क्या था,दिल की बात थी।मैंने पढ़ना शुरू किया, ‘लिखता हूँ ख़ून से,स्याही समझना।मेरी दी मदद को इंकार मत करना।आपकी सेवा के लिए ही मुझे ईमानदार होना पड़ा।आगे मौक़ा देंगे,इससे बढ़कर ईमानदारी दिखाएँगे।मेरी भेंट ईमानदारी से दी गई है।इसे अस्वीकार करने का मतलब है,आप ईमानदार नहीं हैं।सच्ची ईमानदारी है कि इस हाथ से ले,उस हाथ से दे।ईश्वर ने इसीलिए आपको दो हाथ दिए हैं।लिखा थोड़ा,समझना बहुत।


मैंने अब दूसरा ख़त उठा लिया।चाचा को भरोसा दिलाया कि पहले सब खुल जाएँ,फिर हम इनका मर्म समझा देंगे।दूसरा ख़त शानदार और बड़ा था।संदेश अंदर था।राजधानी को मेरी नहीं आपकी ज़रूरत है।मैं तब तक कुछ करने में असमर्थ हूँ,जब तक मेरे हाथ सरकारी चाबुक हो।चाबुक भी चमड़े की होनी चाहिए इसलिए मेरे जूते चमड़ी -फ्रेंडली है।यह आपके ऊपर है कि इन्हें पहनते हैं या फिर सिर पर लेते हैं।मुझे देशव्यापी सेवा का अनुभव है,इसलिए चुपचाप मेरी ही सेवा गृहण करें।लोग दूसरों पर कृपा करते हैं,आप ख़ुद पर करें।इसे जुमला समझें।धन्यवाद।


चाचा की निगाह अब तीसरे लिफ़ाफ़े की तरफ़ थी,जिसमें कच्छा और बनियान मिले थे।मैंने पत्र पढ़ना शुरू किया, ‘ मैं आपका चिर-परिचित हूँ।आपको कच्छा-बनियान पहनने लायक़ मैंने ही छोड़ा।आगे भी आपकी यह हालत बरक़रार रहे,इसके लिए मुझे ही रिचार्ज करें।दूसरे जो भी दे रहे हैं,उसमें एक बढ़ाकर दूँगा।यह कच्छा-बनियान हमेशा से आपका रहा है,आगे भी रहेगा।और एक बात।इतने सालों में हम आप को कुछ बना नहीं पाए तो आप भी मेरा क्या बिगाड़ पाए ? इसलिए पिछला सब भूलने में भलाई है।मुझे वोट देते रहेंगे,तो विकास होता रहेगा।मैं आपकी ही नहीं,आपके बच्चों की भी जिम्मेदारी लेता हूँ।क़सम से।


मैं कुछ कहता कि भरोसे चाचा बीच में ही बोल उठे, ‘यही वाला सबसे बढ़िया है।कम से कम बच्चों के लिए कच्छे-बनियान का इंतज़ाम तो नहीं करना पड़ेगा।अगला क़सम खा रहा है।साथ में कुछ और खा लेगा, मुझे क्या।बदले में मुझे बस एक वोट देना है।मेरे वोट की क़ीमत मुझे ही नहीं पता थी अब तक !’ यह कहते हुए उन्होंने तीनों पत्र कलेजे से लगा लिया।मैं खुश था कि मुझे समझाना नहीं पड़ा।



शून्य हासिल करने का सुख

हाल ही में राजधानी में शांतिपूर्वक चुनाव संपन्न हुए।अचरज इस बात का रहा कि चुनाव - परिणाम एग्जिट - पोल के मुताबिक आए और श...