रविवार, 27 अक्तूबर 2024

साहित्य-महोत्सव और नया वाला विमर्श

पिछले दिनों शहर में हो रहे एकसाहित्य-महोत्सवके पास से गुजरना हुआ।इस दौरान एक बड़े-से पोस्टर पर मेरी नज़र ठिठक गई।महोत्सव में अनूठा विमर्श चल रहा था,जिसका विषय था, ‘साहित्य में नर्क।वैसे तो हर साल महोत्सवों में नए प्रयोग सुनते आए हैं,पर यह वाला बिल्कुलफ्रेशथा।एकदम मौलिक,आजकल की कविताओं की तरह।ख़ास बात यह थी कि इस विमर्श को सहने,क्षमा करें,सुनने के लिए भुगतान भी देना था।यानी नर्क जाना भी अब सस्ता नहीं रहा।हो सकता है विमर्शकार वहाँ जाने का कोई शॉर्टकट बताने वाले हों,यही विचार मन में आया।वैसे भी लंबे समय से साहित्य ने चौंकाया नहीं था।इस मायने में आयोजकों ने शानदार पहल की थी और पर्याप्त चौंकाया भी।

पहली दृष्टि में आयोजक सरकार की कार्यशैली से प्रभावित लगते दिखे।जैसे वह जनता पर कैसे टैक्स लगाया जाए इस पर दिन-रात चिंतन करती रहती है,वैसे ही आधुनिक साहित्यकार भी पाठकों को मुक्ति की राह बताने में तन-मन-धन से जुटे हुए हैं।अचानक मुझे नोटबंदी का वह समय याद गया जब लोग बैंक या एटीएम के सामने गुजरने से भी काँपते थे।उन्हें डर लगता था कि कहीं उनका न्यूनतम बैलेंस और न्यूनतम हो जाए ! इस पोस्टर को देखकर एकबारगी यही डर लगा।


बहरहाल, ‘साहित्य में नर्कविषय पर विमर्श जानकर अच्छा लगा कि इस तरह के प्रतिभावान लोगों के कारण ही अब तक साहित्य सुरक्षित है और यह धरा भी।लेखन सही विमर्श तो उच्च-कोटि का हो ही रहा है।आज साहित्य के आधुनिक कार्यकर्ता ऐसे,वैसे और जाने कैसे-कैसे योगदान देने में सक्षम हैं।इससे भी बड़ी बात कि लोग ड्रामे की तरह विमर्श सुनने का टिकट भी ले रहे हैं।आधुनिक पाठक और श्रोता भी पर्याप्त समृद्ध और सजग हो चुके हैं।पहले स्वर्ग जाने के लिए वर्षों की तपस्या लगती थी,अब नर्क के लिए टिकट कट रही है।स्वर्ग को नर्क से इस तरह भीरिप्लेसकिया जा सकता है।यहनया वाला साहित्यहै जो स्वर्ग और नर्क का भेद मिटाकर सच्चा समाजवाद ला रहा है।इसने भी अपनी एकजनताबना ली है।यह स्थापित सत्य है कि अब कुछ भी मुफ्त का नहीं है।वह रेवड़ी भी नहीं जो नेता हर पाँच साल में बाँटते हैं।


पोस्टर ने उत्सुकता बढ़ा दी थी।अंदर गया तो एक भारी पंडाल था।एक तरफ़ छोले-भटूरे और गोलगप्पे के स्टॉल लगे थे,दूसरी ओर किताबें सजी थीं।मैंने उत्सुकतावश एक स्टॉल वाले से बिरयानी की पड़ताल की तो उसने मुझे समझाया कि यह सब एहतियातन मना है।आयोजकों को डर था कि संस्कारवादियों को कहीं इसकी भनक लग गई तोविमर्श-स्थलकी बजाय यहीं पर नर्क शुरू हो जाएगा।फिर उन्हें करने के लिए कुछ नहीं बचेगा।मैं उदास होकर आगे बढ़ गया।काउंटर पर टिकट लेने की कोशिश की,पता चला शो हाउसफुल जा रहा है।अगले महोत्सव का इंतज़ार करें या स्क्रीन पर रहे विमर्श से जुड़ जाएँ ! मैंने स्क्रीन पर निगाहें गड़ा दीं।


एक वरिष्ठ चर्चाकार बोल रहे थे।उनका मुख-मंडल सुलग रहा था।लगा कि उनका अध्ययन बोल रहा है।उनके परिचय में लिखा था कि वह नर्क करने के मामलों में विशेषज्ञ हैं।वह एक मिनट बाद ही सीधे तुलसी पर गए।कहने लगे, ‘ साहित्य में नर्क लाने का श्रेय सिर्फ़ तुलसी को है।एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा कि उनकी दृष्टि बिल्कुल साफ़ थी।उन्होंने कहा है,जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।सो नृप अवसि नरक अधिकारी।यहाँ तुलसी राजा के लिए नर्क जाने का सुगम मार्ग बता रहे हैं।यदि उसे अपने नर्क की सीट पक्की करनी है तो अपनी करनी से प्यारी प्रजा को दुःख पहुंचाए।अपनी प्रजा के प्रति राजा का यह अनुपम त्याग है।वह प्रजा के साथ ही नर्क भोगने को तैयार है ।लेकिन यह बात कोई पत्रकार बताएगा और ही साहित्यकार।तुलसी इसीलिए बड़े हैं।वह बहुत पहले जान गए थे कि सियासत और साहित्य नर्क पहुँचाने की सीढ़ियाँ हैं।ग़ालिब ने भी बाद में स्वीकार किया था कि उन्हें जन्नत की हकीकत मालूम है।इससे सिद्ध होता है कि ज़्यादा संभावनाएँ नर्क में ही हैं।इसीलिए अधिकतर जनसेवक ,पत्रकार और लेखक नरक-प्रेमी बन गए हैं !’


तभी एक उत्साही श्रोता ने सवाल उठा दिया, ‘क्या इसीलिए हम सबको नर्क में धकेला जा रहा है ताकि हम इन सबके काम आएँ ?’ विमर्शकार कुछ बोल पाता कि तभी स्क्रीन में अँधेरा छा गया।अचानक संचालक ने माइक पर विषय-परिवर्तन की घोषणा कर दी।अब स्क्रीन के ऊपर मोटे-मोटे अक्षरों में नया शीर्षक फ़्लैश होने लगा था,‘नर्क में साहित्य।चर्चाकार अभी भी वही थे,बस विमर्श बदल गया था


रविवार, 6 अक्तूबर 2024

एक अदद सम्मान के लिए !

वह एक सामान्य दिन नहीं था।मैं देर से सोकर उठा था।अभी अलसाया ही था कि ख़ास मित्र का फ़ोन गया।ख़ास इसलिए क्योंकि उनसे अमूमन बात नहीं होती।कुछ असामान्य घटित होता है तो वह पहली सूचना मुझे ही देते हैं।इस आशंका से मैं एकबारगी सहम उठा।मैंने डरते-डरते कॉल रिसीव की।उधर से मित्र की भारी सी आवाज़ कानों में पड़ीयार,इस बार भी त्रिपाठी मार ले गया।न जाने साहित्य को कौन-सा ग्रहण लग गया है ! तो मानवीय संबंधों की कोई कद्र बची है और नियम-क़ायदों की।साहित्य को गिरने से अब तो मैं भी नहीं बचा सकता।यह कहकर उन्होंने गहरी साँस ली।


त्रिपाठी का नाम सुनते ही मेरी चेतना वापस गई।मेरा संवेदनशील हृदय ज़ोर-ज़ोर से पंप करने लगा।त्रिपाठी हम दोनों का कॉमन-शत्रु था।अच्छा लिखता था पर वह हमें बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था।इस खबर के बाद और भी बुरा लगने लगा।फिर भी स्वयं पर नियंत्रण करते हुए पूछा, ‘ क्या हुआ मित्र ! जरा खुलकर बताओ ताकि मैं भी तुम्हारी चिंता में शरीक़ हो सकूँ ! उसने तुम्हारा क्या अनर्थ कर दिया ?’


वह लगभग डपटते हुए बोले ,‘ भई, तुम स्थिति की गंभीरता नहीं समझ रहे हो।गाज मेरे ऊपर नहीं गिरी है।मैं तो तुम्हारे लिए हलकान हो रहा हूँ।इस बार बड़े लेखक वाला सम्मान जो तुम्हें मिलना चाहिए था, वह ले गया।वह इतना भी बड़ा नहीं हुआ कि सबसे बड़े लेखक के नाम का सम्मान उसे मिले।अभी हम जीवित हैं।यह कहते हुए उन्होंने उसके माता-पिता को समुचित आदर दिया।इस मामले में वह पर्याप्त विनम्र थे।आपसी मतभेदों को सादर निपटाते थे।


इस बीच मैं गंभीर हो चुका था और ग़मगीन भी।आज आख़िरी आस भी टूट गई।ऐरे-ग़ैरे रोज़ सम्मान पा रहे हैं और मैं इस श्रेणी के भी लायक़ नहीं।मन को कहाँ तक सांत्वना दूँ पर बात तो करनी थी,सो बोल दिया, ‘किंतु यह हुआ कैसे ? इस बार तो हमने सही फ़ील्डिंग जमाई थी।चयनकर्ताओं की नियमित ख़ैर-ख़बर भी रखते थे।एक की तो हवाई-टिकट के पैसे हमीं ने दिए थे और दूसरे के मोबाइल को तीन बार रीचार्ज कराया था।फिर भी ! मुझे तो (स्साले)शुक्ला पर संदेह है।वह मुझसे तबसे जलता है जबसे उसकी प्रेमिका से मैंने विवाह कर लिया था।वह अभी तक मेरे गले पड़ी है।मुझे कभी सम्मान नहीं नसीब हुआ, जीवन में, लेखन में।इस शुक्ला ने ही मुझसे प्रतिशोध लिया है।


तुम कुछ नहीं जानते हो।ऐसे ही अनजान और भोले बने रहोगे तो जीवन भरसम्मानहीनका ख़िताब तुम्हारे पास ही रहेगा।इस बार बड़ा खेला हुआ है।आख़िरी क्षणों में रस्तोगी और खन्ना खेल गए।तुम्हारा नाम काटने के लिए दोनों त्रिपाठी के खेमे में चले गए।लखनऊ के विरोध में भोपाल और दिल्ली एक हो गए।सब तुम्हारी ग़लती है।तुम्हीं लाए थे इन्हें साहित्य में।जब दोनों कहानी में नहीं घुस पाए तो कविता का दरवाज़ा खटखटाया।वहाँ भी दाल नहीं गल पाई तो समीक्षक बन गए।अब ये ही तुम्हें सिखा रहे हैं।जड़ के साथ रहोगे तो वह जड़ से काटता है,यह सिद्ध हो गया।रही बात चयनकर्ताओं के साधने की,वहाँ भी त्रिपाठी तुमसे बाजी मार ले गया।एक के बेटे को आईपीएल में सेलेक्ट करा दिया और दूसरे की बेटी के विवाह में ख़ान-पान का पूरा प्रबंध किया।इसे कहते हैं मैनेजमेंट।अब शायद तुम्हें अक़्ल आए !’ इतना कहकर उन्होंने आख़िरी से बहुत पहले वाली साँस ली।


मुझेअटैकआते-आते बचा, बिल्कुलसम्मानकी तरह।मेरी कहीं भी पूछ नहीं है।एक उसे देखो।कल का आया हुआ लड़का है।कभी संघर्ष नहीं किया।आते ही छा गया।साहित्य में अंधेरा उसी की वजह से है।एक हम हैं कि पहले दिन से ही संघर्षरत हैं।पहले छपने के लिए किया,अबसम्मानके लिए कर रहे हैं।मुझे समझ में गया कि लिखने से ज़्यादा पैंतरे आने चाहिए।मेरे पास जितना बजट था,उसमें कोई ढंग का पैंतरा हो भी नहीं सकता था।यह लगातार तीसरी बार हुआ है जब मेरा सपना टूटा है।कवि पाश ने कहा भी है,‘सबसे ख़तरनाक होता है,हमारे सपनों का मर जाना !’ निश्चित ही उन्हें मेरी दशा का पूर्वानुमान हो गया होगा।यह भी कोई लोकतंत्र है ? एक ही आदमी सारे सुख लिए जा रहा है।कोई कब तक संघर्ष करेगा भाई ! हम जैसे बड़े लेखक अपने सम्मान की रक्षा कर नहीं पा रहे हैं तो आम आदमी की क्या स्थिति होगी ? इस पर भी एक श्वेत-पत्र आना चाहिए।मैंने मन ही मन में कहा।


अब क्या सोचने लगे ? फ़िलहाल,दिल्ली का एक हवाई-टिकट बुक कर दीजिए।इस त्रिपाठी का तोड़ तलाशता हूँ।इतना कहकर बिना मेरा जवाब सुने उन्होंने फ़ोन काट दिया।मुझे इस बार भी अटैक नहीं आया।


संतोष त्रिवेदी 



साहित्य-महोत्सव और नया वाला विमर्श

पिछले दिनों शहर में हो रहे एक ‘ साहित्य - महोत्सव ’ के पास से गुजरना हुआ।इस दौरान एक बड़े - से पोस्टर पर मेरी नज़र ठिठक ...