सोमवार, 2 जनवरी 2023

नए साल का नया बदलाव

हम पता नहीं किस चिंता में खोए हुए थे कि नया साल एकदम से आकर हमारी छाती पर बैठ गया।कहने लगा,हमारा स्वागत नहीं करोगे? लेखक होकर भी बड़े संवेदनहीन हो ! दुनिया हमारे आने का जश्न मना रही है और तुम्हें जैसे कोई ख़बर ही नहीं।अपनी रज़ाई से बाहर निकलो और देखो तब तुम्हें पता चले कि नए साल में क्या-क्या बदल गया है।


अचानक हुए इस हमले से मैं हड़बड़ा गया।रज़ाई को और मज़बूती से अपनी ओर खींचते हुए बोला, ‘कैलेंडर ही तो बदला है।जैसे दिन और महीने बदलते हैं,वैसे ही तुम बदले हो।ज़्यादा-से ज़्यादा तेल और दूध के दाम बदले होंगे।रोज़ बदलते हैं।इसमें नया क्या है ? वैसे भी मुझे बदलाव से चिढ़ है।ख़ासकर लोगों के बदल जाने से।बदल जाने वाले लोग बेवफ़ा होते हैं।हम कोई चुनावी-वादा या डॉलर का रेट नहीं हैं जो पलक झपकते बदल जाएँ ! अगर कुछ बदलना है तो देश बदले।ईवीएम मशीन बदले।सरकार बदले।मगर वो भी तो नहीं बदलेगी इस साल।मुझे तो अगले साल भी ज़्यादा उम्मीद नहीं दिखती।ऐसे में हम किस बात का जश्न मनाएँ ? हमसे बदलने की उम्मीद तो करो मत।हम लेखक हैं।बदलाव का आह्वान करते हैं,ख़ुद बदलते नहीं।’


यह सुनते ही नया साल ज़ोर से हँसा, ‘तुमने बदलाव के विरुद्ध जितने तर्क़ दिए हैं,सब बेकार हैं।इतनी मेहनत ख़ुद को बदलने में करते तो अब तक ‘अकादमी’ पा जाते।बिना बदले प्रगति नहीं होती,यह छोटी-सी बात तुम्हारे भेजे में नहीं आई ? सच तो यह है कि तुम बदलना नहीं चाहते।तुम जड़ थे और जड़ ही रहोगे।चेतन बनो,भगत नहीं।तुम केवल लिखते हो,अमल नहीं करते।हम हर साल इसलिए आते हैं कि कुछ बदले न बदले,कैलेंडर तो बदल जाए।इसीलिए लोगों को सरकार के बजाय साल के बदलने का इंतज़ार रहता है।उन्हें हम उम्मीद बेचते हैं।तुम हमारी मार्केटिंग पर पलीता मत लगाओ।बदलाव को मन से स्वीकार कर लो।ट्रेंड के साथ चलो।पुरानी धारणाओं को तिलांजलि दे दो।आओ,दोनों मिलकर नया इतिहास बनाएँ।’ नया साल खुलकर जबरजस्ती पर उतर आया।


उसके इस आह्वान से मैं अंदर तक हिल गया।एक पल को लगा कि मेरी सारी जड़ता टूट जाएगी पर अगले ही पल ख़ुद को सँभाल लिया।तरकश में अभी कई तीर थे।हमने नए साल पर नई निग़ाह डालते हुए कहा, ‘मेरे बदलाव की बात छोड़िए।मेरे बदलने से क्या होगा ? बाक़ी सब तो बदल ही रहा है।बीते सालों में इतिहास बदल गया,मँहगाई का अर्थशास्त्र बदल गया।बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार पर संकुचित सोच भी बदल गई।अपराधी से ज़्यादा उसका धर्म महत्वपूर्ण हो गया।नए साल में पहले बदलाव की आहट भी देख रहा हूँ।अब चड्डी-बनियान भी लूँगा तो ध्यान रखूँगा कि उसका ‘रंग’ बेशर्म वाला क़तई न हो।एक छोटी-सी चूक बड़ा दंगा कर सकती है।इसलिए ‘राष्ट्रीय दंगा-समिति’ वाले सज्जन से ‘सेंसर’ करवाने के बाद ही चड्डी खरीदूँगा।मेरे कुछ त्याग से यदि समाज में शांति स्थापित हो सकती है,तो ख़ुद को बदलने के लिए मैं तैयार हूँ।खाने-पीने और पहनने में इतना लिहाज़ तो होना ही चाहिए।हमें अब यमदूत से नहीं संस्कृति-दूत से डर लगने लगा है।इत्ता बदलाव काफ़ी नहीं है क्या ?’


यह सुनते ही नया साल मेरे गले से लिपट गया।वह मुझ पर बेतहाशा प्यार बरसा रहा था और मैं उस बेचारे पर दम घोटने का आरोप लगाने लगा।


संतोष त्रिवेदी 

रविवार, 20 नवंबर 2022

कुछ न कुछ खाते रहिए !

नेताजी चुनावी-सभा के बाद जैसे ही बाहर निकले,पार्टी के पुराने कार्यकर्ता ने स्वयं को उनके चरण-कमलों में अर्पित कर दिया।वह बहुत घबराया-सा लग रहा था।नेताजी कृपालु थे।चरणों में पड़े कार्यकर्ता को देखकर द्रवित हो उठे, ‘किस बात का कष्ट है भई ? टिकट-विकट चाहिए तो अध्यक्ष जी से मिल लो।’ कार्यकर्ता संवेदनशील था,सुबक पड़ा, ‘यही तो दिक़्क़त है ! मुझे इस बार फिर टिकट मिल गया है जबकि मैं पार्टी-सेवा करना चाहता हूँ।’ यह सुनते ही नेताजी विस्मित-से उसे देखने लगे।थोड़ा रुककर बोले ‘क्यों क्या हुआ ? दूसरी पार्टी बड़ा ऑफर दे रही है या जीतने की उम्मीद नहीं ? हमारे रहते किस बात का डर है तुम्हें ?’ नेता जी ने एक साथ कई सवाल पूछ लिए।कार्यकर्ता एकदम से हड़बड़ा गया। ‘नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।हमें डर लग रहा है कि कहीं जीत गया तो ? चुनाव जीतने के बाद काम न करने पर जनता द्वारा लात मारने की जिस स्कीम को आपने आज लॉन्च किया है,डर तो उससे लग रहा है।कहीं जनता हमारी परफॉरमेंस को देखकर सचमुच हमें लतियाने पर उतारू न हो जाए ? या लात मारने की गरज से ही मुझे जिता दे ! हमारी तो अब रीढ़ की हड्डी भी कमज़ोर हो चुकी है।’ कार्यकर्ता घुटनों के बल बैठे-बैठे बोला।


नेता जी ने बड़ी ज़ोर से ठहाका लगाया। ‘या तो तुम मुझे ठीक से नहीं जानते या जनता को।राजनीति में आए हो तो डर को अपने से दूर रखो।तुम अब जनता के हो चुके इसलिए तुम्हारा जो भी है,वह जनता का है।डर भी।तुम जनता से नहीं जनता तुमसे डरे।वह डरने लगे तो और डराओ।उसे बताओ कि अगर उसने तुम्हें नहीं चुना तो ख़तरे बढ़ जाएँगे।सबसे पहले तो धर्म ख़तरे में होगा।फिर समाज।और देश तो ख़तरे में रहेगा ही।इस तरह तुम्हारा सारा डर जनता की ओर शिफ्ट हो जाएगा।वह डरेगी तभी वोट देगी।निर्भय होने का अहसास होने पर कोई घर से भी नहीं निकलेगा।रही बात,चुनाव जीतने के बाद काम न करने पर लात मारने की,हम इसका मौक़ा ही नहीं आने देंगे।हम हर चैनल पर नया विमर्श शुरू करवा देंगे।जनता आपस में वहीं अपने चरणों का सदुपयोग कर लेगी।’


‘फिर भी मैं पार्टी-सेवा में ही अपना तन समर्पित करना चाहता हूँ।कृपया मुझे चुनाव लड़ने से बचा लीजिए’ कार्यकर्ता अभी भी नासमझी का प्रदर्शन कर रहा था।उसकी गुहार बड़ी मौलिक लग रही थी।


उसके इस तरह बेवक़्त के राग ने नेताजी का सारा मूड बिगाड़ दिया।वह अपने मौलिक रूप में आ गए।‘कौन है यह आदमी ? इसका पता करो कि यह अपना कार्यकर्त्ता है भी कि नहीं ? इसे यह भी नहीं पता कि पार्टी को तन से ज़्यादा धन चाहिए।और इसके लिए चुनाव में जीतना होगा।इस आदमी को हमारे ‘मिशन’ की बुनियादी जानकारी तक नहीं है।किस इलाक़े से है यह ?’ नेताजी बिना रुके सब कह गए।


चुनाव-प्रभारी नेताजी के साथ में ही थे।ऐसी स्थितियों का उन्हें पूर्वानुमान होता है।उन्होंने स्थिति को तुरंत सँभाला।चुनाव-समिति की सिफ़ारिश वाली सूची लहराते हुए वह नेताजी के कान में फुसफुसाए,‘हम तो इस बार भी इनका टिकट फाइनल नहीं कर रहे थे पर पार्टी इस नतीजे पर पहुँची कि इनके चुनाव न लड़ने से पार्टी का अधिक नुक़सान हो सकता है।किसी युवा को लात खिलाने से अच्छा है कि इन पर ही दाँव लगाया जाए।युवाशक्ति में भविष्य की अपार संभावनाएँ हैं,इसलिए हम उन को जोखिम में नहीं डाल सकते।यह हमारे समर्पित कार्यकर्ता हैं और प्रयोगधर्मी रहे हैं।‘विधायक-फंड’ को पार्टी-फंड में बदलने में ख़ूब माहिर हैं।जब यह ठेकेदार थे तो सड़क और पुल खा गए।थोड़े दिन पत्रकारिता में थे तो जनता के मुद्दे खा गए।इन्होंने राजनीति की शुरुआत हमारी पार्टी से ही की।प्रवक्ता बनते ही देश का एक चौथाई इतिहास खा गए।आजकल सोशल मीडिया में ढाई किलो गाली रोज़ खाते हैं।अब इनको लात खाने से डर लग रहा है।हद है ! राजनीति सेवा का क्षेत्र है।और सेवा करते हुए गाली और लात खाना आम बात है।यह चुनाव जीतेंगे तो भी निपटेंगे और हारेंगे तो अपने आप निपट जाएँगे।आप बेफिक्र होकर चरें,मैं इन्हें ठीक कर दूँगा।’


नेताजी अभी भी अशांत थे।वे कार्यकर्ता से संतोषजनक उत्तर चाहते थे।उसे पुचकारते हुए बोले,‘अच्छा यह बताइए, तुम राज्य का भला चाहते हो या नहीं ? कार्यकर्ता डरते हुए बोला, ‘मान्यवर,हम भला चाहते हैं,इसीलिए चुनाव नहीं लड़ना चाहते।यह विरोधियों की साज़िश है।वे मुझे रास्ते से हटाना चाह रहे हैं।जीतेंगे तो जनता की मार खाएँगे और हारे तो राजनीतिक रूप से मर जाएँगे।’ ऐसा मासूमियत भरा जवाब सुनते ही नेता जी हँस पड़े।कहने लगे,‘ हमने जो ‘स्कीम’ लॉंच की है,उसकी कभी नौबत ही नहीं आएगी।अव्वल तो हम इत्ते नए मसले पैदा कर देंगे कि जनता की याददाश्त गुम हो जाएगी।मान लिया अगर वह मारने पर आमादा हो भी गई तो इसके लिए पाँव होने भी तो ज़रूरी हैं।तब तक बेरोज़गारी इतनी बढ़ जाएगी कि कोई अपने पाँवों पर खड़ा ही नहीं हो पाएगा।इसलिए अपने डर को दूर करिए।अब तो चेहरे से ‘मास्क’ भी हट गया है।खुलकर खेलिए।हम चुनाव लड़ते नहीं,खेलते हैं।’


समर्पित कार्यकर्ता फिर से नेता जी के चरणों में लोट गया।चुनाव-प्रभारी ने उसे चुनाव-सूत्र देते हुए कहा,'जाइए,कुछ न कुछ खाते रहिए,इससे तुम्हारी इम्यूनिटी बढ़ेगी और ताक़त मिलेगी !’


संतोष त्रिवेदी 

रविवार, 9 अक्टूबर 2022

चैनलों का जंगल-विमर्श

बहुत बड़ा जंगल था।थोड़ा अजीब भी था।दूसरे जंगलों की तरह इसमें आर-पार जाने की आज़ादी नहीं थी।कह सकते हैं,एक बड़ा बाड़ा जैसा था।उसमें किसी भी ऐरे-ग़ैरे जानवर की ‘एंट्री’ नहीं थी।प्रवेश के लिए बक़ायदा ‘रूलिंग’ थी।आज उसी जंगल में ख़ूब चहल-पहल थी।ख़बर थी कि धरती पर सबसे तेज भागने वाले चीता महाराज अपने दल-बल के साथ जंगल में पधार रहे हैं।इसलिए ब्रह्मांड के सभी ख्यात चैनल-वीर मोर्चे पर डटे हुए थे।नागरिकों के लिए दर्शन का पुख़्ता इंतज़ाम था।कुछ तो मचान पर चढ़ गए थे,बाक़ी ने दूर राजधानी से ही अपने कैमरों में दूरबीन लगा रखी थी।आख़िर इंतज़ार की घड़ियाँ ख़त्म हुईं।एकबारगी हज़ारों फ़्लैश की रोशनी के मध्य चीता श्री ने अपनी पहली झलक दिखाई।पहले तो आम दर्शक समझ ही नहीं पाए कि एंकर और चीते में असली चीता कौन है ! दरअसल रिपोर्टिंग में विश्वसनीयता बहाल करने के लिए चैनलों ने कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी।जंगल में विचरने से पहले चीता जी चैनल-चैनल चल रहे थे।दर्शक चीतों से पहले चीता-एंकर के कौतुक देखने लगे।पर जल्द ही कुछ समझदार दर्शकों ने वास्तविक चीते की पहचान कर ली।असल में,चीता जी तो आराम से टहलते हुए नज़र आ रहे थे पर चीता-एंकर फ़ुल-ड्रेस रिहर्सल के मूड में थे।इधर ड्रॉइंग रूम में बैठे कुछ दर्शक इन दृश्यों को देखकर लहालोट हो रहे थे।उन्हें इस बात का पक्का भरोसा था कि एंकर भले ही चीता-ड्रेस पहन कर उस जैसी आवाज़ निकाल ले पर वह चैनल चीर कर बाहर नहीं आ सकता।इस इत्मिनान ने रोमांच और बढ़ा दिया था।


यह सब घटित हो रहा था कि तभी एक उत्साही चैनल-बाला को कुछ ‘मौलिक’ करने की सूझी।उसने अपने स्रोतों के ज़रिए जंगल में पहले से ही एक ‘चिप’ प्लांट कर दी थी।कुछ देर बाद उसके अप्रत्याशित परिणाम आए।उसे एक ऐसी दुर्लभ क्लिप मिली जिसमें नवागंतुक चीता श्री और उनके खान-पान की व्यवस्थापक चीतल कुमारी जी बिन दहाड़े बातचीत करते पाए गए।शाम के ‘प्राइम-टाइम’ की यही ‘लीद-स्टोरी’ थी।आप सब के सामने उसी का संपादित अंश यहाँ प्रस्तुत है।


चीतल कुमारी थाल में स्वयं को सजाकर चीता श्री के सम्मुख अर्पित करते हुए बोलीं, ‘महाराज,इस अभयारण्य में आपका स्वागत है।आप के खान-पान में कोई असुविधा न हो,इसलिए हम अपने बंधु-बांधवों सहित आपकी सेवा में उपस्थित हैं।आप जिसको चाहें,वरण कर लें।’ चीता श्री यह सुनकर हँस पड़े।चीतल कुमारी की ओर अतिरिक्त अनुराग से देखते हुए पुरपुराए, ‘लगता है तुम बेहद भोली हो।जंगल के क़ायदे भी भूल गई ? हम वरण नहीं आक्रमण करते हैं।दूसरी बात,यहाँ केवल हमीं अभय हैं।यह तुम्हारे लिए ‘अभयारण्य’ कब से हो गया ? भई,जंगल-अधिपति हम और हमारा कुटुंब है।तुम्हारा जन्म ही हमारे जीवन के लिए हुआ है और हमारा पर्यावरण के लिए।इसलिए हमारे स्वागत के सिवा तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं है।यह हम पर निर्भर है कि तुम में से हम किस का समर्पण स्वीकारें।’


चीता श्री की यह दो-टूक व्यवस्था सुनकर चीतल कुमारी तनिक भी विचलित नहीं हुईं।उनके बड़े जबड़े में प्रविष्ट होने से पहले उन्होंने कुछ सवाल पूछने ज़रूरी समझे।‘हमने सुना है कि आप की प्रजाति विलुप्त हो रही थी।कहा जा रहा है कि प्रकृति-संतुलन बनाने के लिए आपकी उपस्थिति अनिवार्य है।इसलिए आपकी वंश-वृद्धि के लिए पूरी कायनात तत्पर हो गई।हम उसी ‘प्रोजेक्ट’ का हिस्सा हैं।हम भी चाहते हैं कि किसी बिगड़ैल नायक द्वारा रौंदे जाने या ‘शूट’ किए जाने के बजाय आपके श्रीमुख में पर्यावरण-रक्षा करते हुए समा जाएँ।आपके जीवन के लिए हम ज़रूरी हैं, इससे तो हमारी ही महत्ता बढ़ती है।इस पर आप हँस क्यों रहे हैं ?’ चीतल कुमारी का यह सवाल चीता श्री को पसंद नहीं आया।भोजन ग्रहण करते समय वह किसी तरह की बहस में नहीं पड़ना चाहते थे।बात टालने की गरज से वह धीरे से गरजे, ‘सरकार कभी हमें विलुप्त नहीं होने देगी और हम तुम्हें।आम ने हमेशा ख़ास का ध्यान रखा है।इसे जंगल की भाषा में ‘शिकार’ कहते हैं पर ‘राजपथ’ का यह ‘कर्तव्य’ है।और हाँ,तुम्हें आज ख़बर में जो एक कोना मिला है,इसका कारण हम हैं।इससे साफ़ है कि तुम्हारी खोज-ख़बर लेने वाला मेरे अलावा कोई नहीं है।आओ,हम दोनों मिलकर प्रकृति,पर्यावरण और राज्य की रक्षा करें !’


बस,उस ‘क्लिप’ में इतना ही दृश्य था।इससे आगे का ‘पर्यावरण-रक्षा’ कार्यक्रम संवेदनशीलता के चलते काट दिया गया था।इससे व्यक्तिगत रूप से मुझे काफ़ी मायूसी हुई।इतना कुछ देखने के बाद भी उकताहट बनी रही।अभी मन नहीं भरा था।रिमोट उठाकर दूसरे चैनल की बटन दबा दी।वहाँ चीता-विमर्श में पूरा पैनल लगा हुआ था।इनमें पर्यावरण-विशेषज्ञ,वन्य-प्रेमी और आधुनिक इतिहासकार आमंत्रित थे।कार्यक्रम का संचालन कर रहा एंकर पूरे जंगल को ही अपने स्टूडियो में उठा लाया था।जंगली-पशुओं के स्थान पर चर्चाकार जमे थे।पूरा माहौल जंगली था।सबका इतिहास-बोध कमाल का था।वे चीता श्री के सत्तर साल के सफ़र को याद कर रहे थे,तभी बेटे ने मोबाइल पर इससे बड़ी ब्रेकिंग-न्यूज़ दी।उसे एक मोटे पैकेज के साथ ‘चीता-चैनल’ में ऑफ़र मिल गया है।तब कहीं जाकर मेरे दिल को चैन आया।


संतोष त्रिवेदी


पालतू न होने के नुकसान

कल सुबह जब हम सैर पर निकले , रास्ते में बरगद के पेड़ के नीचे कई कुत्ते जमा थे।पहले तो मैं डरा फिर आशंका हुई कि हो न...