गुरुवार, 17 सितंबर 2015

सब मिले हुए हैं!

विचारधारा में मेल है पर सीटों पर सहमति नहीं है।जल्द ही वो भी बन जायेगी।सत्ता की सामूहिक पेंग के सामने मजबूत से मजबूत वैचारिक दीवार ढह जाती है तो फ़िर असहमति क्या चीज़ है ! वैसे भी राजनीति में विचार और असहमति का आपसी रिश्ता है।कुर्सी पर बैठने के लिए सहमति को असहमति या असहमति को सहमति बना लेना सामयिक होशियारी है।अच्छा राजनेता विचार को तलवार या ढाल में बदलने का हुनर बखूबी रखता है।लोकतंत्र में विचार के खूंटे से बंधे रहने वाला सत्ता के शामियाने से बाहर हो जाता है।विचारों को तेजी से कूदते रहना चाहिए ताकि जैसे ही मलाई से भरी गगरी दिखे,उसमें वे डूब सकें।’जिन डूबा तिन पाइयां’ की सार्थकता तभी समझ में आती है।यहाँ विचारों का आयात बड़ी तेजी से होता है।उनके डूबकर नष्ट हो जाने की आशंका भी नहीं होती।


कई विचार गोलबंद होकर अपनी यात्रा पर निकल पड़ते हैं।पैबंद लगी विचारधारा की नाव पर पर सभी सवार हो जाते हैं।जहाँ सीट टपकती दिखती है,वहीँ एक नवीन विचार चिपका देते हैं।पार जाने के लिए पतवार से अधिक ज़रूरी है नाव में हुए छेदों पर कील ठोंकना।यह विशुद्ध जनसेवा है इसलिए सब आतुर हैं।ऐसे में मतभेद प्रकट हो जाते है।लोकतंत्र में मतभेदों का अपना महत्त्व है।ये जितने ज़्यादा तीखे और मुखर हों,उतने ही अधिक फलदायी सिद्ध होते हैं।मतभेद होते इसीलिए हैं कि बड़े नुकसान से बचा जा सके।

सत्ता कोई संतई नहीं है।जननायक को जनता की सेवा खुलेआम करनी पड़ती है।इसलिए बड़ी-बड़ी नामपट्टिकायें लगती हैं,अख़बारों में खबरों के बीचोंबीच बैठना पड़ता है।ये सब मैनेज करना आसान नहीं होता ।सेवा करने में हाथ-पाँव चलाने पड़ते हैं।इससे सेवा की प्रहारक-क्षमता बढ़ती है।जनता के सामने आने के लिए पीठ पीछे दुरभिसंधियाँ करनी पड़ती हैं।लानतें देनी-लेनी होती हैं।धर्मयुद्धों में यह सब जायज माना गया है।महाभारत और रामायण काल से ऐसा चला आ रहा है।हमारे नए नायक उन्हीं परम्पराओं के वाहक हैं।

वे सत्ता में अपना हिस्सा माँग रहे हैं तो कोई अपराध नहीं कर रहे हैं।गनीमत है कि बिना लाठी-डंडे के अपनी बात कही जा रही है।सभी को गाँधी की अहिंसा-नीति पर पूरा यकीन है।गाँधी स्वयं अपने साथ लाठी लेकर चलते थे इसलिए लाठी उनका आदर्श है।रामराज्य की बहाली में लाठी की अपनी भूमिका है।वह कभी-कभी बे-आवाज भी होती है।फ़िर,दीन-दुखियों की सेवा करना उनका मौलिक अधिकार है।यह कबीर और दादू भी कह गए हैं।वे तो बस इसे लागू करना चाहते हैं।चूँकि बिना सत्ता में आए सेवा संभव नहीं है इसलिए उनको छटपटाहट है।लोकतंत्र को बचाने के लिए अंतिम सर्कुलर जारी कर दिया गया है।मुख्य चिन्ता यही है कि यदि वांछित कुर्सियों की गणना कम हुई तो विचारधारा कहाँ बैठेगी ! उसे तो ज़मीन पर पटक नहीं सकते।उसकी गठरी को आजीवन ढोना है।वह सत्ता की कुर्सी पर बैठकर ही फबती है।विचारधारा को कुर्सी से ही ऑक्सीजन मिलती है।इसलिए कुर्सी हर हाल में चाहिए,ताकि विचारधारा जीवित रहे।इसके जरिये वे परमपद पाना चाहते हैं।

कुछ लोग अभी भी आशंकित हैं कि यदि गठबंधन टूट गया तो क्या होगा ? गठबंधन बचे तो देश बचे। हमें अपने नायकों पर तनिक भी शंका नहीं है।पिछले सत्तर सालों में उन्होंने समय-समय पर अपनी उपयोगिता सिद्ध की है।वे इधर रहें या उधर,कुर्सी के पास ही उनका तम्बू गड़ता है।सबको अपने-अपने खूँटे गाड़ने हैं।शामियाने के संतुलन से अधिक ज़रूरी सत्ता-संतुलन है।वे लोकतंत्र की ज़रूरत हैं और गति भी।जनता की गत बने तो उनका तम्बू तने।इसलिए सब मिले हुए हैं।जल्द ही मतभेदों के अफ़वाह बनने की खबर आएगी।हमारा लोकतंत्र अब पूर्णगति को प्राप्त हुए बिना नहीं रह सकता।

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