सोमवार, 14 दिसंबर 2015

नायक का बचना जरूरी है!

नायक सदैव हँसता है।रोने वाला नायक नहीं होता।वह स्वयं न्याय करता है,किसी से याचना नहीं।नायक हमेशा निर्दोष होता है और ‘न्यायप्रिय’ भी।हमारे सपनों का आधार यही नायक होता है।क्रान्तिकारी कवि पाश बड़े दूरदर्शी थे।तभी शायद उन्होंने इसी दिन के लिए कहा था,’खतरनाक होता है सपनों का मर जाना’।इसलिए सपने नहीं मरे।नायक बच गया।नायक कभी मरते भी नहीं।

जो मरे वे पहले से ही मरे हुए थे।फुटपाथ पर चलने वाले मनुष्य नहीं होते।जो चलते हैं और गतिमान हैं,वे ही मनुष्य हैं।इंसान की चाल से अगर यह दुनिया चले, तो सदी दो सदी तो दूर की बात है,दो कदम भी आगे न बढ़े।आधुनिक मनुष्य के बूते ही हम हवा में रॉकेट से और धरती में बुलेट ट्रेन से चलने लायक हुए हैं।सड़क की खूबसूरती उस पर पैदल चलकर नहीं बढ़ती।सड़क का तारकोल हहराती आती लैंड क्रूजर और बलखाती बीएमडब्लू की गर्मी पाए बिना पिघलता भी नहीं।ऐसे में ठिठके हुए इंसानी कदम विकास की राह में केवल बाधक ही बनते हैं।

नायक बचा है तो सब कुछ बचा है।सब कुछ में सबसे पहले बाज़ार समाहित है।करोड़ों रुपए जो दाँव पर लग जाते,अब जेबों के अंदर होंगे।फिजा खुशनुमा होगी और मंगलगीत गाए जायेंगे।जो मर गया,उसे मुक्ति मिल गई।भूख से भी और जिल्लत से भी।एक नायक के बचने से बहुत कुछ बचा रह गया।मल्टी-प्लेक्स की कतारें और लम्बी हो गईं।ईद और दिवाली की रिलीज़ सुनिश्चित हो गई।दोनों त्यौहारों को रिलीफ मिली।लोगों को साफ़ हवा मिले न मिले,बुद्धू बक्से के विज्ञापन को अधिक से अधिक एयर-टाइम मिल गया।इस सबसे बड़ी बात कि नायक के चाहने वालों को ख़ुदकुशी से बचा लिया गया।सर्वत्र शांति पसर गई है;उस इंसान के घर में भी जो सड़क की पटरी पर सुकून की तलाश में चला आया था।

कानून को अँधा कहा गया है पर वह देख नहीं पाता यह बात गलत है।तमाम गवाहों और बयानों की रोशनी में उसे इतना दिखाया जाता है कि बस मतलब भर का दिखाई दे जाए।यह काम उतनी ही कुशलता से सम्पन्न होता है जितनी उम्दा सर्चलाइट होती है।टिमटिमाते हुए दिये की रोशनी से इन्साफ जैसी भारी-भरकम चीज़ दिखेगी भी कैसे ?अब कुछ लोग चाहें तो जंतर-मन्तर या इण्डिया गेट पर दो-चार मोमबत्तियाँ जला सकते हैं।कम से कम इतना तो अभी बचा हुआ है।

सजा की भी अपनी हनक होती है।नायक और अधिनायक को मिली हुई सजा उनके लिए वरदान में बदल जाती है।पहले से हिट नायक सुपरहिट हो जाता है।हारा हुआ अधिनायक ‘भारत भाग्य विधाता’ बन जाता है।इसी को कहते हैं कि पारस लोहे को भी कुंदन बना देता है।नायक और अधिनायक पारस की दुर्लभ बटिया जैसे हैं।इसलिए सजा भी उनसे मिलकर निहाल हो उठती है।सुंदर चेहरे पर बना तिल दाग नहीं सौन्दर्य कहलाता है।यह अंतर जिसे समझ में नहीं आता,वही विवाहोत्सव में रुदाली गाता है।

अंततः नायक बचा और हम सबकी लाज भी।यथार्थ में हमारा हासिल भले शून्य हो पर सपनों को तो हमें बचाना ही चाहिए।और सपने तभी बचेंगे,जब नायक बचेगा।एक तरफ एक के बचने पर पूरी दुनिया के बचे रहने की उम्मीद है,अर्थव्यवस्था की मज़बूती है और दूसरी तरफ एक हल्की-सी आह और पटरी पर लौटती मौत...सॉरी ज़िन्दगी।

1 टिप्पणी:

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

बेहद प्रभावशाली......बहुत बहुत बधाई.....

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