रविवार, 6 जनवरी 2019

न बिक पाने का दुःख

वे बिकने को तैयार थे,पर बिक नहीं सके।अपना भाव भी खोल दिया था पर कोई ख़रीदार नहीं मिला।पुराने खिलाड़ी हैं,ख़ूब ‘खेले’ भी हैं पर नए खिलाड़ियों से मात खा गए।करोड़ों की छोड़िए, कौड़ियों के लायक भी किसी ने नहीं समझा।जिसका बाज़ार भाव नहीं,उसकी प्रतिभा दो कौड़ी की।ऊँची क़ीमत पर बिकने के लिए खेल भी ऊँचा होना चाहिए।पहले घोड़ों पर ऊँचे दाँव लगते थे,अब खिलाड़ियों पर लगते हैं।बोली ही बता देती है कौन घोड़ा है,कौन खच्चर ! बाज़ार इसकी पहचान अपने तरीक़े से करता है।वे इसी बेरहम बाज़ार में नीलाम होना चाहते थे पर चूक गए।बाज़ार की भाषा में वे अपने खेल में अब चुक गए हैं।उन्हें इसी बात का दुःख है।भाव मिलता तो कैरियर ‘गली’ से निकलकर सीधे हाईवे पर आ जाता।पर होनी को कौन टालता !

बीते ज़माने में ‘बिकना’शर्म और ज़लालत का विषय होता था।अब गौरव और उपलब्धि का विषय है।न बिक पाना सबसे बड़ी ज़िल्लत है।प्रतिभा की परख इतनी आसान कभी नहीं रही।जिसका ऊँचा दाम,उसका बाज़ार ग़ुलाम।एक बार क़ायदे से बिक जाते तो आगे फ़ायदे ही फ़ायदे।विज्ञापन के बाज़ार में हर रोज़ बिकते।इस तरह ग्राहकों के ‘बिक’ जाने की वजह बनते।पर उनके ऐसे नसीब कहाँ ! मंडी सजी,बिकने का बिल्ला भी लटका पर उन पर ख़रीदने वाली कोई नज़र न टिक सकी।इस तरह वे भी बाज़ार में नहीं टिक सके।बाहर हो गए।‘अनबिका’ रह जाना उनके कैरियर की सबसे बड़ी असफलता है।इस बिकाऊ समय में ‘अनबिके’ रहने का दर्द उनसे ज़्यादा और किसे होगा ? घर-परिवार वालों को बिन-बिका मुँह दिखाएँगे तो लज्जा नहीं आएगी ? वे तो उजला करने वाली क्रीम चुपड़कर बैठे थे,फिर भी ख़रीदारों को गच्चा नहीं दे पाए।उन्हें पता नहीं कि गच्चा देने का काम बाज़ार का है।आज बाज़ार से बाहर हुए हैं,कल ‘खेल’ से भी बाहर होंगे।जो ख़ुद को ठीक से बेच भी न सके,वह कुछ भी हो सकता है,अच्छा ‘खिलाड़ी’ नहीं।

और इधर देखिए।क्या ख़ूब बिके हैं ! बिकने में भी रिकॉर्ड क़ायम किया है।इन पर सबसे बड़ी बोली लगी है।नीलामी का टैग सरे-बाज़ार उछला।फिर भी घर-परिवार में उत्सव का आलम है।बिकने की मेरिट-लिस्ट छापी जा रही है।क्या ‘स्कोर’ बनाया है बंदे ने ! मंडी में टॉप किया है।सरोकारी पत्रकार उससे इंटरव्यू लेने को उतावले हैं।चड्डी-बनियान से लेकर मच्छर-मार अगरबत्ती निर्माता तक उसके दरवाज़े पर लाइन लगाकर खड़े हैं।एक ‘बिका हुआ’ आदमी क्या-क्या नहीं बेच सकता ! सम्भावनाएँ तलाशी जा रही हैं।प्रायोजक ढूँढ़े नहीं छाँटे जा रहे हैं।उसकी प्रोफ़ाइल मोटी हो गई है।बाज़ार खुलकर खेलता है ताकि खिलाड़ी भी खुलकर ‘खेल’ सके।उसका संदेश साफ़ है कि नई पीढ़ी नैतिकता और सदाचार के कुपाठ अब बंद करे।इसीलिए जो ‘खेल’ पहले बंद कमरों में होते थे,अब डीटीएच के ज़रिए सीधे प्रसारण का सुख पाते हैं।जनता का क्या है,जैसे ‘आधार’ से जुड़ी है,बाज़ार से भी जुड़ जाती है।

हम अभी बाज़ार के हिसाब-किताब में पड़े थे कि सामने से ‘वे’ आते हुए दिखाई दिए।हम ऐसे मौक़ों को भुनाने के समय खासे संवेदनशील हो जाते हैं।हमें बाज़ार में बने रहने के लिए यह बेहद ज़रूरी है।उनकी भावनाएँ आहत हुई थीं और उसमें हम अपनी संभावनाएँ देख रहे थे।सहानुभूति जताने के बाद उनसे पहला सवाल यही पूछा-‘बिकने में क्या कमी रह गई थी ? मैदान में तो तुम्हारा ‘पेस’ भी ठीक-ठाक है !’ वे भावुक हो गए।कहने लगे-यह आप और हम समझते हैं।मैं ‘मीडियम पेसर’ हूँ।उन्हें ऐसा खिलाड़ी चाहिए था,जो चकमा दे सके।एक ही बॉल को यार्कर और गुगली में तब्दील कर सके।बल्लेबाज़ी करे तो बॉल को बल्ले में लगने से पहले सीमारेखा का पता मालूम हो।फ़ील्डिंग करूँ तो बॉल हमारे सर के ऊपर से न निकल पाए।अब उन्हें कोई कैसे समझाए कि मैदान में ‘नो फ़्लाइट ज़ोन’ नहीं हो सकता।दरअसल,उन्हें खिलाड़ी नहीं ‘करामाती जिन्न’ चाहिए।हम यहीं पर मात खा गए।’

‘पर अब करोगे क्या ? बाज़ार के बाहर तो ‘खेल’ का कोई मतलब भी नहीं ?’ हमने ‘दूसरा’ फेंकते हुए उन्हें टटोला।

‘अभी ऐसी नौबत नहीं आई कि मैं बेरोज़गार हो गया हूँ।खेल मेरे ख़ून में है।अपना ‘स्टार्ट-अप’ खोल दूँगा।’ वे अपना ग़म ग़लत करते हुए बोले।
‘मतलब ?’हमने अनजान बनते हुए पूछा।
‘कुछ नहीं,मैदान के बाहर ही पकौड़े तल लूँगा।आम आदमी की भूख शांत करने से बड़ा कोई काम नहीं है।दुआओं के साथ दो पैसे मिलेंगे सो अलग।बिक नहीं पाया तो क्या हुआ,अब बेचने का कारोबार शुरू करूँगा।सुना है,आजकल इसमें बड़ा ‘स्कोप’ है।उसी की तैयारी में लगा हुआ हूँ।फ़िलहाल पुदीना बोने जा रहा हूँ।साथ में चटनी भी तो होनी चाहिए’।यह कहते हुए वे विदा हो गए और हम अवाक् से खड़े उन्हें देखते रहे।

उनसे मिलने के बाद हम अपने दफ़्तर की ओर बढ़ ही रहे थे कि रास्ते में जाम लग गया।पता चला कि बोली में टॉप आए ‘खिलाड़ी’ को कंधे पर उठाए लोग नाच रहे थे।हम वहीं रुककर उस ‘अनबिके’ खिलाड़ी की दशा को यादकर एंजॉय करने लगे।चाहें तो अब आप भी खुलकर हँस सकते हैं !

4 टिप्‍पणियां:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 06/01/2019 की बुलेटिन, " सच्चे भारतीय और ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सटीक

अशोक जैन ने कहा…

बीते ज़माने में ‘बिकना’शर्म और ज़लालत का विषय होता था।अब गौरव और उपलब्धि का विषय है।न बिक पाना सबसे बड़ी ज़िल्लत है वर्तमान संदर्भ में यही तो चल रहा है शानदार

जयन्ती प्रसाद शर्मा ने कहा…

बहुत सटीक आज के सन्दर्भ में।

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