रविवार, 24 जनवरी 2021

ठंड में स्नान का साहस

कहते हैं मुसीबत अकेले नहीं आती।एक ठीक से जा भी नहीं पाती कि दूसरी औरबेहतरतरीक़े से दबोच लेती है।पहले वायरस से बचने की मुसीबत थी फिर मुई वैक्सीन गई।कह रहे हैं कि पचास-पार वालों को पहले लगेगी।ये भी कोई बात हुई ! लगता है वायरस से तो बच गए पर इससे बचना मुश्किल है।यानी अब पचास-पार होना भी मुसीबत है।सुई चुभने की सोचकर ही दिल दहलता है।रज़ाई में घुसा हुआ उससे बचने की जुगत सोच ही रहा था कि एक और तात्कालिक मुसीबत गई।श्रीमती जी ने नहाने के लिए अंतिम चेतावनी जारी कर दी।शहर में हफ़्ते भर से जारी शीतलहर की ख़बर शायद  उन तक नहीं पहुँच पाई थी।वे तो अख़बार पढ़ती हैं और ही मौसम की खबरें सुनती हैं।केवल मेरे कहने से कुछ नहीं होता।मैं उन्हें पहले भी सूचित कर चुका हूँ कि अभी संक्रांति पर ही तोअस्नानकिया था।लगता है मेरी इस बात का श्रीमती जी से ज़्यादा मौसम ने बुरा मान लिया।उसने हवाओं को भी अपने साथ मिला लिया।मासूम-सी मेरी जान के ख़िलाफ़ पूरी कायनात जुट गई।मेरी हालत देखिए कि इसअत्याचारऔरशोषणके विरुद्ध मैं कोई आन्दोलन भी नहीं कर सकता।इसलिए मैंने श्रीमती जी के प्रस्ताव पर दसवीं बार गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया।


पहले तो रज़ाई ही मुझे नहीं छोड़ रही थी।मुझसे ज़्यादा तो वह बेचारी ठंडी थी।बचपन में पढ़ीत्यागऔरबलिदानकी कहानियों को एक-एक कर याद किया।मैंने रज़ाई से क्षमा माँगी औरआत्म-बलिदानके लिए ख़ुद को सशरीर प्रस्तुत कर दिया।जैसे ही हमारे चरण संगमरमरी-फ़र्श पर पड़े,अंगद के पाँव की तरह वहीं जम गए।हमने मन ही मनहनुमान चालीसाका पाठ शुरू कर दिया।थोड़ी संजीवनी पाकर मैं स्नानघर के दरवाज़े की ओर बढ़ा।घटनास्थल तक मैं ऐसे पहुँचा जैसे कसाई बकरे को जिबह के लिए पकड़कर ले जाता है।मामला केवल नहाने या सफाई भर का होता तो कोई कोई तोड़ मैं निकाल ही लेता पर बात यहाँ तक पहुँच गई थी कि हमारे नहाने से यदि कोई संक्रामक बीमारी फ़ैली तो उसका सीधा-सीधा जिम्मेदार मैं ही होऊँगा।घर के बाहर का मसला होता तोजल-संरक्षणपर गर्म बयान देकर निकल लेता पर यहाँ बात बिलकुल निजी थी और संवेदनशील भी।


मेरे सामने अब कोई चारा था।केवल आधी बाल्टी पानी था जो बड़ी देर से मुझे ललकार रहा था।नई मुसीबत से बचने की गरज से उसे एक नज़र देखने की कोशिश की।तुरंत ही बाल्टी की ओर से नज़रें हटाकर बाहर की ओर देखा पर कोहरे की घनी चादर ने हमें वहीँ ठिठका दिया।बाहर की धुंध के बजाय मुझे बाल्टी के अंदर का खुलापन ज्यादा अच्छा लगा।इससे मुझे बड़ी हिम्मत मिली,जिसे साथ लिए मैं बाथरूम के अंदर कूद पड़ा।पानी से अध-भरा डिब्बा पहले मैंने अपनी हिम्मत पर ही उड़ेला,वह वहीं जम गई।उँगलियों ने आपस में सहयोग करने से एकदम इनकार कर दिया।अभी तक मैं ठीक से पानी के संसर्ग में आया भी नहीं था कि बाहर से श्रीमती जी की नसीहत आई, ‘अजी सुनते हो ! साबुन वहीँ रखा है,उसे भी आजमा लेना।इससे वायरस तुरंत मर जाता है।इतना सुनते ही मेरे बचने की सारी उम्मीदें ध्वस्त हो गईं।हाँ,मेरे साहस को थोड़ी गर्माहट ज़रूर मिली और मैंने झट से पानी का दूसरा डिब्बा साबुन पर ही न्यौछावर कर डाला।बाल्टी में अभी भी काफ़ी पानी था जो मुझे लगातार घूर रहा था।बचे हुए पानी में मुझे अपने अन्तःवस्त्र भी भिगोने थे,इसलिए मैंने अंत में इसका भी ख्याल रखा।एक भले समाजवादी की तरह पूरे मन से इसे अंजाम दिया।इसकृत्यमें हमने दाएँ और बाएँ दोनों हाथों की मदद ली।जब बाथरूम में मेरे नहाने के सारे साक्ष्य मौजूद हो गए ,‘अच्छे दिनोंके तौलिए में लिपटकर मैं बाहर गया।


बाथरूम के बाहर जश्न का माहौल था।बच्चों ने हमारे स्वागत की पूरी तैयारी कर रखी थी।रेडियो में देशभक्ति के गाने बज रहे थे।श्रीमती जी ने गोभी के गरम पकौड़ों के साथ गिलास भर चाय हमारे सामने पेश कर दी।पकौड़े खाते हुए मैं सोचने लगा कि देश में हमारे नहाने से भी ज्यादा ज़रूरी और भी काम हैं पर उनकी किसी को फ़िक्र नहीं।कुछ क़ानून स्थगित हैं,कुछ की वैक्सीन स्थगित है।एक पार्टी ने तोठंडके प्रकोप से बचने के लिए अपने अध्यक्ष का चुनाव गर्मियों तक स्थगित कर दिया है।फिर मेरा नहाना कुछ दिनों के लिए क्यों नहीं स्थगित हो सकता है ? ग़लती से यही सवाल मैंने श्रीमती जी से कर दिया।

श्रीमती जी पहले से ही तैयार बैठी थीं।कहने लगीं, ‘लगता है तुम्हारे दिमाग़ में सर्दी ज़्यादा चढ़ गई है जो सर्र-बर्र बक रहे हो।इसीलिए कहती हूँ,रोज़ नहाया करो।इम्यूनिटी मज़बूत होगी और दिमाग़ भी ठीक रहेगा।


अचानक मेरी नज़र अख़बार की ओर गई।पहली ही खबर थी, ‘ठंड ने बीस साल का रेकार्ड तोड़ा।दस लोग मरे।इतना पढ़ते ही पकौड़े छोड़कर मैं रज़ाई में फिर से समा गया !



संतोष त्रिवेदी


शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

लोकतंत्र का मंदिर

यह अच्छा ही हुआ कि हमारे यहाँलोकतंत्र के मंदिरके निर्माण की इजाज़त मिल गई।देश में लोकतंत्र का निबाह हो और उसका मंदिर हो,यह निहायत बचकानी बात है।ऐसा नहीं है कि हमारे यहाँ पहलेलोकतंत्र का मंदिरथा ही नहीं, पर लोकतंत्र की तरह वह भी बहुत पुराना हो गया है।कई बार ठीक सेमरम्मतभी की गई,पर आए दिन हो रहीलोकतंत्र की हत्याकी घोषणाओं के बाद यह तय किया गया कि इसका नए सिरे से निर्माण किया जाएगा।जो लोग इसमें आने वाली लागत को लेकर हलकान हैं,उन्हें पता होना चाहिए कि लोकतंत्र बनाए रखने के लिए कोई भी क़ीमत अधिक नहीं होती है।मंदिर में घुसने को लेकर जिस तरह मारामारी होती है,इसी से पता चलता है कि इसका पुख़्ता होना कितना ज़रूरी है


न्यू इंडियामें वैसे भी हर चीज़ नई होने को आतुर है।नोटबंदीकी अपार सफलता के बाद जिस तरह फ़र्ज़ी नोट छपने बंद हो गए औरकाला धनअथाह समंदर में विलीन हो गया ,उसी प्रकार नएलोकतंत्र के मंदिरबनने से लोक का भला हो जाएगा,यह अभी से निश्चित है।सरकारों का कोई भी काम बिना सोचे-समझे नहीं होता।भीषण चिंतन और गहन विमर्श के बाद ही कोई योजना या क़ानून बनता है।आन्दोलनथोड़ी है कि ट्रैक्टर में बैठे और दन्न से राजपथ पर गए ! यहाँ आने के लिए जनसेवकों को कितना ख़ून बहाना पड़ता है,यह पसीना बहाने वाले नहीं समझ पाएँगे।


सिर्फ़ हमारे ही देश में लोकतंत्र की इतनी तगड़ी रक्षा नहीं की जाती है।दुनिया के सबसे समृद्ध देश में भीड़लोकतंत्र के मंदिरमें बेखटके घुस रही है।लोकतंत्र की रक्षा के लिए किसी भी क़ीमत पर हार नहीं मानने वाले ट्रंप चचा इसकी असलीपिच्चरदिखा रहे हैं।आने वाले दिनों में और भी लोकतांत्रिक देश इसका अनुसरण कर सकते हैं।लोकतंत्र तभी मज़बूत होता है जबलोकभी जनसेवकों जैसा आचरण करने लगें।


ऐसा नहीं है कि लोकतंत्र ही सारी मज़बूती क़ायम किए हुए है।हमारे पड़ोसी देश मेंसाम्यवादकी इतनी ज़ोर की लहर चल रही है कि वहाँ चोर तो छोड़िए,‘अलीबाबातक ग़ायब हो जाते हैं।इसलिएमंदिरका मज़बूत बनना बहुत ज़रूरी है,नहीं तो किसी दिन वहाँ आम आदमी भी घुस सकता है !


संतोष त्रिवेदी 

 

मशहूर न होने के फ़ायदे

यहाँ हर कोई मशहूर होना चाहता है।मशहूरी का अपना आकर्षण है।समय बदलने के साथ मशहूर होने के तरीकों में ज़बरदस्त बदलाव हुए ...