रविवार, 23 नवंबर 2025

हवा को ख़त लिखना है !

राजधानी फिर से धुंध की गिरफ़्त में है।बीसियों दिन हो गए, साफ़ हवा रूठी हुई है।शायद उसे भी किसी के ख़त का इंतज़ार है।फ़िलहाल, सरकार और बुद्धिजीवी इससे भी ज़रूरी मसलों पर व्यस्त हैं।वैसे राजधानी में प्रदूषण होना या बढ़ना कोई ख़बर भी नहीं रही।इस मौसम में हर साल हवा का मूड बिगड़ता है।पहले पराली,दीवाली के हवाले ठीकरा फूटता था।अब उसकी भी ज़रूरत नहीं रही।आम आदमी (पार्टी नहीं असली वाला आम आदमी) ने इसे अपनी नियति मान ली है और सरकार ने बेहतरी दिखाते हुए दीग़र मसलों की तरह प्रदूषण को भीन्यू नॉर्मलकी श्रेणी में डाल दिया है।उसकी प्राथमिकता में सरकार बनाकर और एक सरकार बनाना भर है।उसे भरोसा है कि सारे देश में जब एक सी हवा बहेगी,राजधानी की हवा अपने आप साफ़ हो जाएगी या आम आदमी ही।इसमें पहले कौन साफ़ होता है,देखने वाली बात यही है।


एक पुराने गाने के बोल याद रहे हैं; ‘ देखो,देखो,देखो ! दिल्ली का कुतुबमीनार देखो !’ और अब सारी दुनिया दिल्ली के प्रदूषण पर शोध कर रही है।कूड़े का पहाड़पहले ही इसकी शान में चार चाँद लगा रहा था,अब ज़हर भरी हवा और धूल के महीन कण दिल्ली के मुकुट में स्थायी रूप से टाँक दिए गए हैं।घर से बाहर निकलते ही आँखें बाहर निकलने लगती हैं।पहले ऋषि-मुनि लंबी तपस्या करके आँखों से अग्नि प्रज्ज्वलित करते थे।सामने वाला देखते-देखते राख हो जाता था।अब यह प्रताप आम आदमी को हासिल हो गया है।फ़र्क़ सिर्फ़ इतना भर हुआ है कि उसने उसी आग को आत्मसात कर लिया है।फेफड़े ठीक से फड़फड़ा भी नहीं पा रहे।अभी तक मुई सिगरेट अकेले यह काम करती थी, लेकिन जबसे सरकार ने इस पर तबियत से टैक्स ठोंका है,लोग बिजली और पानी के बाद फ्री में धुंआ ले रहे हैं।विकास के लिए और कोई कितना हासिल कर लेगा ?


एक तो यह कोई समस्या नहीं है।अगर है भी तो साफ़ हवा देने की जिम्मेदारी सीधे जनता पर है।अव्वल तो वह सड़कों पर निकले नहीं।अगर निकलती भी है तो रैली,जुलूस और शोभायात्रा संग निकले।बिना डीज़ल और पेट्रोल की गाड़ी में निकले।सम-विषम सोचकर घर से निकले।मंत्री, सांसद, विधायक और पार्षद चुनाव जीतने के बाद से आराम फ़रमा रहे हैं।उनसे मिलने में कृपया मारामारी करें।यह पक्की बात है कि यदि उन्हें धुँध का तनिक भी संज्ञान होता तो अब तक ज़रूर इस गंदी हवा का मान-मर्दन कर देते ! चुनाव में उड़ा गर्दा कुछ दिन तो आसमान में छाएगा ही।आख़िर सब कुछ सरकार ही क्यों करे !


कुछ लोगों के शौक अलग ही लेवल के हैं।उन्हें मंहगाई,भ्रष्टाचार,बेरोजगारी और आतंक से मुक्ति के बाद हवा भी साफ़ चाहिए।सरकार और ज़रूरी कामों से साँस ले सके तो आम आदमी की साँस की भी ख़ैर ले।हालाँकि शहर में हर आदमी परेशान है,ऐसा भी नहीं है।कुछ ने शुद्ध हवा को अपने-अपने कमरों में पैदा कर लिया है।वह दिन भी जल्द आएगा,जब समृद्ध लोग अपनी नाक घर पर ही रखकर आयेंगे।यदि नाक के साथ निकलना ज़रूरी हुआ तो नाक में कुप्पी लगाकर निकला करेंगे।उस कुप्पी में दिन भर के लिए पर्याप्त हवा भरी होगी।देर-सबेर आम आदमी भी ईएमआई पर साफ़ हवा की कुप्पी ले सकेगा।बैंक वाले उसकी जान बचाने के लिए इतना क्रेडिट उसे दे ही देंगे।


अभी की बात करें तो हम बीस दिन पहले आख़िरी बार सैर पर निकले थे।डॉक्टर ने कहा है कि गाँठें और टाँगे फिर कभी देख लेना,पहले अपनी साँसें बचाओ।ज़िंदा रहोगे तो घुटने भी बदलवा लेना।अच्छी बात है कि इसी बहाने घर को भी कुछटाइमदे पाओगे।घर पर रहने के अपने ख़तरे हैं पर जीवन बचाने के लिए कुछ ख़तरे उठाने पड़ेंगे।बस वाद-विवाद से दूर रहना।अब डॉक्टर साहब को कौन समझाए ! झगड़े से दूर रहने से खतरा नहीं टलता।अकसर झगड़ा ख़ुद सिर पर आकर बैठ जाता है।


बहरहाल बाहर ज़हरीली हवा लेने से बेहतर है घर पर ही ज़हर के घूँट पिए जाएँ।मैं कोई बुद्धिजीवी या लेखक भी नहीं हूँ ,वरना उस हवा को ख़त लिख देता,जिसने ज़िंदगी में ज़हर पीना आसान कर दिया है ! देखता हूँ, खिड़की के बाहर किसी ने रेडियो चला दिया है जिसमें हमारी पीढ़ी का गाना बज रहा है,‘ तुम अपना रंजो-ग़म,अपनी परेशानी मुझे दे दो’ ! तभी श्रीमती जी की आवाज़ आती है, ‘खिड़की बंद कर लो जी।धुंध अंदर रही है और मैं खिड़की बंद करके कमरे में ही टहलने लगता हूँ।

रविवार, 12 अक्टूबर 2025

मेरा दुःख फिर भी कम है !

पिछले दिनों मेरे साथ दिल दहलाने वाली लगातार तीन घटनाएँ हुईं।पहले एक बुजुर्ग लेखक को तीस लाख रुपए की रॉयल्टी मिली, दूसरे को ‘नोबेल’ मिल गया और फिर मेरे प्रकाशक ने मेरी पांडुलिपि वापस कर दी।तीनों मामले यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि सियासत की तरह साहित्य में भी कितने कूढ़मगज़ और नितांत नासमझ लोग भर गए हैं।मुझ जैसे अनुभवी और योग्य आदमी की कहीं कोई पूछ नहीं बची।

मैं एक अति संवेदनशील लेखक हूँ।इस सबसे मुझे बहुत धक्का लगा।यहाँ तक कि दो घंटे के लिए मैंने लिखना और दिखना सब छोड़ दिया था।वह तो मेरे एक घनिष्ठ मित्र का नाम सर्वश्रेष्ठ-लेखकों की ताज़ा सूची से कट गया तब जाकर मुझे थोड़ी राहत मिली।और ईश्वर पर भी भरोसा मज़बूत हुआ।वरना आजकल भविष्य की कौन कहे,मेरे वर्तमान पर भी ग्रहण लग गया है।तीस-लखिया लेखक का चेक जब से इंटरनेट मीडिया में तैरते देखा है, मेरा आत्म-विश्वास डूब गया है।प्रकाशक थोड़ी समझदारी दिखाता तो ‘डिजिटल-पेमेंट’ का विकल्प भी अपना सकता था।इससे कई लोग बीमार होने से बच जाते।मैं अपने लिए कम औरों की सेहत के लिए ज़्यादा चिंतित रहता हूँ।इस मसले पर कुछ लेखकों से बात हुई, वे प्रकाशक की उदारता की बजाय लेखक की दीनता को कोस रहे थे।उनका मत था कि ऐसे लेखक ही साहित्य को बाज़ार में ले आए हैं।उम्र के अंतिम पड़ाव में क्या ज़रूरत थी नया दरवाज़ा खोलने के लिए ! दीवार में पहले से ही एक खिड़की थी, उसी से बाहर झाँक लेते।मगर नहीं, उन्हें तो हमें ज़लील करना था,सो कर दिया।हमारा प्रकाशक भी क्या करे, वह हम जैसे हज़ारों को छापकर भी बरसों से दीन-हीन बना हुआ है।सही पूछिए, बेचारे की इस हालत के जिम्मेदार हम लोग ही हैं।हमारी किताबें गोदाम में सड़ रही हैं इसके बावजूद हमारा प्रकाशक प्रसन्न दिखता है।यह उसकी लेखकों के प्रति ज़बरदस्त सहयोग की भावना है।तीस-लाख की अद्भुत घटना के बाद से लेखकों के साथ कई प्रकाशक भी सदमे में हैं।बावजूद इसके कई लेखकों ने प्रकटतः ख़ुशी ज़ाहिर की है।क्या पता,उस उदार प्रकाशक की दृष्टि उन पर भी पड़ जाए !

इस बीच पाठकों की पूरी पीढ़ी बदल चुकी है।उसे स्वाद पसंद है; खाने में भी पढ़ने में भी।एक हम हैं कि क्लॉसिक और शाश्वत रचने के लिए बेचैन हैं।इस भ्रम में कि शायद कभी ‘नोबेल’ की लॉटरी लग जाए पर अब तो वह भी उम्मीद जाती रही।नोबेल के ‘हंग्री’ लेखकों को आख़िरकार निराशा हाथ लगी और हंगरी के एक अनाम-से लेखक को इनाम मिल गया।यह बुरा हुआ पर उतना नहीं जितना अपने देश में मुझे छोड़कर किसी और लेखक को मिलता।सुखद बात यह है कि हमारा भारतीय समाज थोड़े में ही संतोष कर लेता है।दूसरे को मिले दुःख में वह अपना भूल जाता है।यह कम सहनशीलता नहीं है।

देशी दुर्घटना से ठीक से निपटे नहीं थे कि अंतरराष्ट्रीय छीछालेदर के भी साक्षी हो गए।हालाँकि मेरे कई साथियों की गिद्ध-दृष्टि ‘नोबेल’ पर थी पर इन सबमें लायक मैं ही था।सौभाग्य से यह दुःख दुनिया के दारोग़ा ट्रंप चचा ने कम कर दिया।उनके दुःख के आगे मेरे दुःख की क्या बिसात ! ‘शांति’ का सम्मान पाने के लिए वह महीनों से दुनिया भर में अशांति फैलाए हुए थे, पर ‘सम्मान-समिति’ हमारे देश की समितियों की तरह संवेदनशील नहीं निकली।उसने तमाम भावनाओं और इच्छाओं का गला घोंटते हुए ‘ मेरिट’ जैसी तुच्छ चीज़ को वरीयता दी।बहरहाल, पहली बार मेरे दुःख का साझीदार अमेरिका बना।बाक़ी बचा दुःख पाकिस्तान ने हथिया लिया।पहली बार उसने ‘शांति’ की सिफारिश की थी, पर पूरी न हुई।इससे भी मुझे थोड़ा चैन मिला।

तीसरी घटना ज़्यादा दर्दनाक और वास्तविक रही।बाक़ी दोनों दुःखों के उचित साझीदार भी खोज लिए थे पर यह दुःख मुझे अकेले ही काटना था।मैं इंटरनेट मीडिया पर किताब के प्रकाशन की अग्रिम बधाई ले चुका था।देने वालों को आभार भी तुरंत रसीद कर दिया था,पर अब ? किताब के लटक जाने से रही-सही इज़्ज़त भी जाती रही।सौभाग्य से इस बात का पता प्रकाशक के सिवा किसी को नहीं पता।पूरा गरल अकेले पी रहा हूँ।लेखक होने का फ़ायदा बस इतना है कि निरंतर विष पीने का आदी हो चुका हूँ।ऐसे समय में नीलकंठ महादेव की याद आती है,फिर कुछ दुःख कम कर लेता हूँ।


ड्रॉइंग-रूम में बैठे हुए यह सोच ही रहा था कि ख़बर आई कि एक राज्य में खाँसी के सिरप पीने से कई मासूम चल बसे मगर मेरा क्या ? सारा दुःख उस सरकार ने दूसरी सरकार के ऊपर डाल दिया।अब किसी को कोई दुःख नहीं है।

- संतोष त्रिवेदी

रविवार, 5 अक्टूबर 2025

प्रायश्चित-पर्व

पिछले कुछ दिनों से मन बड़ा अशांत था।अहर्निश बेचैनी तारी थी।लिखता-पढ़ता तो मैं पहले भी नहीं था ,दो दोस्त थे;उन्होंने भी किनारा कर लिया।एक ने फ़ोन उठाना बंद कर दिया और दूसरे ने मेरा नंबर ही ब्लॉक कर दिया।गोया मेरे ऊपर चढ़ा सनीचर उसके फ़ोन उठाते ही उस पर चढ़ जाएगा।बहुतलोफील हो रहा था।साहित्यिक भाषा में कहें तो मुझ-सा नीच दूसरा कोई नज़र नहीं रहा था।मुझे अपना अपराध मालूम था।कइयों को तो यह भी नहीं पता चलता है।शुक्र है कि इतना बड़ा लेखक नहीं हुआ हूँ अभी।आत्म-चिंतन करते ही मुझे सब कुछ साफ़-साफ़ नज़र आने लगा।मैंने दारुण पाप किया था।यह ग्लानि मुझे बेचैन किए हुए थी ।श्रीमती जी बेफिक्र थीं।उन्हें लगता था कि यह महज़ लेखकीय-बेचैनी है।मैंने भी यह भ्रम बना रहने दिया।


लोग पाप करते हैं,मैंने महापाप किया था।अपने अग्रजों और वरिष्ठों पर उंगली उठाना वर्जित है और मैंने तो खड़ी लात मारी थी।व्यंग्य का चोला ओढ़े हुए मुझे बरसों बीत गए।न कुछ ख़ुद में भर पाया और ही साहित्य में।बल्कि जो लोग अपना घर-बार और स्त्री छोड़े हुए पूरी तरह व्यंग्य की सेवा कर रहे थे,मैंने उनकी निष्ठा पर संदेह किया।संदेह भी नहीं उन पर सीधे लांछन लगा दिया।और ये लोग भी कोई छोटे-मोटे असामी नहीं थे,व्यंग्य को चलाने वाले लोग थे।परसाई और जोशी तो चले गए पर व्यंग्य तो यहीं पड़ा रह गया।इतने सालों से जिन लोगों ने इसे अपने कलेजे से लगा रखा है, चर्चा में बनाए रखने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की है।इसके लिए लोकलाज त्यागी और अपने-अपने मुँह में कालिख लगवाकर भी सेवारत हैं,यह कोई छोटी बात नहीं है।मैं ठहरा उजबक।नदी किनारे बैठकर उसकी गहराई से मोती निकालने वालों पर पत्थर फेंक रहा था।मेरी इस क्रिया से मगरमच्छों के साथ-साथ दाना खाने वाली मछलियाँ भी आहत हुईं।पानी गंदा हुआ सो अलग।


इस अपराध-बोध ने मेरा जीना हराम कर दिया।आख़िर एक दिन शांति और पुण्य की खोज में मुँह-अँधेरे बनारस निकल गया।सुन रखा था कि हर प्रकार की मुक्ति वहीं मिलती है।अपने साहित्यिक-दुष्कर्मों के शमन के लिए सीधा दशाश्वमेध घाट पहुँचा।भारी भीड़ थी वहाँ।देखकर संतोष हुआ कि अकेले हमीं पापी नहीं हैं।मैं कुछ सोच नहीं पा रहा था कि किधर जाऊँ तभी एक वरिष्ठ पंडे ने मार्ग दिखाया।उसने अपने पीछे-पीछे आने का संकेत किया।मैं जल्द ही उसके ठीहे पर था।उसे जैसे ही जानकारी मिली कि मैं संघर्षशील लेखक हूँ,वह अति प्रसन्न हुआ।कहने लगा, ‘ तुम बिल्कुल सही जगह पहुँचे हो।मैं अतीत में संपादक रह चुका हूँ।अंशकालिक आलोचना भी की है।इंडस्ट्री में पैर जमाने के लिए मैंने ईमानदारी से प्रयास किया पर साहित्य मेरे प्रति बहुत निर्मम निकला।जब मैं आलोचना में निर्मम हुआ,सब जगह से मेरा पत्ता कटने लगा।फिर मेरा रूपांतरण हुआ जिसे आधुनिक भाषा में ट्रांसफॉर्मेशन कहते हैं।सभी वरिष्ठों को साधने लगा।एक दिन इस बात की हवा लग गई।सब विमुख हो गए।अंततः प्रभु की शरण में गया हूँ।अब दूसरों का उद्धार करता हूँ।तुम्हारा भी करूँगा।पहले तुम्हें अपने पाप बताने होंगे और किनके प्रति किया गया है यह भी।और हाँ, प्रायश्चित की तीव्रता उतनी ही अधिक करनी होगी जितनी तीव्रता का पाप किया गया हो !’


गंगाजल हाथ में उठाकर मैं अपने पापों को याद करने लगा, ‘ विगत दिनों राजधानी में अकादमी का भव्य आयोजन हुआ था।सदियों में ऐसा एकाध बार ही होता है।उसमें देश भर से प्रमुख साहित्यिक भूपालों और भृत्यों को न्यौता गया था।मुझे भ्रम था कि मुझे बतौर भूपाल सही,भृत्य समझकर ही बुलाया जाएगा पर ऐसा नहीं हुआ।एक साहित्यिक दासी ने तो यह तक उद्घाटन कर दिया कि इस सभा के बाहर कोई साहित्य है और ही लेखक।उसके वहाँ जाने भर से अकादमी और उसके चंपुओं द्वारा किया गया माल्यार्पण समस्त नारी जगत का सम्मान प्रतिष्ठित हुआ है।एक वरिष्ठ ने परसाई पर पत्थर फेंक कर अपनी प्रतिष्ठा बचा ली।दूसरे बड़े लेखक ने सुंदर प्रवचन सुना सुनाकर समाज और साहित्य के प्रति अपने कर्तव्य-बोध से मुक्ति पा ली।बचा वह तीसरा, जो आपकी ही तरह निर्ममता से आलोचना करता है,उसने नारीवाद पर एक बड़े कवि को लताड़ लगा दी।उसकी यह अभिव्यक्ति सुनकर निकट बैठी परिचारिका ने हँसी रोकने के लिए अपने मुँह में कपड़ा ठूँस लिया।यह सब सुनकर मैं सुलग उठा।इतने सार्थक आयोजन में मुझे बुलाकर साहित्य और समाज का बड़ा नुक़सान हुआ।मुझे जानबूझकर व्यंग्य से दूर किया गया।मैंने इसी परिताप में एक के बाद एक उन तीनों महात्माओं और सिद्ध-पुरुषों पर अपनी लेखनी से वार किया।उन पर तो कुछ असर नहीं हुआ।मुझे अकादमी से,व्यंग्य से और सोशल मीडिया से निकालकर वे सभी अगली गोष्ठी और समारोह के लिए निकल लिए।मैं बेचैनी के आलम में यहाँ हूँ,आपके सामने।


मेरी आत्म-स्वीकृति का उस पंडे पर अनुकूल प्रभाव हुआ।द्रवित होकर कहने लगा, ‘ हरि,गुरु निंदा सुनइ जो काना ,होइ पाप गोघात समाना।यह मेरा नहीं तुलसी बाबा का विमर्श है।तुमने गुरुनिंदा की है इसलिए तुम्हारे लिए ईश्वर का द्वार भी बंद है।हाँ,एक उपाय ज़रूर बता सकता हूँ।जिस आत्म-शक्ति के वशीभूत होकर तुमने उन सबकी निंदा की है, उसे यहीं गंगा में विसर्जित कर दो।फिर उन सभी पुण्यात्माओं की प्रशंसा में दिन-रात डूब जाओ।देर सबेर तुम्हें अपने पापों से मुक्ति अवश्य मिलेगी अन्यथा उल्लू की तरह सभी सभाओं में लटकते फिरोगे।तुमसे अपने भी देखकर दूर भागेंगे।सर्वप्रथम एक सार्वजनिक क्षमायाचना माँग लीजिए।वे अभी इतने भी निर्लज्ज नहीं हैं, तुम्हें क्षमा कर देंगे।


मुक्तिधाम से यही मंत्र लेकर लौटा हूँ।फ़िलहाल, प्रायश्चित-पर्व मना रहा हूँ।यदि मेरे द्वारा किसी भी धतकर्मी जीव को पीड़ा पहुँची हो तो कृपया शीघ्र क्षमा नहीं करिएगा।पाप बड़ा है तो घड़ा भी पूरा भर जाने की प्रतीक्षा कर सकता हूँ।


ओम शांति !


  • संतोष त्रिवेदी  

समकालीन घोर पापी 






हवा को ख़त लिखना है !

राजधानी फिर से धुंध की गिरफ़्त में है।बीसियों दिन हो गए , साफ़ हवा रूठी हुई है।शायद उसे भी किसी के ख़त का इंतज़ार है।फ...