पिछले कुछ दिनों से मन बड़ा अशांत था।अहर्निश बेचैनी तारी थी।लिखता-पढ़ता तो मैं पहले भी नहीं था ,दो दोस्त थे,उन्होंने भी किनारा कर लिया।एक ने फ़ोन उठाना बंद कर दिया और दूसरे ने मेरा नंबर ही ब्लॉक कर दिया।गोया मेरे ऊपर चढ़ा सनीचर उसके फ़ोन उठाते ही उस पर चढ़ जाएगा।बहुत ‘ लो’ फील हो रहा था।साहित्यिक भाषा में कहें तो मुझ-सा नीच दूसरा कोई नज़र नहीं आ रहा था।मुझे अपना अपराध मालूम था।कइयों को तो यह भी नहीं पता चलता है।शुक्र है कि इतना बड़ा लेखक नहीं हुआ हूँ अभी।आत्म-चिंतन करते ही मुझे सब कुछ साफ़-साफ़ नज़र आने लगा।मैंने दारुण पाप किया था।यह ग्लानि मुझे बेचैन किए हुए थी ।श्रीमती जी बेफिक्र थीं।उन्हें लगता था कि यह महज़ लेखकीय-बेचैनी है।मैंने भी यह भ्रम बना रहने दिया।
लोग पाप करते हैं,मैंने महापाप किया था।अपने अग्रजों और वरिष्ठों पर उंगली उठाना वर्जित है और मैंने तो खड़ी लात मारी थी।व्यंग्य का चोला ओढ़े हुए मुझे बरसों बीत गए।न कुछ ख़ुद में भर पाया और न ही साहित्य में।बल्कि जो लोग अपना घर-बार और स्त्री छोड़े हुए पूरी तरह व्यंग्य की सेवा कर रहे थे,मैंने उनकी निष्ठा पर संदेह किया।संदेह भी नहीं उन पर सीधे लांछन लगा दिया।और ये लोग भी कोई छोटे-मोटे असामी नहीं थे,व्यंग्य को चलाने वाले लोग थे।परसाई और जोशी तो चले गए पर व्यंग्य तो यहीं पड़ा रह गया।इतने सालों से जिन लोगों ने इसे अपने कलेजे से लगा रखा है, चर्चा में बनाए रखने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की है।इसके लिए लोकलाज त्यागी और अपने-अपने मुँह में कालिख लगवाकर भी सेवारत हैं,यह कोई छोटी बात नहीं है।मैं ठहरा उजबक।नदी किनारे बैठकर उसकी गहराई से मोती निकालने वालों पर पत्थर फेंक रहा था।मेरी इस क्रिया से मगरमच्छों के साथ-साथ दाना खाने वाली मछलियाँ भी आहत हुईं।पानी गंदा हुआ सो अलग।
इस अपराध-बोध ने मेरा जीना हराम कर दिया।आख़िर एक दिन शांति और पुण्य की खोज में मुँह-अँधेरे बनारस निकल गया।सुन रखा था कि हर प्रकार की मुक्ति वहीं मिलती है।अपने साहित्यिक-दुष्कर्मों के शमन के लिए सीधा दशाश्वमेध घाट पहुँचा।भारी भीड़ थी वहाँ।देखकर संतोष हुआ कि अकेले हमीं पापी नहीं हैं।मैं कुछ सोच नहीं पा रहा था कि किधर जाऊँ तभी एक वरिष्ठ पंडे ने मार्ग दिखाया।उसने अपने पीछे-पीछे आने का संकेत किया।मैं जल्द ही उसके ठीहे पर था।उसे जैसे ही जानकारी मिली कि मैं संघर्षशील लेखक हूँ,वह अति प्रसन्न हुआ।कहने लगा, ‘ तुम बिल्कुल सही जगह पहुँचे हो।मैं अतीत में संपादक रह चुका हूँ।अंशकालिक आलोचना भी की है।इंडस्ट्री में पैर जमाने के लिए मैंने ईमानदारी से प्रयास किया पर साहित्य मेरे प्रति बहुत निर्मम निकला।जब मैं आलोचना में निर्मम हुआ,सब जगह से मेरा पत्ता कटने लगा।फिर मेरा रूपांतरण हुआ जिसे आधुनिक भाषा में ट्रांसफॉर्मेशन कहते हैं।सभी वरिष्ठों को साधने लगा।एक दिन इस बात की हवा लग गई।सब विमुख हो गए।अंततः प्रभु की शरण में आ गया हूँ।अब दूसरों का उद्धार करता हूँ।तुम्हारा भी करूँगा।पहले तुम्हें अपने पाप बताने होंगे और किनके प्रति किया गया है यह भी।और हाँ, प्रायश्चित की तीव्रता उतनी ही अधिक करनी होगी जितनी तीव्रता का पाप किया गया हो !’
गंगाजल हाथ में उठाकर मैं अपने पापों को याद करने लगा, ‘ विगत दिनों राजधानी में अकादमी का भव्य आयोजन हुआ था।सदियों में ऐसा एकाध बार ही होता है।उसमें देश भर से प्रमुख साहित्यिक भूपालों और भृत्यों को न्यौता गया था।मुझे भ्रम था कि मुझे बतौर भूपाल न सही,भृत्य समझकर ही बुलाया जाएगा पर ऐसा नहीं हुआ।एक साहित्यिक दासी ने तो यह तक उद्घाटन कर दिया कि इस सभा के बाहर न कोई साहित्य है और न ही लेखक।उसके वहाँ जाने भर से अकादमी और उसके चंपुओं द्वारा किया गया माल्यार्पण समस्त नारी जगत का सम्मान प्रतिष्ठित हुआ है।एक वरिष्ठ ने परसाई पर पत्थर फेंक कर अपनी प्रतिष्ठा बचा ली।दूसरे बड़े लेखक ने सुंदर प्रवचन सुना सुनाकर समाज और साहित्य के प्रति अपने कर्तव्य-बोध से मुक्ति पा ली।बचा वह तीसरा, जो आपकी ही तरह निर्ममता से आलोचना करता है,उसने नारीवाद पर एक बड़े कवि को लताड़ लगा दी।उसकी यह अभिव्यक्ति सुनकर निकट बैठी परिचारिका ने हँसी रोकने के लिए अपने मुँह में कपड़ा ठूँस लिया।यह सब सुनकर मैं सुलग उठा।इतने सार्थक आयोजन में मुझे न बुलाकर साहित्य और समाज का बड़ा नुक़सान हुआ।मुझे जानबूझकर व्यंग्य से दूर किया गया।मैंने इसी परिताप में एक के बाद एक उन तीनों महात्माओं और सिद्ध-पुरुषों पर अपनी लेखनी से वार किया।उन पर तो कुछ असर नहीं हुआ।मुझे अकादमी से,व्यंग्य से और सोशल मीडिया से निकालकर वे सभी अगली गोष्ठी और समारोह के लिए निकल लिए।मैं बेचैनी के आलम में यहाँ हूँ,आपके सामने।’
मेरी आत्म-स्वीकृति का उस पंडे पर अनुकूल प्रभाव हुआ।द्रवित होकर कहने लगा, ‘ हरि,गुरु निंदा सुनइ जो काना ,होइ पाप गोघात समाना।’ यह मेरा नहीं तुलसी बाबा का विमर्श है।तुमने गुरुनिंदा की है इसलिए तुम्हारे लिए ईश्वर का द्वार भी बंद है।हाँ,एक उपाय ज़रूर बता सकता हूँ।जिस आत्म-शक्ति के वशीभूत होकर तुमने उन सबकी निंदा की है, उसे यहीं गंगा में विसर्जित कर दो।फिर उन सभी पुण्यात्माओं की प्रशंसा में दिन-रात डूब जाओ।देर सबेर तुम्हें अपने पापों से मुक्ति अवश्य मिलेगी अन्यथा उल्लू की तरह सभी सभाओं में लटकते फिरोगे।तुमसे अपने भी देखकर दूर भागेंगे।सर्वप्रथम एक सार्वजनिक क्षमायाचना माँग लीजिए।वे अभी इतने भी निर्लज्ज नहीं हैं, तुम्हें क्षमा कर देंगे।’
मुक्तिधाम से यही मंत्र लेकर लौटा हूँ।फ़िलहाल, प्रायश्चित-पर्व मना रहा हूँ।यदि मेरे द्वारा किसी भी धतकर्मी जीव को पीड़ा पहुँची हो तो कृपया शीघ्र क्षमा नहीं करिएगा।पाप बड़ा है तो घड़ा भी पूरा भर जाने की प्रतीक्षा कर सकता हूँ।
ओम शांति !
- संतोष त्रिवेदी
समकालीन घोर पापी
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