शुक्रवार, 26 सितंबर 2025

परसाई विरासत-3

सभागार खचाखच भरा था।श्रोताओं से ज़्यादा वक्ता बैठे थे।बाहर सुरक्षा चाक-चौबंद थी।बिना किसीआधारवाले का प्रवेश निषिद्ध था।परसाई और जोशी रोशनदान से लटके हुए समकालीन व्यंग्य के उत्सव को देख रहे थे।इस उम्मीद से कि व्यंग्य की रोशनी यहीं से निकलेगी।हाल की घटनाएँ उनके पास छन-छनकर पहुँची थी।इसलिए वे दोनों स्वयं को रोक नहीं पाए।अपनी विरासत को बढ़ते देखकर किसे गर्व नहीं होता ! इसी की तलाश में वे अरसे बाद धरती पर आए थे।

मंच बेहद सुसज्जित था।सभागार कृत्रिम प्रकाश की अपेक्षा मंचासीन वक्ताओं की आभा से ज़्यादा जगमगा रहा था।वक्ताओं के आगे ब्रांडेड द्रव्य (तरल और ठोस दोनों)विद्यमान थे।परसाई और जोशी प्रथमदृष्ट्या यह देखकर चकित हुए कि उनके समय का व्यंग्य दीन-हीनता की स्थिति को पारकर समृद्धि और प्रभुता के पासंग गया है।व्यंग्य झोपड़ी से निकलकर महल की चौखट पर खड़ा है।उन्हें अपनी विरासत पर गर्व हुआ और स्वयं पर लज्जा भी आई कि उन्होंने अपने रहते व्यंग्य को महज़ पीड़ित,शोषित और आम आदमी का प्रतिनिधि बना दिया था।


उनकी इस तंद्रा को नए वक्ता की आवाज ने तोड़ा।देखने में वह दुबला-पतला प्रौढ़ था।उसके हावभाव देखकर लगा,ज़रूर व्यंग्य की चिंता में दुबला हुआ होगा।उसने शब्दों को चबा-चबाकर बोलना शुरू किया मानो, व्यंग्य के शत्रुओं को वह कच्चा ही समाप्त कर देगा, ‘ मैं आज बड़ी कड़वी बात बोलने जा रहा हूँ।किसी को बुरा लगे तो लगे।ईमानदार होने के लिए आपको कुछ तो त्यागना ही होगा।जैसे यहाँ आने के लिए मैंने बहुत कुछ त्यागा।सच तो यह है कि व्यंग्य को आज मात्र ढाई लोग चला रहे हैं।हज़ारों लेखकों को साधना किसी साधना से कम है क्या ? दो के बारे में तो सब जानते हैं पर वह आधा मैं ही हूँ।किंतु इससे मेरे योगदान को नज़र अंदाज़ करना चूतियापा .... बेवक़ूफ़ी होगी।लो-प्रोफ़ाइल होने के बाद भी जितने आंतरिक निर्णय होते हैं,उसमें मेरी सहमति होती है,बशर्ते मेरी सम्मति ली गई हो।उन दो के पास तगड़ा नेटवर्क है, पर मेरी सबसे बड़ी खूबी है कि लो-नेटवर्क होते हुए भी अपने काम भर का अर्जित कर लेता हूँ।अपने संघर्ष को यहाँ इसलिए रेखांकित कर रहा हूँ कि नई पीढ़ी व्यंग्य-लेखन की दुश्वारियाँ समझे।व्यंग्य लिखना कोई हलवा बनाना नहीं है।इसलिए मैंने आलोचना में प्रवेश किया।इतिहास को दुरुस्त किया।हर गली और नुक्कड़ से व्यंग्यकारों को उठाया।इसका फौरी फायदा हुआ कि कुछ बड़े लेखक भी मुझसे आतंकित होने लगे कि कहीं इसने ईमानदार आलोचना कर दी तो व्यंग्य का तो  पता नहीं उनका ज़रूर भला हो जाएगा


आज झूठ नहीं बोलूँगा।व्यंग्य ने मुझे दिया भी झोली भर भर कर।अब तक छप्पन किताबें और चौसठ गोष्ठियाँ निपटा चुका हूँ।सम्मानभी ठीक-ठाक मिल चुके हैं।माफ़ करना, अगर उससम्मान-खोरने कई सम्मानों में अड़ंगी डाली होती तो मैं इसमें भी अर्ध-शतक लगा लेता।बहरहाल,आपको कुछ पाने के लिए कुछ त्यागना पड़ता है।मेरी उपलब्धियाँ इतनी भर नहीं हैं।संसाधन-हीन होकर भी मुझमें बार्गेनिंग-पॉवर की कमी नहीं है।दोनों नेटवर्कधारियों से मेरी प्राथमिक माँग इतनी भर रहती है किएक के साथ,एक फ्री,एक पुरुष,एक स्त्री।और इस पर उन्हें कोई आपत्ति भी नहीं होतीइससे स्त्री-अस्मिता भी सुरक्षित रहती है और महिला-सशक्तिकरण को मज़बूती मिलती है।


इतना बोलने के बाद उसने ललाट पर चश्मे को चढ़ाते हुए कहा, ‘ तुम्हें पता है,ऐसा मैं क्यों करता हूँ? नहीं पता होगा।मेरे बारे में कई रहस्य हैं,जो व्यंग्य की दुनिया में तैरते रहते हैं।अच्छा और बड़ा लेखक वही है,जिसके बारे में सब कुछ नहीं पता हो।कुछ तो रहस्य हों ताकि भविष्य में आत्मकथा लिखने के लिए कुछ बचे।हाँ, रही बात मेरे माथे पर चढ़े चश्मे की , इसके बारे में सच यही है कि मेरी आलोचकीय-दृष्टि यहीं विराजमान है।इसी से मैं किसी भी लेखक की विट और आयरनी को पकड़ता हूँ।सामान्य दृष्टि से तो सब देखते हैं।आलोचक की दृष्टि बिल्कुल अलग होनी चाहिए।मेरी यही यूएसपी है।इससे ज़्यादा सच नहीं बोलूँगा।अगली गोष्ठी के लिए भी कुछ मौलिक रखना है।


रोशनदान में परसाई और जोशी कबूतर की तरह बड़ी देर से लटके हुए थे।व्यंग्य की दशा वे पहले देख चुके थे,आलोचना की भी देख ली।दोनों अब पूर्ण आश्वस्त थे ।उनकी विरासत सही हाथों में है।व्यंग्य को आम से ख़ास बनाने में वे असफल रहे।पिछले सत्तर सालों में जो नहीं हुआ,अब घटित हो रहा है।सरोकार घिसते-घिसते सरकार में तब्दील हो गया, व्यंग्य के लिए यह महती उपलब्धि है।इतना संतोष पाकर वे दोनों समकालीन व्यंग्य और सभागार से अदृश्य हो गए !


रपटकार 


अनामन्त्रित संतोष त्रिवेदी 


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परसाई विरासत-3

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