मंगलवार, 23 सितंबर 2025

परसाई की विरासत-1

गोलोकवासी परसाई जी,


आपने मुझे धर्मसंकट में डाल दिया है।आप तो लिखकर चले गए लेकिन व्यंग्य की जिम्मेदारी मुझ पर छोड़ गए।मैं ठहरा,कुटिल और कामी।मुझ अकिंचन को कभी ठीक से लिखना नहीं आया पर कहते हैं ना कि जब लक्ष्य और सपने बड़े हों,तो कोई बाधा नहीं टिकती ! मैंने भी संकल्प उठा लिया कि आपकी विरासत संभालने लायक मैं ही हूँ।इसके बाद से मेरा संघर्ष शुरू हुआ।मैंने ढेरों पन्ने काले किए पर साहित्य-संसार बड़ा निर्मम निकला और छोटा भी, मेरी सोच से।एक पूरी पीढ़ी लगी हुई थी आपके पदचिह्नों में चलने के लिए।उन सबके हाथ में कलम थी पर आगे बढ़ने का साहस नहीं था।यह बीड़ा मैंने उठाया।इससे मेरा लेखन भी तनिक प्रभावित नहीं हुआ क्योंकि वह पहले ही अधिक प्रभाव पैदा नहीं कर पा रहा था।


कहते हैं,जहाँ चाह,वहाँ राह।सो मैंने भी राह निकाल ली।यह काम दो स्तरों पर हुआ।व्यंग्य की पत्रिका निकालकर यशस्वी संपादक बना।इससे छपास-अनुरागी लेखकों की एक बड़ी जमात मेरे पीछे गई।लोगों की बेचैनी किसी सरोकार या सरकार की चिंता नहीं थी, बसव्यंग्यकारका ठप्पा लगने के लिए सब आतुर थे।सौभाग्य से वह मुहर मेरे पास थी।न जाने कितने नामोत्सुक उचक्कों और लंपट-ललनाओं को मैंने साहित्यकार बनने का अवसर दिया।मेरे द्वारा व्यंग्य-साहित्य के लिए आपके प्रति यह मेरी पहली श्रद्धांजलि थी।हालांकि इत्ते भर से कुछ ज़्यादा नहीं हो रहा था।इसलिए मैंने कुछ संस्थाओं केसम्मानोंको अपने झोले में डाल लिया।फिर क्या, देखते-देखते रीढ़-विहीन पुरुष-स्त्री सब नतमस्तक हो गए।सभा-गोष्ठियों में जय-जय होने लगी।राजधानी का गँवार व्यंग्य का विचारक ,प्रचारक और परसाई-प्रसाद का वितरक बन गया।


इतने पर भी वह बात नहीं बन पा रही थी,जिसके लिए मेरा जन्म हुआ था।मैंने अपने प्रतिद्वंदियों से भी मिलकर दुरभिसंधियाँ की।कई बारसम्मानकाटे और कई बार बाँटे भी।सरकारी संस्थानों में अपने शिष्य बनाये।वे लेखक बने और मुझे आर्थिक लाभ भी मिला,पर आपकी शपथ, यह सब मैंने अपने लिए नहीं पत्रिका के लिए किया।यह सब करते हुए मैंने ऐसी प्रतिभाओं में कबीर को तलाशा (या तराशा?)।आप चिंता करें,आपको कहीं नहीं खोजा क्योंकि आप तो शुरू से मुझमें ही बसे हैं।आप मेरे प्राण हैं।


लेकिन आपको कब तक ढोता रहूँ ? आप तो प्रेत बनकर मेरे ऊपर ही सवारी करने लगे।मैंने व्यंग्य को संक्रमित होने से बचाने के लिए व्यभिचारियों और आरोपियों को भी गले लगाया और मंच भी साझा किया।आयोजन सफलता से संपन्न हो गया यह महत्त्वपूर्ण था कि आयोजन की मंशा,उसका उद्देश्य और साधन की शुचिता।मैं इसे प्रेम काटीकानहीं लगाता तो व्यंग्य संक्रमित होकर दम तोड़ देता।


और हाँ,एक आख़िरी और कड़वी बात और सुन लीजिए


आपने आपातकाल का समर्थन करके महापाप किया।इसके बदले में आपको ज़रूर कुछ मिला होगा,यह जाँच से पता चल जाएगा।मेरी टीम जल्द ही वह भी खोज निकालेगी क्योंकि उसके लिए अब आप केवल मूर्ति हैं।मूर्तियां जल चढ़ाने के काम आती हैं,घर चलाने के लिए नहीं।आपने लिख-लिखकर उस पाप पर पर्दा डाल दिया था,मुझमें इतनी ताप नहीं।मुझे कोई पाप लगे और कभी पश्चात्ताप हो,इसकी व्यवस्था सैकड़ोंसम्मानपाकर मैंने कर ली है।आपको कभी कुछ मिला ? फिर भी आप मरकर भी शिखर पर अटके हुए हैं,मैं ज़िंदा होकर भी मुर्दा बन गया हूँ।आपकी असली विरासत मेरे पास ही है,इसका सबूत आपके साथ मेरी एक फ़ोटो है।जिस प्रकार नेहरू जी ने देश को बर्बाद कर दिया था और अब मोदी जी उसे आबाद करने में लगे हैं,उसी तरह मैं भी अतीत में छेद करके आपकी वैचारिक प्रतिबद्धता को उजागर करूँगा भले ही इसके लिए मुझे कोई गिद्ध नोचे या स्वयं गिद्ध बनना पड़े ! इसीलिए आपको पितृ-पक्ष में मंचासीन होकर तिलांजलि दे दी।


व्यंग्य के नाम संदेश और दे सकता हूँ पर अभी इतना ही।आपको अंतिम प्रणाम।


आपका कभी नहीं 


व्यंग्य का मोदी 

  

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परसाई की विरासत-1

गोलोकवासी परसाई जी , आपने मुझे धर्मसंकट में डाल दिया है।आप तो लिखकर चले गए लेकिन व्यंग्य की जिम्मेदारी मुझ पर छोड़ गए।...