यहाँ हर कोई मशहूर होना चाहता है।मशहूरी का अपना आकर्षण है।समय बदलने के साथ मशहूर होने के तरीकों में ज़बरदस्त बदलाव हुए हैं।पहले लोग सहज और स्वाभाविक रूप से मशहूर होते थे।अब दिन-दहाड़े ‘वायरल’ होते हैं।तब आदमी पढ़-लिख कर, खेलकूद कर या किसी और कला में कौशल दिखाकर प्रसिद्धि पाता था।इसके लिए प्रतिभा होनी ज़रूरी थी, पर अब ‘वायरल’ होने के लिए ज़्यादा सनकपन और थोड़ी उछलकूद चाहिए।इसमें लंबे समय या कठिन श्रम की ज़रूरत नहीं पड़ती।अचानक कोई मूर्खता से भरा कृत्य करके इंटरनेट पर परोस दीजिए,फटाफट मशहूरी मिल जाएगी।यह जितनी जल्दी मिलती है,उससे भी जल्दी गुम होती है।मशहूर होना है तो हमारे ज़माने जैसा होइए।यह क्या कि पल भर में वायरल हुए और पलक झपकते ही गड्ढे में समा गए ! अब सबका मिशन एक है, ‘ट्रेंड’ होना।एक बार हो गए,तो ज़िंदगी सँवर गई समझो।
मशहूर होने का फ़ायदा एक है पर न होने के अनेक।प्रसिद्धि पाने पर वह आम आदमी नहीं रहता।इस एक वजह से उसे किसी लाइन में नहीं लगना पड़ता।उसके सारे काम पलक झपकते होते हैं।इसके उलट मशहूर होने के नुक़सान बहुत हैं।वह सड़क पर खड़े ठेले पर गोलगप्पे नहीं खा सकता।गुमटी में बैठकर कटिंग चाय नहीं पी सकता और न ही सब्जी वाले से मोल-तोल कर सकता है।जो मशहूर नहीं है,वह बिंदास घूमता है।प्लेटफॉर्म की बेंच पर बैठकर अचार के साथ आलू-पराठे खा सकता है।खुलकर डकार ले सकता है और रिक्शेवाले से दो रुपए के लिए हील-हुज्जत भी कर सकता है।हाँ,मशहूर न होने का एक नुक़सान भी है।कुछ ग़लत होने पर पुलिस का सिपाही कभी भी और कहीं से भी उसे घसीटते हुए ले जा सकता है।सरकारी कार्यालय में ज़रूरी काम के लिए वह ग़ैर-ज़रूरी धक्के खा सकता है।उसकी कही बात का कोई वज़न नहीं होता और मर जाने पर कोई ख़बर नहीं बनता।कुल मिलाकर मशहूर न होना आम आदमी के लिए कहीं बेहतर है।उसे नींद अच्छी आती है।बिना सलीक़े से कटा अमरूद समूचा ही खा सकता है।बीमार हो जाए तो बड़े अस्पताल का खर्चा बचता है क्योंकि बिना बेड पाए वह सरकारी अस्पताल में स्ट्रेचर पर आराम से पड़ा रह सकता है।
मशहूर न होने के इतने फ़ायदे हैं फिर भी साहित्य और सियासत में आए दिन लोग मशहूर होना चाहते हैं।सियासत में मशहूर होना ज़्यादा मुश्किल नहीं है।इसके लिए बस इतना एहतियात ज़रूरी है कि काम न करके केवल उसका शोर मचाया जाए।एक-दो उल्टे-सीधे बयान देकर तुरंत मशहूर हुआ जा सकता है।हज़ार-पाँच सौ साल से गड़ा मुर्दा उखाड़कर उसे ज़िंदा किया जा सकता है।साहित्य में इतनी अधिक सुविधा नहीं है।वहाँ लिख-लिखकर मशहूर होना बहुत दूर की कौड़ी है।इसके लिए एक नया उपाय किया जा सकता है।अपनी दो कौड़ी की किताब की क़ीमत पंद्रह करोड़ रख दीजिए।हर तरफ़ इसके चर्चे होंगे।किताब तो कोई नहीं लेगा,हाँ,आप ‘मशहूर’ ज़रूर हो जाएँगे।हमारे ज़माने के एक लेखक थे,सुरेंद्र मोहन पाठक।एक उपन्यास लिखा था, ‘ पैंसठ लाख की डकैती’। उपन्यास खूब बिका था।लेखक पहले से मशहूर था,और भी हो गया।पाठक जी अभी भी लिख रहे हैं पर इतने मशहूर नहीं हो पाए कि पंद्रह करोड़ की किताब लिख लें।ऐसा साहस वर्तमान साहित्यकारों में ही हो सकता है।संभव है,ऐसे लेखक सरकार के तौर-तरीकों से प्रेरित हो रहे हों।
ऐसी प्रसिद्धि पाना उनके लिए सरल है जो अधिक चतुर हैं।एक सामान्य बुद्धि वाला ऐसे में क्या करे ! इसके लिए ‘रील’ है ना ! जितनी ऊटपटांग हरक़त होगी,उतनी ही रील वायरल होगी।अब तो मनौतियाँ तक हो रही हैं कि काश, एक रील ऐसी निकल आए ! मशहूरी पा जाने पर फिर वह और भी मूर्खतापूर्ण रील बनाने लगता है।इससे निठल्ले लोगों का मनोरंजन होता है और ‘रीलर’ रोज़ डॉलर गिनता है।जबसे रुपए को मशहूरी मिली है,वह कहीं का नहीं रहा।जल्द ही वह बेरोजगारी और मँहगाई की तरह नगण्य हो जाएगा।विशेषज्ञ उसकी कमज़ोरी को उसका बल बताने लगेंगे।
इसलिए ज़्यादा मशहूर होना ख़तरे से ख़ाली नहीं है।लोगों की निगाहें उसी पर लगी रहती हैं।मुद्दा हो या आदमी, सामान्य होने में ही भलाई है।ऐसे में सरकार अपना काम करती रहती है।देखिए न, धुंध और प्रदूषण मशहूर होने की सज़ा भुगत रहे हैं।ऐसे मौसम में नेताओं को ‘आई क्यू’ और ‘ए आई क्यू’ में कन्फ़्यूज़न पैदा हो जाता है।अच्छी बात यह है कि जब नेता विपक्ष में होते हैं तो उन्हें गहरी धुंध भी साफ़ नज़र आती है।सत्ता में आते ही यही धुंध उनकी आँखों में चढ़ जाती है।सियासत की यह सबसे बड़ी मशहूरी है।