शनिवार, 9 अप्रैल 2016

शांति स्थगित है !

हमारे पड़ोसी ने हमें चेतावनी दी है कि शांति स्थगित है।इससे मामला और उलझ गया है।दोनों तरफ अजीब-सी शांति पसर गई है।हमारी फ़िक्र परिंदों को लेकर है।उन्हें इस महत्वपूर्ण घटनाक्रम की जानकारी कैसे पहुँचाई जाय ? क्या वे शांति के स्थगन को हवा में ही भांपकर अपने डैने विपरीत दिशा में मोड़ लेंगे ?चाहे जैसे भी हो,परिंदों को खबरदार किया जाना ज़रूरी है।ऐसा न हो कि वे स्थगित हुई शांति को अपनी चीं-चीं से भंग कर दें ! शांति इत्ती ही छुई-मुई सी हो गई है आजकल।

शांति अब योजनाबद्ध तरीके से आती है।उसके लिए बाकायदा कार्यक्रम और एजेंडा तैयार किया जाता है।बिंदु तैयार किए जाते हैं।इस बात का ख्याल रखा जाता है कि शांति स्थापित करने के तमाम बिंदु हों पर समझदार वही होता है जो उसमें भी सेंध लगाने का रास्ता खोज ले।शांति का मंत्रोच्चार करते हुए युद्ध का पूजन करने वाले ही असल कूटनीतिक होते हैं।वे शांति-स्थापना के लिए कृतसंकल्प होते हैं भले ही युद्ध को स्थगित करना पड़े।युद्ध स्थगित करते रहने की इसी आदत के चलते फ़िलहाल उन्हें शांति को स्थगित करना पड़ा है।

शांति को किसी से शिकायत नहीं है।परिंदों को भी इससे बहुत फ़िक्र नहीं है।बस कबूतर अपनी उड़ान को लेकर ज़रा-सा व्याकुल हैं।उनको लगता है कहीं स्थगित हुई शांति के समय उनके उड़ने से आपसी सौहार्द बुरा मानकर पिघल न जाय।बड़ी मुश्किल से तो वह अभी जमा है।हाल में ही सौहार्द ने जन्मदिन पर केक काटे,क्रिकेट खेली और पठानकोट किया।बाद में पता चला कि वे कबूतर नहीं कौए थे,बीट कर चले गए।कबूतरों को यही चिंता है।एक बार शांति कायदे से स्थापित हो जाए,खम्भे-सी अविचल खड़ी हो जाए, तो वे भी इत्मिनान से बीट कर सकें।


कौए खुश हैं।शीतयुद्ध खत्म हो चुका है और गिद्ध भी।अब नोचने के लिए कौओं को पर्याप्त माल मिल रहा है।शांति स्थगित है ताकि उनका पेट भर सके।युद्ध स्थगित हो जायेगा तो वे क्या खाकर जियेंगे ?

इधर हमारा पड़ोसी शांति स्थगित कर रहा है और हम नेवता दे रहे हैं।दोनों का प्रयास यही है कि शांति एक दफ़ा क़ायदे से स्थापित हो जाए,बाद में जब चाहे उसे दफा कर देंगे।पड़ोसी का तरीक़ा व्यावहारिक लगता है।न्योतने से देवी-देवता आ सकते हैं,शांति नहीं।हम फिर भी चाहते हैं कि जैसे हमने उन्हें न्योता,वह हमें भी न्योते।पड़ोसी ने अधिक समझदारी दिखाते हुए बता दिया कि यह आपसी लेन-देन का मामला नहीं है।मजे की बात यह रही कि इसका खुलासा तब हुआ,जब उसने अपने घर पहुँचकर डकार ली।हमको पता ही नहीं चला कि उसने कब दोस्ती के घूँट शांति के साथ हलक के नीचे उतार गया।हम शांति को आवाज़ ही देते रह गए जबकि पड़ोसी ने उसे उदरस्थ कर लिया।अब हम सौहार्द को अकेले ही लिए सहला रहे हैं।हमें इतना भी ज्ञान नहीं कि सौहार्द कभी अकेले नहीं होता।

अब जब शांति के आने का मुहूर्त निकलेगा,विधिवत आयोजन किया जाएगा, तभी तो वह स्थापित हो पाएगी।फ़िलहाल,हमें उन कबूतरों की चिन्ता है जो शांति की आवाजाही से अनभिज्ञ हैं।

1 टिप्पणी:

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी विचारशील सामयिक चिंतन प्रस्तुति।

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