साल बदलने जा रहा है।इसके साथ बहुत कुछ बदलने वाला है।अवश्य ही उन लोगों की आत्मा को ठंडक पहुँचेगी जो हर पल बदलाव की रट लगाए रहते हैं।गर्म मौसम में जहाँ उन्हें सर्द चाँद की दरकार होती है,वहीं हाथ-पाँव सुन्न होते ही इन्हें चमकता सूरज चाहिए।ऐसी बदलाव-आतुर जनता जिस सरकार को मिल जाए,सोचिए उसका क्या होगा ! कई सरकारें महज़ इस बात पर बदल जाती हैं कि जनता बस बदलाव चाहती है।
साल बदलते ही हमारे दुःख भी बदल जाते हैं।पुराने दुःखों की जगह नए ले लेते हैं।दुःख हमेशा पूरा आता है जबकि सुख आधा-अधूरा।साल बदलने से हाल बदल जाता है,यह बात हमारे अंदर घुस चुकी है।इसी भरम में हम दनादन शुभकामनाएँ लेते और देते हैं।हमें हर वक़्त कुछ न कुछ बदलते हुए दिखना चाहिए।इसके लिए हरदम मचलते रहते हैं।ज़्यादा कुछ नहीं तो बैठी हुई चिड़िया फुर्र से उड़ जाए या चलती हुई सरकार ही धम्म से गिर जाए ! नए साल से इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है।
ऐसा नहीं है कि केवल जनता ही ऐसा सोचती है।हमारी सरकार भी बदलाव के लिए सदैव प्रतिबद्ध रहती है।वह सत्ता में आती ही है बदलाव के नाम पर।इसलिए हर समय प्रयासरत रहती है।सत्ता में आने के बाद वह कभी नाम बदलती है,कभी दाम।जब उसे कुछ नहीं सूझता,बढ़े हुए टैक्स को और बढ़ा देती है।उसका यह ख़ास काम है।इससे माहौल अपने आप बदलने लगता है।लोग खुदाई और मँहगाई भूलकर टैक्स नियमों की खिंचाई में लग जाते हैं।सरकार इसकी सफ़ाई में व्यस्त और जनता ‘रील’ में मस्त हो जाती है।मीडिया में मुद्दे हर पल बदलते रहते हैं।जो सरकार यह कारनामा कर लेती है,वह लंबे समय तक टिकी रहती है।
बदलाव को लेकर सबसे ज़्यादा चिंतित बुद्धिजीवी रहते हैं।यथास्थिति को स्वीकार करने वाला बुद्धिजीवी हो भी नहीं सकता।इसलिए वे सदैव सक्रिय रहते हैं।कुछ लोग देश बदलने की सोचते हैं तो कुछ राजनीति।ये सब नहीं बदल पाते तो पल भर में विचारधारा बदल लेते हैं।इससे एक झटके में सब बदल जाता है।जो विचार देश के लिए ख़तरनाक होता है,वह तत्काल-प्रभाव से देशहित में हो जाता है।सियासत हो या साहित्य ,विचार को धारा में बहाने भर से असीमित लाभ मिलते हैं।इन दोनों क्षेत्रों में यह प्रयोग ख़ूब सफल है।
हमारे यहाँ बदलने की रफ़्तार फ़िलहाल ज़्यादा है।कुछ को लगता है पिछले सत्तर साल में बदलाव धीरे-धीरे आया।कुछ लोग मानते हैं कि कुछ नहीं बदला।जो बदला है पिछले दस साल में ही बदला है।किसी को लोकतंत्र कभी ग़ायब हुआ दिखता है तो किसी को लगता है कि आज़ादी अभी अभी आई है।बस इस बदलाव को देखने और महसूसने की दृष्टि चाहिए।यह बदलाव तब साफ़ दिखता है, जब आँखों में अपनी प्रिय दुकान का चश्मा लगा हो।
सरकार को इस बात का आराम ज़रूर है कि उसके ख़िलाफ़ जो लड़ाई सड़क पर लड़ी जाती थी,अब डिजिटल प्लेटफॉर्म तक सीमित रह गई है।यह लोकतंत्र का नवीनतम बदलाव है।लोगों की राजनैतिक विचारधारा आपसी रिश्तों से लगाव को ख़त्म कर रही है।इससे एक ज़बरदस्त फ़ायदा हुआ है।मोह-माया छूटने में आसानी हुई है।आधुनिक घर वास्तविक रूप से लोकतांत्रिक ‘सदन’ का अहसास देते हैं जिसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों साथ-साथ रह रहे हैं।दोनों को लगता है कि बिना धक्कामुक्की किए देश आगे नहीं बढ़ सकता।खुशी इस बात की है कि इस बात से किसी को धक्का नहीं लग रहा।
सबको लगता है कि नया साल सबके लिए ख़ुशियाँ लाता है।कई लोगों को बाद में महसूस होता है कि उनके साथ धोखा हुआ है।दरअसल यह साल बहुत बुरा था।किसी को टिकट मिलते-मिलते रह गई और किसी को फ़लाँ पुरस्कार दिया ही नहीं गया।किसी के सिर का ताज और किसी के सिर लग गया और बॉस की समुचित सेवा के बाद भी विभागीय पदोन्नति कोई और ले गया।बीता साल इतना भी अच्छा नहीं बीता।
इन सारी आशंकाओं के बावजूद हर आदमी एक-दूसरे को नए साल की शुभकामनाएँ देता है।पिछले कई सालों से वह बराबर दे रहा है ।कई उल्लेखनीय बदलाव हुए भी हैं।कुछेक ऐसे हैं जिनका ज़िक्र ज़रूरी है।
जिस रूपये के थोड़ा गिरने पर पहले आँखें चढ़ जाती थीं,पातालगामी होने पर अब स्वतः मुँद जाती हैं।युवा पहले रोजगार ढूंढ़ते थे,अब मंदिर-मस्जिद खोज रहे हैं।अखाड़ों में होने वाली कुश्ती सदन तक चली आई।इस मायने में यह अभूतपूर्व बदलाव हुआ है।अब सफल जनसेवक होने के लिए जूडो,कराटे,बॉक्सिंग और नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा का विद्यार्थी होना ज़रूरी है।इससे सदन में बहस हो न हो बोरियत नहीं होगी।उम्मीद है नए साल में इससे भी ज़्यादा बदलाव होगा !
संतोष त्रिवेदी
1 टिप्पणी:
70 साल बाद के बदलाव फिर लौटेंगे क्या? :) सुन्दर
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